राजा बाघराज बड़गूजर द्वितीय (1135 ई.-1153 ई.) का इतिहास :- माचेड़ी नरेश राजा दोपाड़देवजी बड़गूजर और रानी आशाकुंवरी के पुत्र व्याघ्रदेव (बाघराज द्वितीय) का जन्म 1 फरवरी 1120 ई. में हुआ था।
इनकी माता मोरागढ़ के चौहानवंशी राजा वीरमदेव की पुत्री थी। राजा बाघराज द्वितीय को संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं का ज्ञान था, साथ ही वे मीमांसा, वेदांत, गणित और संगीत का भी अच्छा ज्ञान रखते थे। राजा बाघराज भगवान विष्णु के परमभक्त थे।
महाराजा दोपाड़देवजी के देहांत के बाद राजा बाघराज द्वितीय 1135 ई. में अल्पायु में माचेड़ी की गद्दी पर बैठे। कुछ समय के लिए उनकी माता उनकी संरक्षिका रहीं लेकिन बाद में राजा ने राजकाज अपने हाथों में ले लिया।
दिनकर के घर जन्में है वो, उनसे बड़ा ना कोई वीरवर। बड़प्पन और संस्कारों की नींव रख, बाघराज बने बड़गूजर।।
इस समय राजौरगढ़ पर महाराजा पृथ्वीपालदेव बड़गूजर (1145ई.-1182ई.), शाकम्भरी पर राजा अर्णोराज चौहान (1135ई.-1151ई.), दिल्ली पर राजा विजयपाल तोमर (1130 ई.-1151ई.) और बयाना पर यदुवंशियों (जादौन राजपूतों) का शासन था।
राजा की प्रारंभिक समस्याएं :- 1112 ई. में सुल्तान अर्सलान के सिपहसालार बाल्हीम (1112 ई.-1117 ई.) द्वारा नागौर पर अधिकार करने के साथ नागौर पर मुस्लिम आधिपत्य स्थापित हो गया।
उसके बाद सुल्तान बहरामशाह (1117 ई.-1153 ई.) ने इब्राहीम अलवी के पुत्र सालार हुसैन (1117 ई.-1133 ई.) को नागौर का किलेदार नियुक्त किया।
बाल्हीम और सालार हुसैन दोनों बराबर के धार्मिक कट्टरपंथी थे। इन दोनों सिपहसालारों ने लगभग 21 वर्षों तक लगातार नागौर और इसके आसपास के इलाकों ना केवल लूटा बल्कि यहां बड़ी मात्रा में कत्लेआम किए और कई मंदिर भी तोड़े।
सालार हुसैन ने यहाँ एक सैनिक छावनी बनाकर स्थानीय राजाओं से कई छोटी-बड़ी लड़ाइयां लड़ी। उसके द्वारा लुटे गए भूभाग में अजमेर, आमेर, माचेड़ी, उत्तर में खेतड़ी, जांगल प्रदेश, फलौदी तक के विशाल भूभाग शामिल थे।
नागौर पर तुर्कों का अधिपत्य स्थापित होने के साथ ही चौहानों और तुर्कों के बीच संघर्ष प्रारम्भ हो गया। जिसमें राजा दोपाड़देव बड़गूजर ने चौहानों का साथ दिया। जिसका एक बड़ा ख़ामियाजा उन्हें अपने ऊपर आक्रमणों के रूप में भुगतना पड़ा।
हालाकिं 1133 ई. के आसपास ही राजा दोपाड़देव ने राजा अर्णोराज के साथ मिलकर नागौर से मुस्लिम शासन का अंत तो कर दिया था लेकिन इन आक्रांताओं के द्वारा की गई तबाही, कत्लेआम, लूट-खसोट आदि घटनाएं जनता के मस्तिष्क पटल पर अभी तक कौंधती थी।
राजा बाघराज द्वितीय के सामने इस भयभीत जनता को माचेड़ी और आसपास के इलाकों में पुनः बसाना एक बड़ी चुनौती थी। कृषि, सिंचाई, व्यापार जैसी आर्थिक गतिविधियां भी अवरुद्ध हो चुकी थी। प्रजा का विशाल मात्रा में माचेड़ी से पलायन हो चुका था।
मुस्लिम आक्रमण का भय हमेशा इन्हें सताता रहता। सुरक्षा की दृष्टि से माचेड़ी किला भी अब अभेद्य नहीं रह गया था। 21 वर्षों तक लगातार हुई तबाही की पूर्ति राजा बाघराज द्वारा मात्र 2 वर्षों में संभव भी नहीं थी। इसलिए राजा ने सबसे पहले प्रजा को पुनः बसाना के प्रयास किये।
बाघोला बांध का निर्माण और व्यापारिक गतिविधियां – 1145 ई. :- राजा बाघराज द्वितीय ने राजगढ़ और माचेड़ी के आसपास इलाक़ो के लिए सिंचाई व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए राजगढ़ से माचाडी जाने वाले मार्ग पर राजगढ़ कस्बे की पहाड़ियों के पीछे की ओर पश्चिम दिशा में एक विशाल बांध का निर्माण करवाया। जिसके अवशेष आज भी विद्यमान है जिसे लोग “बाघोला बांध या बाधूला बांध” कहते हैं।
बाघोला बांध की पाल से वि.स.1202 (1145ई.) का शिलालेख मिला है, जो माचेड़ी-राजगढ़ के बड़गूजरों का पहला महत्वपूर्ण शिलालेख है।
‘आर्किलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया’ के महानिदेशक एलेक्जेंडर कनिंघम को 1863 ई. में बाघोला बांध की पाल पर खुदाई के दौरान 3 आदम कद नग्न जैन मूर्तियां मिली थी। जिससे स्पष्ट होता है कि राजा बाघराज द्वितीय जैन धर्म को संरक्षण दे रहे थे।
इस दौरान व्यापारिक गतिविधियों पर साहू जाति के किसी सेठ का एकाधिकार का था। उसका व्यापार गुर्जरदेश, शाकम्भरी, बयाना, हरियाणा, दिल्ली, मत्स्य प्रदेश, अंग, बंग, कलिंग, कर्नाट, चेदि, गौड़, टक्क आदि देशों में फैला हुआ था। राजौरगढ़ और माचेड़ी के बड़गूजर भी इसी व्यापारी के द्वारा अपने पड़ौसी राज्यों से व्यापार करते थे।
राजगढ़ दुर्ग और चतुर्भुजनाथजी मंदिर का निर्माण करवाना – 1151 ई. :- मुस्लिम-चौहान संघर्ष के दौरान माचेड़ी के बड़गूजरों ने चौहानों की ओर से कई युद्ध लड़े। इन युद्धों के चलने माचेड़ी किला क्षतिग्रस्त हो चुका था। राजा दोपाड़देव के समय राजपरिवार को कांकवाड़ी किले में सुरक्षित रखा गया था।
राजा बाघराज द्वितीय ने माचेड़ी से 6 किलोमीटर पश्चिम में राजगढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया और राजधानी को माचेड़ी से राजगढ़ दुर्ग में स्थानांतरित किया।
राजगढ़ दुर्ग से बाईं ओर लगभग 20-25 क़दमों की दूरी पर चतुर्भुजनाथजी (भगवान विष्णु) का मंदिर बनवाया। इसी मंदिर से राजा बाघराज द्वितीय का वि.स. 1208 (1151 ई.) का शिलालेख प्राप्त हुआ है। इस शिलालेख के अनुसार बड़गूजर राजा बाघराज ने चतुर्भुजनाथजी मंदिर और उसके पास एक गिरी दुर्ग बनवाया था।
शिलालेख के अनुसार इस मंदिर में वणिक रहलन के पौत्र और दल्हान के पुत्रों वलहन, नलहन और अर्जुन ने ‘चक्र – विष्णु’ मूर्ति की स्थापना की थी।
भगवान विष्णु की यह मूर्ति वर्तमान में चोरी हो चुकी है और मंदिर खंडित अवस्था में मौजूद है। इस शिलालेख में राजौरगढ़ महाराज पृथ्वीपालदेव बड़गूजर का शासन करना बताया गया है।
राजा बाघराज द्वितीय और राजा विग्रहराज चतुर्थ :- राजा अर्णोराज चौहान के बाद शाकम्भरी की गद्दी पर राजा विग्रहराज चतुर्थ आसीन हुए। राजा बाघराज द्वितीय के शासनकाल के अंतिम वर्ष राजा विग्रहराज चतुर्थ के विजय अभियानों में उनके साथ ही बीते।
बब्बेरा की लड़ाई – 1152 ई.-1153 ई. :- लाहौर के शासक खुशरो शाह (1153 ई.-1160 ई.) ने नागौर को जीतने के लिए सेना की एक टुकड़ी भेजी। जिसे रोकने के लिए राजा विग्रहराज चतुर्थ अपनी सेना लेकर बब्बेरा नामक स्थान के निकट आ पहुँचे।
शाकम्भरी की सेना के साथ इस समय राजौरगढ़ के शासक राजा पृथ्वीपालदेव बड़गूजर, राजा सोहनपाल, माचेड़ी शासक राजा बाघराज द्वितीय इत्यादि शासक थे। ये सभी शासक अपनी-अपनी सेना के साथ युद्ध में मौजूद थे।
इनके अतिरिक्त और भी कई शासकों ने सेना भिजवाई थी। इतिहासकारों के अनुसार इस युद्ध में राजा विग्रहराज चतुर्थ की ओर से 1000 हाथी और 1 लाख अश्वारोहियों ने भाग लिया था, लेकिन इतनी बड़ी सेना अकेले शाकम्भरी राजा के पास नहीं थी।
सुल्तान खुशरो शाह ने शाकम्भरी राज के मंत्री श्रीधर को भारी धन देकर अपनी तरफ मिला लिया था और उसे युद्ध में सेना आगे करके भाग जाने के लिए बोला लेकिन युद्ध से पहले ही राजा विग्रहराज चतुर्थ के मामा सिंहबल को कुटिल और देशद्रोही मंत्री श्रीधर के बारे में बता चल गया और उन्होंने राजा विग्रहराज चतुर्थ को सारी सूचना दे दी।
राजा विग्रहराज चतुर्थ ने मंत्री श्रीधर को बंदी बना लिया और सेना का नेतृत्व राजा सोहनपाल (सलक्षणपाल) को सौंप दिया।
दोनों सेनाओं के बीच बब्बेरा नामक स्थान पर लड़ाई हुई, जिसमें सुल्तान खुशरो शाह की सेना की करारी हार हुई। राजपूत सेना ने तुर्कों को पंजाब की सतलज नदी घाटी तक खदेड़ा। बब्बेरा वर्तमान में खेतड़ी (झुंझुनू) में पड़ता है। राजा बाघराज इस युद्ध में गम्भीर रूप से घायल हुए।
राजगढ़ के मीणाओं से लड़ाई – 1153 ई. :- माचाडी इलाके के कुछ मीणा जनजाति के लोग रात्रि के समय पशुओं और अन्य वस्तुओं की चोरी करते और जंगल में छुप जाते। इस वजह से उनको पकड़ना काफी मुश्किल हो गया था।
इससे परेशान होकर राजा बाघराज द्वितीय ने माचेड़ी पहाड़ी के तपस्या कर रहे नाथपंथी साधु की सहायता ली और मीणाओं के विरुद्ध छापामार तरीके से लड़कर उन्हें पकड़ कर दंड दिया।
राजा बाघराज द्वितीय से जुड़ी लोककथा :- राजा बाघराज द्वितीय और नाथपंथी बाबा भुरासिद्ध को लेकर एक दंत कथा आज भी जनमानस में मौजूद है, जो निम्न प्रकार है :-
राजा बाघराज द्वितीय के समय राजगढ़-माचेड़ी के मीणा रात्रि के समय पशुओं और अन्य सामान की चोरी क़ियां करते थे। घना वन और पहाड़ी इलाके की वजह से ये लोग चोरी करके आसानी से छिप जाते थे।
जब प्रजा काफी परेशान हुई तो उन्होंने राजा से न्याय की गुहार लगाई लेकिन राजा बाघराज द्वितीय कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं कर सके। इस विषय को लेकर जब राजा बाघराज द्वितीय ने नाथपंथी बाबाभुरासिद्धजी से कहा तो बाबाभुरासिद्धजी ने राजा को देह बदलने की विद्या सिखाई और कहा कि
इसके बारे में किसी दूसरे व्यक्ति को बताया तो इसका दुष्प्रभाव झेलना पड़ेगा और तुम्हारा (राजा का) शरीर मनुष्य से बाघ रूप में ही रह जाएगा। उसके बाद राजा रात्रि के समय अपनी देह को मनुष्य से बाघ की कर लेते और मीणाओं को सबक सिखाते।
एक दिन जब रानी को राजा के इस कार्य पर संदेह हुआ तो उन्होंने राजा भेद बताने की जिद की। राजा के बार बार समझाने पर भी जब रानी नहीं मानी तो उन्होंने रानी को कुछ अभिमंत्रित कौड़ियां देते हुए कहा कि
“मैं आपको वह रूप दिखाता हूँ जिससे मेरा शरीर बाघ की तरह हो जाएगा लेकिन आप जल्दी ही इन अभिमंत्रित कौड़ियों को मेरे ऊपर फेक देना जिससे मैं पुनः मनुष्य बन जाऊंगा”
जब राजा ने अपना रूप बाघ का क़ियां तो रानी भय के कारण मूर्छित हो गई और कौड़ियों जमीन पर गिरने से अपवित्र हो गई। इससे राजा का रूप बाघ का ही बन गया और कुछ देर बाद दुष्प्रभाव के चलते राजा की मृत्यु हो गई।
जब अंतिम संस्कार के लिए राजा की बाघरूपी देह को महल से बाहर लाने का प्रयास किया गया तो राजा का शरीर उठा ही नहीं। बाद में हाथियों की मदद से जंजीर बांधकर शरीर बाहर लाया गया और जहां उनका अंतिम संस्कार हुआ वही पर उनका एक स्थान बनवाया गया।
जिसकी मूर्ति बाघरूपी मनुष्य (आधा शरीर मनुष्य का और आधा बाघ का) रखी गई। इस तरह राजा बाघराज द्वितीय की मृत्यु हुई। वर्तमान समय में भी इस मंदिर में राजा बाघराज की लोकदेवता के रूप में पूजा होती है।
राजा बाघराज से जुड़ी भ्रांतियां :- (1) प्रसिद्ध इतिहासकार मोहनलाल गुप्ता लिखते हैं :- “बड़गूजर शासक बाघराज ने विक्रम की तीसरी सदी के प्रारंभ में राजगढ़ की स्थापना की तथा अपने नाम से बाघोला तालाब बनवाया, जो अब भी मौजूद है। राजगढ़ और इसके निकटवर्ती क्षेत्र में राजा बाघराज की लोकदेवता के रूप में पूजा होती है।”
इतिहासकार मोहनलाल गुप्ता के इस कथन को गलत साबित करने के लिए राजा बाघराज द्वितीय का वि.स. 1202 (1145 ई.) का बाघोला शिलालेख ही पर्याप्त है। जिसमें बाघोला बांध निर्माण की बात लिखी है।
तीसरी सदी में तो बड़गूजर वंश ढूंढाड़ या मत्स्यप्रदेश में मौजूद ही नहीं था। मत्स्यप्रदेश में बड़गूजरों का आगमन राजा राजदेव के समय 7वी शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में हुआ था। ऐसे में तीसरी सदी में यह सब होना असंभव है।
(2) इतिहासकार मोहन सिंह कानोता, कुंवर अमित सिंह राघव और उनकी टीम (डॉ. खेमराज राघव, पवन जी बक्शी) दोनों ने अपनी पुस्तकों में राजा बाघराज द्वितीय के पुत्र बिशनदेव और खांडेराय का हरियाणा जाना और
खांडेराय के वंशज राजा भूप सिंह बड़गूजर द्वारा 1058 ई. में भौंडसी बसाना लिखा है। राजा भूपसिंह के छोटे भाई राजा रूपसिंह के वंशज राजा सोहन सिंह बड़गूजर द्वारा 1088 ई. में सोहना बसाया ऐसा लिखा है।
मेरे अनुसार यह सही नहीं है क्योंकि उपरोक्त बताया गया समय (1058 ई. और 1088 ई.) राजा बाघराज द्वितीय से काफी पहले का है। बिशनदेव और खांडेराय सम्भवतः राजा बाघराज प्रथम के पुत्र रहे होंगे क्योंकि 1058 ई. का समय राजा बाघराज प्रथम के ज्यादा निकट और राजा बाघराज द्वितीय से ज्यादा दूर है।
राजौरगढ़ के शासक राजा अजयपालदेव बड़गूजर का 1044 ई. का शिलालेख में उपलब्ध है और इन्हीं के चौथे पुत्र बाघराज प्रथम थे , जो 1036 ई. से 1060 ई. तक जीवित रहे।
अतः मेरा मत है कि राजा बाघराज द्वितीय की जगह बाघराज प्रथम के पुत्र ही हरियाणा गये होंगे। जो कि समयानुसार ज्यादा उचित प्रतीत होता है। पोस्ट लेखक :- जितेंद्र सिंह बडगूजर
संदर्भ सूची :- (1) क्षत्रिय राजवंश : बड़गूजर-सिकरवार-मडाढ़ (कुंवर अमित सिंह राघव, डॉ. खेमराज राघव, पवन बक्शी) (2) जयपुर सम्भाग का जिलेवार सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन (डॉ. मोहनलाल गुप्ता)
(3) राजस्थान के प्राचीन नगर और क़स्बे (डॉ. राघवेंद्र सिंह मनोहर) (4) बड़गूजर राजवंश (श्रीमहेंद्र सिंह तलवाना) (5) बड़गूजर राजपूतों का इतिहास (श्रीमोहन सिंह कानोता)
(6) प्रोटेक्टेड मॉन्युमेंट ऑफ़ राजस्थान (डॉ. चंद्रमणि सिंह) (7) दिल्ली के तोमर (श्रीहरिहर निवास द्विवेदी) (8) अलवर राज्य का इतिहास (एस. एल. नागौरी)