जनवरी, 1544 ई. – सुमेलगिरी का युद्ध :- अफगान बादशाह शेरशाह सूरी ने 80 हज़ार की सेना सहित मारवाड़ विजय हेतु रणभूमि में डेरे जमाए। उसने षड्यंत्र करके राव मालदेव के मन में उनके सामन्तों के प्रति अविश्वास पैदा कर दिया।
राव मालदेव अफगानों का सामना करने के लिए 50 हज़ार की सेना सहित रणभूमि तक पहुंचे थे, लेकिन अविश्वास के कारण 30 हज़ार की सेना लेकर वहां से लौट गए।
अब युद्धक्षेत्र में राव जैता, राव कूंपा आदि के नेतृत्व में 20 हज़ार सैनिक शेष रह गए। यह सैनिक संख्या भी अलग-अलग पुस्तकों में अलग-अलग मिलती है।
डॉक्टर साधना रस्तोगी के अनुसार 20 हज़ार सैनिक युद्धभूमि में मौजूद थे। डॉक्टर ओझा ने 10-12 हज़ार की संख्या लिखी है। तबकात-ए-अकबरी में तो यह संख्या मात्र 5-6 हज़ार ही लिखी गई है।
रेउ साहब ने लिखा है कि सुमेलगिरी के युद्ध में राठौड़ों की तरफ से केवल 6 हज़ार योद्धा ही थे। हालांकि इससे संबंधित सभी साक्ष्य देखने के बाद मुझे 12 हज़ार राठौड़ों द्वारा सुमेलगिरी में लड़ने की बात सटीक लगती है।
दरअसल कूंपा जी के पास 20 हज़ार वीर थे, लेकिन रात्रि में मार्ग भटकने के कारण युद्धभूमि में लगभग 12 हज़ार योद्धा ही पहुंच सके। राठौड़ों ने तय किया कि शेरशाह सूरी की सेना पर रात्रि में अचानक आक्रमण किया जाए।
लेकिन दुर्भाग्य से रात्रि में मार्ग भटक गए, जिससे राठौड़ों की सेना को व्यवस्थित करने में और समय लग गया और सुबह हो गई।
5 जनवरी, 1544 ई. को सुबह होते ही शेरशाह सूरी की सेना के पड़ाव के सामने राठौड़ घोड़ों पर तैनात खड़े थे। वे सब घोड़ों से उतरे और शेरशाह की सेना पर टूट पड़े।
सुमेलगिरी का युद्ध राजपूताने के इतिहास के सबसे बड़े युद्धों में से एक है और निसंदेह इसे मारवाड़ के इतिहास का सबसे बड़ा युद्ध कहा जाना चाहिए।
इस युद्ध में राजपूतों द्वारा दिखाई गई बहादुरी आज दिन तक हिंदुओं की ज़ुबान पर तो है ही, लेकिन उस ज़माने की फ़ारसी तवारीखों ने भी राजपूतों की बहादुरी का उल्लेख किया है।
एक फ़ारसी तवारीख नवादिरूल हिकायत में लिखा है कि “राठौड़ों और अफगानों के बीच ऐसी लड़ाई हुई कि तीर-कमान और भाले-तलवार के बाद छुरी और कटार से भी जंग होने लगी। राजपूत अपने घोड़ों से उतर आए और बहादुरी से लड़ने लगे।”
मुन्तख़ब उत तवारीख में अब्दुल कादिर बदायूनी लिखता है कि “सुबह होते ही राठौड़ हाथों में तलवार, बरछे लेकर अफगानों पर टूट पड़े। शेरशाह ने हाथियों की एक कतार को
राठौड़ों के सामने भेजा। हाथियों के पीछे से गोलन्दाजों और तीरंदाजों ने गोलों और तीरों से हमला किया, जिससे सब के सब राठौड़ मारे गए, पर एक भी अफगान नहीं मरा।”
बदायूनी का यह कथन बिल्कुल पक्षपात भरा है कि इतने बड़े युद्ध में एक भी अफगान नहीं मरा। बदायूनी के कथन को गलत सिद्ध करने के लिए अन्य फ़ारसी तवारीखों व स्वयं शेरशाह सूरी का बयान ही काफी है।
तारीख-इ-दाउदी में लिखा है कि “इस लड़ाई में बहुत से पठान मारे गए थे।” निजामुद्दीन भी यही लिखता है। इस प्रकार अन्य फ़ारसी तवारिखें यही लिखती हैं कि इस लड़ाई में कई अफगान मारे गए थे।
अकबरनामा में अबुल फ़ज़ल लिखता है कि “राव मालदेव जो उसकी 16वीं पुश्त में था, बहुत बढ़ा-चढ़ा था। करीब था कि शेरशाह का भी उसके मुकाबले में काम तमाम हो जाता।”
तारीख-ए-शेरशाही में अब्बास खां लिखता है कि “राठौड़ों से हुई लड़ाई में बादशाह शेरशाह की फौज की एक टुकड़ी भाग निकली। एक अफगान सिपाही ने शेरशाह के पास जाकर उससे कहा कि भागो, दुश्मन तुम्हारी फौज को तितर-बितर कर रहे हैं।”
युद्ध के दौरान शेरशाह सूरी का एक सेनापति जलाल खां सुरवानी, जो कि अजमेर में तैनात था, वह अपनी सैनिक टुकड़ी के साथ युद्ध में शामिल हो गया, जिससे शेरशाह की शक्ति और बढ़ गई।
जेतावतों की ख्यात व कूंपावतों की विगत के अनुसार शेरशाह सूरी ने जैता जी व कूंपा जी के शवों के पास खड़े रहकर मेड़ता के राव वीरमदेव से कहा कि “वीरम, ऐसे बहादुरों को नहीं मराना था, ये बहुत गलत हुआ, ये तो ज़मीन के थम्भ हैं।”
ग्रंथ वीरविनोद के अनुसार इस युद्ध में 2 हजार राठौड़ों ने वीरगति पाई, जबकि फ़ारसी तवारीखों के अनुसार “इस जंग में मारवाड़ के 11 हज़ार सैनिक मारे गए” (वीरगति को प्राप्त हुए)।
12 हज़ार राठौड़ों ने 80 हज़ार अफगानों के पैर उखाड़ दिए थे। यदि अफगानों की अतिरिक्त सेना नहीं आती, तो इस युद्ध में उनकी भारी शिकस्त होती।
इस युद्ध के बाद खुद अफगान बादशाह शेरशाह सूरी के मुंह से भी निकल पड़ा कि “मुट्ठी भर बाजरे के लिए मैंने हिंदुस्तान की बादशाहत खो दी होती”।
यहां राव मालदेव ने कितनी भयंकर भूल की थी, इसका अंदाज़ा पाठक इसी बात से लगा सकते हैं कि अगर 12 हज़ार राठौड़ 80 हज़ार अफगानों पर भारी पड़े, तो यदि राठौड़ 50 हज़ार होते तो इस युद्ध के नतीजे क्या निकलते।
राव मालदेव की इससे भी बड़ी भूल थी बीकानेर और मेड़ता वालों से दुश्मनी मोल लेना। निश्चित रूप से राव मालदेव द्वारा बीकानेर और मेड़ता पर किए गए आक्रमणों ने यहां के राजपूतों को शेरशाह का साथ देने के लिए मजबूर किया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)