1544 ई. – मेहरानगढ़ का युद्ध :- राव मालदेव जोधपुर आए। सुमेलगिरी युद्ध की विजय से उत्साहित शेरशाह सूरी ने अपनी सेना को 2 भागों में विभाजित किया।
एक भाग को तो खवास खां, ईसा खां नियाजी आदि के नेतृत्व में जोधपुर की तरफ भेजा व दूसरे भाग का नेतृत्व स्वयं शेरशाह ने करते हुए अजमेर की तरफ प्रस्थान किया।
जोधपुर जाने वाली फौज ने जोधपुर से कुछ दूर पड़ाव डालकर शेरशाह के आने तक इंतजार किया। (ऐसा इसलिए किया गया था, क्योंकि फौज जितनी विशाल होती थी, आने जाने में उसे उतना ही ज्यादा समय लगता था)
अजमेर व आसपास के क्षेत्रों में नियंत्रण करते हुए शेरशाह ने भी जोधपुर की तरफ कूच किया और पहले भेजी हुई फौज के साथ मिल गया।
राव मालदेव अफगान सेना का सामना करने के लिए कोई खास मोर्चा नहीं बना सके और वे किला तिलोकसी वरजांगोत को सौंपकर वहां से चले गए।
अफगानों ने मेहरानगढ़ को घेर लिया। कई दिनों तक घेराबंदी चलती रही। तिलोकसी ने अपने सामर्थ्य अनुसार लड़ाई जारी रखी। आख़िरकार जब किले में रसद की कमी हुई, तब तिलोकसी ने गढ़ के द्वार खोल दिए।
द्वार खुलते ही दोनों तरफ से भीषण युद्ध शुरू हुआ। किलवाले राजपूत मरने-मारने के मकसद से शत्रुओं पर टूट पड़े। इस युद्ध में अचलसिंह शिवराजोत जोधावत ने अफगान सिपहसलार ममारख खां को मार दिया।
300 राजपूतों ने इस युद्ध में वीरगति पाई, जिसमें कुछ के नाम इस तरह हैं :- माला जोधावत रामा के भाई, राठौड़ अचला शिवराजोत, राठौड़ तिलोकसी वरजांगोत,
भाटी नाथू मालावत, राठौड़ सीधण खेतसीहोत, सोहड़ भैरव सीवराज सीहावत, इंदो सेखो धनराजोत, राठौड़ रामसिंह ऊहड़, राठौड़ सीकर जैतसिंहोत उदावत, पत्ता दुर्जनसाल, राठौड़ राणा वीरमोत।
वीरगति पाने वालों में एक नाम भाटी साकर सूरावत का भी मिला है, लेकिन एक लेख में उनका 1549 ई. में वीरगति पाना लिखा है, इसलिए इस विषय में कुछ संशय है।
एक पुस्तक में लिखा है कि इस युद्ध में मिले घावों से बाद में उनका देहांत हो गया। ये तथ्य भी अधिक विश्वसनीय नहीं लगता, क्योंकि युद्ध के 5 वर्ष बाद घावों से देहांत होना सम्भव नहीं लगता।
राणा वीरमोत मेहरानगढ़ दुर्ग की दीवार के पास वीरगति को प्राप्त हुए थे। अचलसिंह शिवराजोत जोधावत व तिलोकसी बरंगाजोत की छतरियां मस्जिद के पास में बनी हैं। अफगानों ने मेहरानगढ़ पर अधिकार कर लिया।
शेरशाह सूरी ने मेहरानगढ़ दुर्ग में मौजूद एक मंदिर को ध्वस्त किया और उसकी जगह एक मस्जिद बनवाई। इसके अलावा उसने एक अन्य मस्जिद जोधपुर में फुलेलाव तालाब के निकट बनवाई।
बहुत से लेखकों ने शेरशाह सूरी को सभी धर्मों का सम्मान करने वाला बताया है, लेकिन उपर्युक्त घटना उसकी धर्मांधता स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है।
शेरशाह सूरी ने जोधपुर में सईद खां बिलोच को सेना सहित नियुक्त किया और जगह-जगह अफगानी थाने कायम कर दिए।
शेरशाह सूरी ने नागौर में ईसा खां नियाजी व खवास खां को सेना सहित नियुक्त किया। शेरशाह ने भांगेसर (सोजत) में एक थाना कायम किया, जहां 5 हज़ार सैनिकों सहित हाजी खां और अली फते खां को तैनात किया।
इन्हीं दिनों अफगान सेनापति खवास खां ने मेहरानगढ़ किले के निकट ही खवासपुर नाम से एक नगर बसाया। अफगान सेनापति ने मेहरानगढ़ के उत्तर-पूर्व की तरफ से बाहर आने-जाने के लिए एक रास्ता भी बनवाया।
इस तरह जोधपुर, नागौर, अजमेर का सम्पूर्ण क्षेत्र शेरशाह सूरी के अधीन आ गया। जोधपुर पर शेरशाह सूरी द्वारा कब्ज़ा कर लेने के बाद राव मालदेव ने निम्नलिखित सरदारों के साथ सिवाना की तरफ प्रस्थान किया :-
राठौड़ जैसा भैरूदासोत चांपावत, राठौड़ महेश घड़सीहोत, राठौड़ जैतसी बाघावत, फलौदी के स्वामी राव राम व पोकरण के स्वामी जैतमाल।
राव मालदेव राठौड़ सिवाना के निकट स्थित पीपलोद व कुंडल में रहे। राव मालदेव का अधिकार पहले की तुलना में काफी कम प्रदेश पर रह गया था।
उनके कुछ सामन्तों ने तो उनको कर (टैक्स) देना भी बन्द कर दिया, क्योंकि उन्हें लगा कि राव मालदेव की शक्ति काफी क्षीण हो चुकी है। बीकानेर के राव कल्याणमल राठौड़ ने सुमेलगिरी के युद्ध में शेरशाह सूरी की सहायता की थी।
इस युद्ध के बाद राव कल्याणमल ने बीकानेर पर आक्रमण किया और वहां राव मालदेव की तरफ से तैनात बचे-खुचे सैनिकों को परास्त करके बीकानेर पर अधिकार कर लिया।
इसी तरह मेड़ता के राव वीरमदेव राठौड़ ने भी सुमेलगिरी के युद्ध में शेरशाह सूरी का साथ दिया था। युद्ध के बाद उन्होंने भी मेड़ता पर आक्रमण करके राव मालदेव के सैनिकों को परास्त किया और मेड़ता पर अधिकार स्थापित कर लिया।
शेरशाह सूरी के सेनापति खवास खां ने फलौदी दुर्ग पर आक्रमण किया। फलौदी के दुर्ग रक्षक धामा भाटी वीरगति को प्राप्त हुए और फलौदी पर शेरशाह का अधिकार हो गया।
शेरशाह सूरी ने फलौदी का क्षेत्र राव लूणकरण को सौंप दिया। खवास खां ने पोकरण के किले पर भी आक्रमण करके विजय प्राप्त की।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)