ढूंढाड़ नरेश राजा रणमल बड़गूजर

ढूंढाड़ नरेश राजा रणमल बड़गूजर (1000 ई. — 1040 ई.)

” राजा का वंश परिचय ”

बड़गूजर सूर्यवँशी राजपूत हैं और मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र जी के बेटे लव के वंशज माने जाते हैं | गुर्जरदेश (वर्तमान गुजरात और दक्षिणी राजस्थान का सम्मिलित क्षेत्र) के बड़नगर से निकासी होने के कारण सूर्यवंशीयों की यह शाखा कालांतर में बड़गुर्जर/बड़गूजर कहीं जाने लगी |

बड़गूजर बड़वों की पोथी के अनुसार राजौरगढ़ नरेश महाराजा अचलदेव बड़गूजर ने अपने छोटे भाई लूणराज को दौसा किले का किलेदार बनाया था | इन्हीं राजा लूणराज (813 ई. – 845 ई.) की 6ठी पीढ़ी में राजा रणमल बड़गूजर हुए |

” दौसा की राजनीतिक स्थिति ”

10वी – 11वीं शताब्दी तक आते-आते दौसा एक व्यापारिक केंद्र के रूप में उभर चुका था | ये क्षेत्र मुख्यत: घोड़ों की व्यापारिक क्रिया के लिए प्रतिष्ठित था | राजा रणमल बड़गूजर के पास दौसा के अतिरिक्त भांडारेज दुर्ग था, जो रणनीतिक रूप से काफी महत्वपूर्ण था | इतिहासकार देवराज सिंह के अनुसार आभानेरी पर भी दौसा के बड़गूजरों का अधिकार था |

दौसा दुर्ग

चूंकि राजौरगढ़ के बड़गूजर लंबे समय तक कन्नौज के प्रतिहारों के सामंत रहे थे और उनके कई युद्ध अभियानों में भाग लेते रहने से तथा मुस्लिम आक्रमणकारियों से लगातार संघर्षरत रहने के कारण राजौरगढ़ की शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होने लगी थी |

इसी दौरान राजा रणमल बड़गूजर के नेतृत्व में दौसा के बड़गूजरों ने अपनी शक्ति को पर्याप्त बढ़ा लिया था | महत्वाकांक्षी और साहसी होने के कारण राजा रणमल ने अपने राज्य को काफी बढ़ाया | इसी के चलते मौरागढ़ (वर्तमान सवाई माधोपुर ज़िले के बामनवास के निकट) के चौहानों का दौसा के बड़गूजरों से सीमा विवाद था |

” मौरागढ़ के चौहानों से लड़ाई ”

राजा रणमल बड़गूजर महत्वाकांक्षी शासक थे | राज्य विस्तार करने के उद्देश्य से राजा रणमल ने सेना लेकर मौरागढ़ के चौहान शासक राजा रालण सिंह (सालार सिंह) पर आक्रमण कर दिया |

चौहानों और बड़गूजरों के बीच हुई इस लड़ाई में बड़गूजरों की जीत हुई और राजा रणमल बड़गूजर ने चौहानों के 50 गाँवों को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया |

प्रसिद्ध इतिहासकार मोहनलाल गुप्ता लिखते हैं ” दौसा के बड़गूजरों और मौरागढ़ के चौहानों के बीच भारी मन-मुटाव चल रहा था | ये दोनों एक दूसरे के इलाक़े दबाने में लगे हुऐ थे | दौसा के बड़गूजरों ने आक्रमण करके चौहानों से 50 गाँव छीन लिए | ”

” कछवाहों का आगमन ”

राजा सोढ़देव कछवाहा, जो करौली-मध्यप्रदेश की सीमा पर स्थिति नंदैरा (करौली, अमेठी, बरेली, रायपुर का भी क्षेत्र सम्मिलित था) के जागीरदार थे, के पुत्र दुल्हराय ने मौरागढ़ के राजा रालण सिंह से अन्यत्र राज्य के लिए पूछा तो राजा रालण सिंह चौहान ने प्रस्ताव भिजवाना की आप सेना लेकर दौसा के बड़गूजरों पर हमला करें तो युद्ध में हम आपका साथ देंगे | जिससे दौसा आप जीत लेंगे |

इतिहासकार रावल नरेंद्र सिंह लिखतें हैं ” दुल्हराय का विवाह मौरागढ़ के चौहान राजा रालण सिंह की राजकुमारी कुमकुमदेवी (सुजान कुंवरि) के साथ हुआ था | दुल्हराय ने रालण सिंह को लिखा कि उसे रहने के लिए कोई स्थान बताये | इस पर रालण सिंह ने उसे दौसा में आकर उस पर अधिकार कर लेने को लिखा | आधी दौसा उस समय देवती के बड़गूजरों की थी तथा आधी चौहानों की, जिससे उनकी अनबन थी | ”

उपर्युक्त विवरण में मालूम होता है कि राजा रणमल बड़गूजर द्वारा चौहानों से 50 गाँव जीते जाने पर जब चौहान जवाबी कार्रवाई करने में असमर्थ रहे तो उन्होंने कछवाहों से मदद मांगी | इस तरह चौहानों और कछवाहों के बीच हुए समझौते के तहत कछवाहा दौसा पर आक्रमण करेंगे और चौहान उनकी इसमें सहायता करेंगे |

राजौरगढ़ दुर्ग में स्थित अनंगसूदन महादेव मंदिर

” दौसा की पहली लड़ाई ”

राजा रालण सिंह चौहान और राजा दुल्हराय कछवाहा की सम्मिलित सेना ने दौसा दुर्ग जीतने के उद्देश्य से किले को घेरना शुरू कर दिया | दौसा दुर्ग के उत्तर की ओर पहाड़ी की तीव्र ढ़लान थी और दक्षिण दिशा से दुर्ग दोहरे परकोटे से सुरक्षित होने के कारण शत्रु सेना के लिए इसे जीतना आसान नहीं था |

राजा रणमल बड़गूजर ने दुर्ग के मोरी दरवाजे से निकल कर शत्रु सेना पर हमला कर दिया | बड़गूजरों द्वारा हुऐ अचानक इस हमले से कच्छवाहा और चौहान संभल नहीं सके | थोड़ी देर की लड़ाई के बाद कछवाहों और चौहानों की इस स्ममिलित सेना को भागना पड़ा और इस लड़ाई में राजा रणमल बड़गूजर विजयी रहे |

कूर्म विलास के अनुसार ” दौसा को जीतने के लिए हुई एक लड़ाई में कछवाहों और चौहानों की हार हुई थी | ”

” दौसा की दूसरी लड़ाई ”

दौसा की पहली लड़ाई से राजा रालण सिंह चौहान और राजा दुल्हराय कछवाहा ये बात अच्छी तरह से समझ चुके थे कि सीधी लड़ाई करके राजा राणमल बड़गूजर हो हराना और दौसा दुर्ग को जीतना इतना आसान नहीं था | इसलिए दोनों ने नई योजना बनाई और घोड़े का व्यापारी बनकर किले में जाना और छल से किला जीतना तय हुआ |

चूंकि दौसा इस समय तक घोड़े के व्यापारिक केंद्र के रूप में उभर चुका था | इतिहासकार कुंवर अमित सिंह लिखते हैं ” राजा रालण सिंह और राजा दुल्हराय दोनों ने घोड़े के व्यापारी बनके क़िले में प्रवेश किया और घोड़ो का कर्ज चुकाने के विषय में झगड़ा करने लगे |”

देखते ही देखते झगड़ा बढ़ गया और बड़गूजरों को सम्भलने का मौका नहीं मिला | अंततः बड़गूजर इस युद्ध में पराजित हुए |

राजा दुल्हराय कछवाहा की दौसा विजय के समय को लेकर इतिहासकारों के बीच मतभेद हैं | कर्नल जेम्स टॉड दौसा विजय 966 ई., रावल नरेंद्र सिंह 1127 ई., मोहनलाल गुप्ता 1036 ई., कुंवर अमित सिंह 1093 ई. से 1127 ई. के बीच, डॉ. गौरीशंकर ओझाजी और डॉ. रामलखन सिंह 12वी शताब्दी मानते हैं |

मेरे द्वारा कछवाहों, प्रतिहारों, बड़गूजरों, कलचुरियों और चंदेलों पर की गई रिसर्च से यह घटना 1020 ई. से 1030 ई. के बीच ठहरती है | चूंकि अब तक राजा दुल्हराय कछवाहा का कोई भी शिलालेख नहीं मिला है इसीलिए सटीक रूप से कह पाना मुश्किल है लेकिन फिर भी 1020 ई. से 1030 ई. के बीच का समय मानना ज्यादा उचित होगा |

महुआ दौसा से खुदाई में मिली बडगूजर-कालीन वराह मूर्ति

” राजा रणमल बड़गूजर की पुत्री राजकुमारी मोरानीकुंवरि से राजा दुल्हराय का विवाह ”

कर्नल जेम्स टॉड लिखते हैं ” खोहगंग पर अधिकार कर लेने के बाद दुल्हराय ने बड़गूजर राजा की कन्या से विवाह करने का प्रस्ताव भिजवाया | पर बड़गूजर राजा ने कहा कि आप कछवाहा राम के पुत्र कुश के वंशज हो और हम बड़गूजर कुश के भाई लव के वंशज हैं तथा वैवाहिक सम्बन्धों के लिए धर्मशास्त्र द्वारा निर्धारित जितनी पीढ़ियों के अंतर होना चाहिए वह अभी नहीं हुआ है | अतः यह सम्बन्ध सम्भव नहीं है | इस पर दुल्हराय ने अपने पिता सोढ़देव से वंशावली मंगवाई और पीढ़ियों का मिलान करवाया | उचित अंतर होने पर बड़गूजर राजा ने अपनी पुत्री का विवाह दुल्हराय से करवाया | ”

टॉड आगे लिखते हैं ” दौसा के बड़गूजर राजा के कोई पुत्र न होने की वजह से उसने दौसा दुल्हराय को दहेज में दे दिया | ”

ऐसा ही विवरण मुझे रावल नरेंद्र सिंह, डॉ. मथुरा लाल शर्मा और रावत सारस्वत की पुस्तकों में पढ़ने को मिला है | इतिहासकार डॉ. रामलखन सिंह लिखते हैं ” तेजकर्ण कच्छपघात उर्फ दुल्हराय, रणमल बड़गूजर की पुत्री मारौनी कुमारी से विवाह करके देवसा (दौसा) में रहने लगा | ”

दौसा दहेज में देने वाली बात सम्भवत सही नहीं हो | इस तरह दौसा की दूसरी लड़ाई में दुलहराय ने दौसा जीत कर राजा रणमल बड़गूजर की पुत्री से विवाह करके दौसा दुर्ग में ही रहना शुरू कर दिया | इसी दौरान दुल्हराय ने बड़गूजरों से भांडारेज और देवती दुर्ग भी जीत लिये |

” भांकरी की लड़ाई ”

बड़गूजरों से वैवाहिक संबंध बनाने के बाद जब राजा दुल्हराय ने भांडारेज और देवती जीता तो बड़गूजरों और कछवाहों के बीच पुनः शत्रुता शुरू हो गई |

राजा रणमल बड़गूजर ने राजौरगढ़ नरेश राजा जतनदेव बड़गूजर ने सैन्य सहायता लेकर दौसा जीतने के लिए भांकरी नामक स्थान पर राजा दुलहराय ने लड़ाई की | इस लड़ाई में कछवाहों की जीत हुई लेकिन राजा रणमल बड़गूजर महुआ, आभानेरी आदि क्षेत्र पर अधिकार करने में सफल रहे | ये क्षेत्र 13वी सदी तक बड़गूजरों के अधिकार में बना रहा |

इतिहासकार देवराज सिंह के अनुसार ” दौसा के बड़गूजरों ने दौसा को पुनः जीतने के लिए सेना तैयार की | भांकरी नामक स्थान पर बड़गूजरों और कछवाहों के बीच लड़ाई हुई | इस लड़ाई में कछवाहों की जीत हुई | ”

” राजा अजयपालदेव बड़गूजर और राजा कोकिलदेव का शासक बनना ”

भांकरी की लड़ाई के कुछ महीनों बाद ही राजौरगढ़ नरेश राजा जतनदेव बड़गूजर का देहांत हो गया और राजा अजयपालदेव बड़गूजर राजौरगढ़ की गद्दी पर बैठे |

इसके एक वर्ष बाद 1036 ई. में राजा दुल्हराय कच्छवाहा का भी देहांत हो गया और राजा कोकिलदेव अगले शासक बनें | राजा कोकिलदेव ने दौसा की जगह खोह के किले को राजधानी बनाया |

” खोहगंग का किला जितना ”

राजा कोकिलदेव कछवाहा ने राजौरगढ़ पर आक्रमण करने के उद्देश्य से खोहगंग किले को राजधानी बनाया | खोहगंग का किला मीणाओं के अधिकार में था और यहां का मीणा शासक आलणसी राजौरगढ़ के अधीन थे |

राजौरगढ़ नरेश राजाधिराज अजयपालदेव बड़गूजर ने राजा रणमल बड़गूजर , राजा आलणसी मीणा और अपने चौथे पुत्र कुंवर बाघराज-प्रथम के नेतृत्त्व में एक सेना खोहगंग दुर्ग पर भेजी |

बड़गूजर सेना और राजा कोकिलदेव कछवाहा के बीच भीषण युद्ध हुआ और राजा कोकिलदेव कछवाहा खोहगंग दुर्ग से खजाना लेकर भागने में सफल रहे |

इसके बाद राजा रणमल बड़गूजर ने कुंवर बाघराज के साथ मिलकर तालाब, माचेड़ी, राजगढ़ के मीणाओं से युद्ध करके इस सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने अधिकार में कर लिया |

इसी दौरान राजा अजयपालदेव बड़गूजर ने भी देवती का किला पुनः कछवाहों से जीत लिया | और अपने ज्येष्ठ पुत्र कुंवर जयन्तपालदेव ने नेतृत्त्व में सेना की टुकड़ी दुर्ग में छोड़ी |

” गेटोर लेने का असफल प्रयास ”

मीणा शासक आलणसी को साथ लेकर कुंवर बाघराज और राजा रणमल बड़गूजर ने गेटोर जीतने का प्रयास किया | इस दौरान राजा हूणदेव कच्छवाहा के साथ हुई लड़ाई में राजा रणमल वीरगति को प्राप्त हुऐ और राजा हूणदेव की जीत हुई |

नाढला मीणाओं की पोथी में गेटोर के युद्ध में बड़गूजर राजा का विरगति पाना लिखा है | जिन्हें मैंने पहले भूलवश बाघराज प्रथम समझ लिया था लेकिन बाद में की कई रिसर्च में राजा रणमल बड़गूजर का नाम सामने आया है | अतः इस लड़ाई में राजा रणमल वीरगति को प्राप्त हुऐ थे कुंवर बाघराज नहीं |

” राजा रणमल बड़गूजर की संतति ”

कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार दौसा के राजा के केवल एक पुत्री थी जिसका विवाह राजा दुलहराय कच्छवाहा के साथ हुआ था | लेकिन शेषमालोत बड़गूजरों की पोथी और अंग्रेज इतिहासकार एच. एम. इलियट दोनों ने दौसा के राजा का वंश बढ़ना बताया है | बड़वों की पोथी जहां राजा शेषमल बड़गूजर का नाम बताती है तो इलियट महोदय राजा कुरासेन बड़गूजर का | संभवत: राजा शेषमल का ही अन्य नाम कुरासेन रहा हो |

” रोहिलखंड के कछवाहों पर आक्रमण करना ”

राजा रणमल बड़गूजर के बाद उनके पुत्र शेषमल शासक बनें | इन्होंने राजौरगढ़ से सैन्य सहायता लेकर रोहिलखंड (मुजफ्फरनगर) के कछवाहों पर आक्रमण करके उनके 84 गांवों पर अधिकार कर लिया |

इलियट महोदय लिखते हैं ” दौसा के राजा कुरासेन (शेषमल बड़गूजर) के नेतृत्त्व में बड़गूजरों ने बड़ी संख्या में रोहिलखंड आकर यहां के कछवाहों पर कहर बरपाया और उनको मार – भागकर उस क्षेत्र में चौरासी गांव स्थापित किए | ”

ढूंढाड़ नरेश राजा रणमल बड़गूजर

राजा शेषमल बड़गूजर के पुत्रों की एक शाखा तो रोहिलखंड में ही शासन करने लगी | जहां इनका शासन 14वी सदी तक बना रहा | दिल्ली सुलतान अलाउद्दीन ख़िलजी के शासन काल में ये शाखा मुस्लिम बन गई |

वहीं दूसरी शाखा जो दौसा के आसपास शासन कर रही थी हिंदू ही रही | इन्हीं शाखा के वंशज वर्तमान में भांडारेज, हनुमानगढ़, सीकर, चूरू, झुंझुनूं, हरियाणा आदि इलाकों में पाए जाते हैं |

संदर्भ सूची :–
(1) बड़गूजर राजवंश – महेंद्र सिंह तलवाना
(2) बड़गूजर-सिकरवार-मड़ाढ – कुंवर अमित सिंह, डॉ. खेमराज राघव, पवन बख्शी
(3) मीणा इतिहास – रावत सारस्वत
(4) प्रतिहारों का इतिहास – डॉ. रामलखन सिंह
(5) बड़गूजरों का इतिहास – मोहन सिंह कानोता
(6) मामोयर्स. सप्लीमेंटरी ग्लोसरी – एच. एम. इलियट
(7) पिचानौत कछवाहों का इतिहास – रिचा पिचानौत और पुष्पेंद्र सिंह पिचानौत
(8) आमेर का इतिहास – हनुमान शर्मा
(9) सवाई जयसिंह का इतिहास – राजेंद्र शंकर भट्ट
(10) राजस्थान का इतिहास – बी. एम. दिवाकरे
(11) शेषमालोत बड़गूजरों की पोथी – बड़वा विक्रम सिंह जी
(12) नाढला मीणाओं की पोथी
(13) Dulha Rai’s Conquest of Dausa – महाराज देवराज सिंह
(14) जयपुर संभाग का जिलेवार एवम् सांस्कृतिक अध्ययन – डॉ. मोहनलाल गुप्ता
(15) जयपुर राजकीय परिचय पुस्तक, 1916 ई.
(16) जयपुर राजकीय प्रशासनिक रिपोर्ट, 1941 ई.
(17) ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ़ जयपुर, 1936 ई. – रावल नरेंद्र सिंह
(18) कैंब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया
(19) जयपुर राज्य का इतिहास – डॉ. मथुरालाल शर्मा
(20) जर्नल ऑफ़ दी राजस्थान इंस्टीट्यूट ऑफ़ ओरिएंटल रिसर्च, 1966 ई.
(21) कूर्म विलास
(22) एनाल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान – कर्नल जेम्स टॉड
(23) इतिहासकार जितेंद्र सिंह जी शेखावत और महाराज देवराज सिंह जी के दैनिक भास्कर में छपे कुछ लेख

पोस्ट लेखक – जितेंद्र सिंह बड़गूजर, भीलवाडा

error: Content is protected !!