मारवाड़ नरेश राव मालदेव राठौड़ (भाग – 20)

अकबर द्वारा मेड़ता पर आक्रमण :- 10 मार्च, 1562 ई. को अकबर की सेना ने मिर्ज़ा शरीफुद्दीन के नेतृत्व में मेड़ता पर आक्रमण कर दिया।

शरीफुद्दीन के नेतृत्व में निम्न सिपहसलारों को भेजा गया :- जयमल कछवाहा, लूणकरण कछवाहा, सूजा कछवाहा, शाह बदख खां, अब्दुल-ए-मतलाब, मुहम्मद हुसैन शेख।

इस समय राव मालदेव ने मेड़ता पर राठौड़ देवीदास जैतावत व राठौड़ जगमाल को नियुक्त कर रखा था। देवीदास जैतावत सुमेलगिरी में वीरगति पाने वाले प्रसिद्ध योद्धा जैताजी के पुत्र थे। जगमाल मेड़ता के वीरवर जयमल राठौड़ के भाई थे।

4 मुगल घुड़सवार किले के द्वार के निकट आए और द्वार पर तीर चलाने लगे। राठौड़ों ने किले की दीवार से ईंट, पत्थर आदि फेंकने शुरू किए व तीर चलाए।

अकबर

4 में से 2 मुगल घुड़सवार तो मारे गए व 2 घायल होकर अपने सेनापति के पास लौट आए। मिर्ज़ा शरीफुद्दीन ने रणनीति में बदलाव किया। उसने मेड़ता नगर में थाने बिठा दिए।

फिर उसने किले को चारों तरफ से घेरकर सुरंगें खुदवाना शुरू किया। सुरंगें तैयार हुईं, तो एक सुरंग में बारूद भरवाकर विस्फोट किया गया, जिससे किले की एक बुर्ज़ ध्वस्त हो गई और किले की दीवार में गहरी दरार पड़ गई।

दरार से कुछ मुगल सिपाही भीतर आकर हमले करने लगे, जिससे लड़ाई जारी रही। जैसे ही रात हुई, तब किलेवाले राजपूतों ने रातों-रात दीवार की दरार भरवा दी।

राव मालदेव ने अपने पुत्र कुँवर चन्द्रसेन को 2 हज़ार घुड़सवारों सहित मेड़ता की तरफ भेजा। इस सेना में पृथ्वीराज कूंपावत राठौड़, सोनगरा मानसिंह अखैराजोत (महाराणा प्रताप के मामा), राठौड़ सांवलदास उदयसिंहोत आदि राजपूत भी थे।

राव मालदेव ने इस सेना को विदा करते समय यह आदेश दिया था कि युद्ध का अवसर ठीक हो, तभी युद्ध करना, वरना देवीदास को साथ लेकर लौट आना।

सोनगरा मानसिंह जी

कुँवर चन्द्रसेन सेना सहित रवाना हुए और सातलवास, इंद्रावड़ आदि स्थानों पर पड़ाव डालते हुए मेड़ता पहुंचे। उन्होंने किसी तरह एक आदमी भेजकर देवीदास से कहलवाया कि किले से बाहर आओ और हमारे साथ चलो।

लेकिन देवीदास ने मना कर दिया। कुँवर चन्द्रसेन उस ज़माने के राजपूतों से कुछ अलग थे। वे परिस्थितियों को भलीभांति समझते थे और उसी के अनुसार निर्णय लेते थे।

वे वीरगति के स्थान पर अवसर आने पर शत्रु का विनाश करने का दृष्टिकोण रखते थे। इसलिए उन्होंने सोचा कि यदि इस समय हम मुगलों से लड़े, तो सभी मारे जाएंगे।

कुँवर चन्द्रसेन तो सेना सहित लौट गए, लेकिन उनके एक साथी सांवलदास राठौड़ अपनी सैनिक टुकड़ी सहित वहीं रुके और उन्होंने मुगलों पर आक्रमण कर दिया। इस लड़ाई में लगभग 100 मुगल मारे गए व सांवलदास भी वीरगति को प्राप्त हुए।

(कुछ ख्यातों में लिखा है कि ये सांवलदास राठौड़ रीयां के थे। उन्होंने मेड़ता वालों की सहायता की, इसलिए मुगलों ने रीयां पर हमला किया और सांवलदास को मार दिया)

राव मालदेव राठौड़

फरिश्ता लिखता है कि “मुगलों की एक फौजी टुकड़ी का सामना राठौड़ों ने इतनी बहादुरी से किया कि एक वक्त पर मुगल फौज के पीछे लौटने के नौबत आ गई थी।”

मुगल सेना महीनों तक मेड़ता के किले पर घेरा डालकर पड़ी रही और हर रोज़ दोनों तरफ से हमले होते थे, जिससे किला कमज़ोर हो गया। किले के राजपूत भी वीरगति को प्राप्त होते जा रहे थे।

राव मालदेव इस युद्ध के पक्ष में नहीं थे, उन्होंने किले में देवीदास के पास सन्देश भिजवाकर कहलवाया कि “तुम लड़कर मेरी शक्ति क्यों कम कर रहे हो”।

किले वाले कुछ राजपूतों ने किले से बाहर आकर मिर्ज़ा शरीफुद्दीन से संधि वार्ता की। काफी बातचीत के बाद तय हुआ कि राठौड़ अपना सारा सामान किले में ही छोड़कर यहां से चले जावें।

राठौड़ों ने यह शर्त स्वीकार की और मुगल फौज लौट गई, लेकिन मुगलों के साथ कछवाहा राजपूतों की जो सैन्य टुकड़ी थी, वह वहीं रुकी।

अगले दिन किले के एक सेनापति जगमाल ने अपना धन, शस्त्र आदि सब कुछ किले में ही छोड़ दिया और बाहर आ गए। परन्तु सेनापति देवीदास ने अपना सारा सामान जलाकर राख कर दिया, ताकि वह मुगलों के काम न आ सके।

फिर देवीदास घुड़सवारों सहित बाहर आ गए। राव मालदेव ने कछवाहा राजपूतों के राज्य का भी कुछ हिस्सा अपने अधीन कर रखा था, इसलिए कछवाहे राठौड़ों से नाराज़ थे।

उन्होंने जाकर मिर्ज़ा शरीफुद्दीन से शिकायत कर दी कि देवीदास ने अपना सामान जला दिया है। ये बात सुनकर मिर्ज़ा को बड़ा क्रोध आया और वह मुगल व कछवाहों की सेना सहित राठौड़ों पर हमला करने के लिए रवाना हुआ।

देवीदास को पता चला कि मुगल फौज उनका पीछा कर रही है, तो वे पीछे मुड़े और वहीं रुक गए। सातलियावास गांव में दोनों सेनाएं आमने-सामने थीं।

मिर्ज़ा की सेना के बाएं भाग में शाह बदख खां, अब्दुल-ए-मतलाब, मुहम्मद हुसैन शेख आदि थे व दाएं भाग में जयमल कछवाहा, लूणकरण कछवाहा, सूजा आदि थे।

मालकोट (मेड़ता) दुर्ग

राठौड़ों की संख्या बहुत कम थी, इसलिए देवीदास ने सीधे मुगल सेना के केंद्र पर आक्रमण कर दिया। 200 राठौड़ों ने रणभूमि में वीरगति प्राप्त की। देवीदास भी ज़ख्मी होकर घोड़े से गिर पड़े।

गिरने के बावजूद देवीदास लड़ते रहे और वीरगति को प्राप्त हुए। अकबरनामा में अबुल फ़ज़ल ने मेड़ता के इस युद्ध का वर्णन कुछ इस तरह लिखा है :-

“बादशाह अकबर ने अपने अजमेर सफ़र के दौरान मिर्ज़ा शरीफुद्दीन हुसैन को कई आदमियों समेत मेड़ता के किले पर कब्ज़ा करने भेजा। उसके साथ कई बड़े सिपहसलार भी भेजे गए थे। उस वक्त मेड़ता राव मालदेव के कब्जे में था,

जो हिंदुस्तान के ताकतवर राजाओं में से एक था। उसने जगमाल और देवीदास को किला सौंप दिया। किले की हिफाज़त की ख़ातिर 500 राजपूतों को भी वहां मुकर्रर कर दिया। घोड़ों पर सवार लोहे के जिरहबख्तर पहने

बादशाही आदमियों ने मेड़ता के किले की तरफ कूच किया, वे लोग पसीने से लथपथ थे। मेड़ता के कस्बे में चौकी पर तैनात राजपूत किले में घुस गए। 4 बहादुर शाही घुड़सवार आगे बढ़े,

मालकोट (मेड़ता) दुर्ग

जिन पर राजपूतों ने हमला किया। किलवाले राजपूतों ने कंगूरों को अपनी ढाल बना लिया और ईंट, पत्थर, तीर और गोलियां दागना शुरू किया। 4 में से 2 ने शहादत पाई और बाकी 2 ज़ख्मी होकर लौट आए। फिर मिर्ज़ा शरीफुद्दीन ने

अपने साथियों से सम्भलकर काम करने को कहा। सुरंगे खुदवाकर उनमें बारूद भरवाया गया और किले की बुर्ज़े उड़ाने की भी कोशिशें की गई। किले में दरारें भी पड़ गई। अक्सर दोनों तरफ से लड़ाई जारी रहती। फिर कुछ दिन बाद

किले में रसद की कमी हुई, तो राजपूतों के लिए किला हवालात बन गया। फिर किलेवाले राजपूतों ने बतचीत से मसला सुलझाना चाहा। मिर्ज़ा ने कहा कि तुम अपना खज़ाना, माल सब छोड़कर किले से बाहर आ जाओ। जगमाल तो बाहर आ गया,

पर देवीदास ने अपनी बदकिस्मती और शैतानी ख़यालों के चलते सारा सामान जलाकर राख कर दिया। जैसे किसी सांप के बिल में आग जलाने से वो बाहर आता है, वैसे ही देवीदास अपने 400-500 साथियों के साथ बाहर आया और

बादशाही फ़ौज के सामने बहादुरी से खड़ा हो गया। जयमल और लूणकरण, जिनका किलेवालों के साथ पुराना झगड़ा था। (जयमल कछवाहा व लूणकरण आदि कछवाहा राजपूतों का राव मालदेव से सीमाओं के अतिक्रमण को लेकर पुराना झगड़ा था)

राव मालदेव राठौड़

जयमल और लूणकरण ने मिर्ज़ा से जाकर कहा कि किलेवाले राजपूतों ने धोखा किया है, उन्होंने अपना सामान भी जला दिया। ये सुनकर मिर्ज़ा ने भी अपनी फ़ौज जमाई। मिर्ज़ा खुद फ़ौज के बीच में था। बाई तरफ

मुसलमान सिपहसलारों को और दाई तरफ कछवाहा राजपूतों की फ़ौजी टुकड़ियों को जंग के मुताबिक जमाया गया। उन्होंने देवीदास का पीछा किया। जब देवीदास को पता चला,

तो उसने अपने घोड़े की लगाम घुमाई और सीधे बादशाही फ़ौज के बीच वाले हिस्से पर पुरज़ोर हमला कर दिया। बड़ी बहादुरी दिखाकर देवीदास घोड़े से गिर पड़ा और बादशाही आदमियों ने उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए। इस लड़ाई ने रुस्तम के अतीत के पुराने पन्ने ढंक दिए।”

इस प्रकार अबुल फ़ज़ल ने भी देवीदास राठौड़ की बहादुरी की प्रशंसा की है। अबुल फ़ज़ल ने रुस्तम से संबंधित जो पंक्ति लिखी उसका आशय ये है कि मुगल लेखक अक्सर बहादुरों की तुलना रुस्तम से किया करते थे।

लेकिन यहां जिस तरह की लड़ाई हुई, अबुल फ़ज़ल को भी लिखना पड़ा कि रुस्तम की लड़ाई के किस्से भी अब अतीत बनकर रह गए।

कुछ लेखकों ने लिखा है कि देवीदास राठौड़ इस लड़ाई में घायल होकर बच निकले और फिर कुछ वर्ष एक जोगी के वेश में मिले। हालांकि ये सब बनावटी बातें हैं, वास्तव में देवीदास जी ने इसी युद्ध में वीरगति पाई थी, क्योंकि इसके समकालीन प्रमाण मौजूद हैं।

इस युद्ध में राव मालदेव की तरफ से वीरगति को प्राप्त योद्धाओं का वर्णन :- राठौड़ देवीदास जैतावत, राठौड़ महेश पंचायणोत करमसिंहोत, राठौड़ भाखरसी डूंगरसिंहोत, राठौड़ भाखरसिंह जैतावत पंचायणोत,

राठौड़ भीम दूदावत, राठौड़ पूरणमल पृथ्वीराजोत जैतावत, राठौड़ भाण भोजराजोत, राठौड़ सहसा रामावत, मांगलिया वीरमदेव, राठौड़ राणा जगन्नाथोत, राठौड़ महेश घडसीहोत, भाटी पीथो अणदोत, भाटी पिरागदास भारमलोत,

राठौड़ सांगा रणधीरोत, काक चांदावत, भाटी तिलोकसिंह, देदा मांगलिया, सेसो उर्जनोत पंचायणोत, राठौड़ गोयन्ददास राणावत अखैराजोत, राठौड़ हमीर ऊदावत, राठौड़ पत्ता कूंपावत, राठौड़ अमरा आसावत,

राठौड़ अमरा रामावत, नेतसी सीहावत, राजसिंह घड़सीयोत, सिंघण अखैराजोत, राठौड़ पृथ्वीराज, राठौड़ अचला भाणोत, राठौड़ रामा भैरवदासोत, राठौड़ जयमल तेजसिंहोत, राठौड़ अखा जगमालोत, जैमल पंचायणोत,

राठौड़ जैतमाल पंचायणोत मेड़तिया, राठौड़ ईसरदास घडसीहोत, राठौड़ ईसरदास राणावत, राठौड़ तेजसी सीहावत, सांखला तेजसी भोजावत, चौहान जैतसी, राठौड़ रणधीर रायमलोत,

खाती भानीदान, बारहठ जीवा, बारहठ जालप, हमजा (ये एक मुसलमान था), आसामी (किले के एक नेतृत्वकर्ता जगमाल जी ने तो किला छोड़ दिया, लेकिन उनके चाकर आसामी ने देवीदास जी के नेतृत्व में लड़ते हुए वीरगति पाई)

डॉक्टर साधना रस्तोगी ने मेड़ता की इस लड़ाई में राव कूंपा राठौड़ के पुत्र पृथ्वीराज के भी वीरगति पाने का उल्लेख किया है। 3 वर्ष बाद पृथ्वीराज के पुत्र सारंगदेव को राव मालदेव ने मेड़ता परगने का गोल नामक गाँव जागीर में दिया।

मेड़ता व उसके आसपास के क्षेत्र पर अकबर का अधिकार हो गया। अकबर ने जयमल कछवाहा (राजा भारमल के भतीजे) को मेड़ता का गवर्नर बना दिया। 2 वर्ष बाद अकबर ने राजा भारमल के भाई जगमाल कछवाहा को मेड़ता का गवर्नर बनाया।

1562 ई. – राव मालदेव का देहांत :- कार्तिक सुदी 12 विक्रम संवत 1619 (7 नवम्बर, 1562 ई.) को मध्यान्ह के समय राव मालदेव का देहांत हो गया। राव मालदेव ने कुल 31 वर्षों तक शासन किया।

राव मालदेव राठौड़

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

1 Comment

  1. December 5, 2022 / 5:23 pm

    बहुत ही शानदार लिखते है आपकी रिसर्च बहुत अच्छी है

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