राव मालदेव व हुमायूं :- 1539 ई. में चौसा के युद्ध में व 1540 ई. में बिलग्राम के युद्ध में अफगान बादशाह शेरशाह सूरी ने मुगल बादशाह हुमायूं को परास्त करके हुमायूं की शक्ति बहुत क्षीण कर दी।
मारवाड़ नरेश राव मालदेव अफगानों और मुगलों के इस संघर्ष का बारीकी से निरीक्षण कर रहे थे। राव मालदेव ने मुगल बादशाह हुमायूं के पास मैत्री प्रस्ताव भेजना तय किया।
26 जनवरी, 1541 ई. से सितंबर तक हुमायूं भक्कर नामक स्थान पर रहा था। राव मालदेव ने भक्कर में ही हुमायूं के पास निमंत्रण पत्र भेजा। हुमायूं ने इस पत्र का कोई जवाब नहीं दिया।
इसका प्रमुख कारण ये था कि वह सिंध जाना चाहता था, क्योंकि वहां ऐसे लोग थे जिन पर पहले हुमायूं ने उपकार किए थे, इसलिए वहां से मदद की गुंजाइश थी। हुमायूं को उम्मीद थी उनका साथ मिलने से वह गुजरात विजय कर सकेगा।
इसके विपरीत यदि वह राव मालदेव का प्रस्ताव स्वीकार करके मारवाड़ आ जाता, तो उसे पूर्ण रूप से राव मालदेव पर ही निर्भर रहना पड़ता। हुमायूं सिंध चला गया।
उसने 8 महीनों का समय थट्टा के शासक शाह हुसैन से सहायता मांगने में बिता दिया था। मदद न मिलने पर हुमायूं ने सविस्तान (सेहवान) के किले को घेर लिया, लेकिन घेराबंदी के बावजूद भी किला फ़तह नहीं हो सका।
इसके बाद शाह हुसैन ने हुमायूं का पीछा किया, तो हुमायूं पुनः भक्कर चला गया। यहां के शासक यादगार नासिर ने शाह हुसैन से सन्धि कर ली और फिर उसने भी हुमायूं की मदद करने से इनकार कर दिया।
1542 ई. के प्रारंभ में भक्कर में ही हुमायूं को दोबारा राव मालदेव का संदेश मिला। अकबरनामा व तबकात ए अकबरी के अनुसार राव मालदेव ने हुमायूं को उसका तख्त पुनः दिलाने का वादा किया।
फ़ारसी तवारीखों के अनुसार राव मालदेव ने 20 हज़ार राजपूतों का सहयोग प्रदान करने का वादा किया था। इसके पीछे का कारण ये था कि इस समय शेरशाह सूरी की शक्ति काफी अधिक बढ़ती जा रही थी, जिसे रोकने के लिए हुमायूं का उत्थान आवश्यक था।
भक्कर में यादगार नासिर के रवैये से नाराज़ हुमायूं के पास अब आखिरी आस राव मालदेव ही थे। उसने मरुस्थल से होते हुए मारवाड़ की तरफ जाने का निश्चय किया।
हुमायूं के पास रसद नहीं थी और मारवाड़ तक का मार्ग बड़ा कठिन था, लेकिन उसे उम्मीद थी कि बक्शूलंगाह के द्वारा उसे रसद मिल जाएगी। हुमायूं ने उच्च नामक स्थान से होते हुए मारवाड़ जाने का फैसला किया।
भक्कर और उच्च के बीच में अरु नाम का एक गांव था, जहां से हुमायूं को कुछ रसद मिली। फिर मउ नामक गाँव से गुजरते हुए हुमायूं की सेना उच्च पहुंची।
उच्च के शासक बक्शूलंगाह ने हुमायूं को रसद नहीं दी और यहां तक कि हुमायूं के जो सिपाही रसद खरीदने जाते, उनको पकड़ना भी शुरू कर दिया।
उच्च में डेढ़ महीना बिताने के बाद 27 जून, 1542 ई. को हुमायूं सेना सहित रवाना हुआ और 28 जून को दिरावर के किले में पहुंचा। यह किला सिंध और जैसलमेर राज्य की सीमा पर स्थित था।
यहां अनाज और पानी की कोई कमी नहीं थी। गढ़ में 4 कुएं और एक तालाब था। 3 दिन तक इस किले में ठहरने के बाद हुमायूं ने यहां से कूच किया और 4 जुलाई, 1542 ई. को वहां से 36 कोस दूर स्थित वरसलपुर नामक स्थान पर पड़ाव डाला।
यहां से आगे हुमायूं ने बींकूपुर में पड़ाव डाला। 31 जुलाई को हुमायूं ने बींकूपुर से 16 कोस दूर स्थित विकुपुरसर के तालाब किनारे डेरा डाला। यहां से हुमायूं ने मीरसमन्दर को राव मालदेव के पास भेजा।
मीरसमन्दर ने लौटकर हुमायूं को बताया कि मालदेव की बातों में कोई खास रुझान नहीं है। फिर हुमायूं ने रायमल सोनी को राव मालदेव के पास भेजा।
हुमायूं ने रायमल सोनी से कहा था कि तुम वहीं रहकर एक सन्देश भिजवा देना, जिससे राव मालदेव की मंशा पता चल सके। हुमायूं को यह भी भय था कि कहीं संदेशवाहक मारवाड़ वालों द्वारा पकड़ न लिया जावे।
इसलिए हुमायूं ने रायमल सोनी से कहा था कि अगर राव मालदेव मन से हमारी मदद करना चाहता है, तो तुम्हारा संदेशवाहक मेरे पास आकर मेरी पांचों उंगलियां पकड़ ले और अगर राव मालदेव के मन में धोखा है,
तो संदेशवाहक मेरे हाथ की सबसे छोटी उंगली पकड़ ले। (अर्थात संदेशवाहक को सिर्फ संकेत ही बताया जाएगा, ना कि वास्तविक सन्देश)
फिर हुमायूं ने फलौदी में पड़ाव डाला, जहां उसे अच्छी मात्रा में अनाज मिल गया। फलौदी से हुमायूं ने अतका खां को दूत बनाकर राव मालदेव के पास भेजा।
राव मालदेव ने अतका खां से बात की और उसके हाथों हुमायूं के लिए फल, मेवे आदि भिजवाए। अतका खां ने हुमायूं से कहा कि राव मालदेव ने थोड़ी बहुत खातिरदारी की,
लेकिन आपको इतनी बड़ी मदद देने में उसका कोई रुझान नहीं लग रहा। इसके बाद हुमायूं ने थोड़ी दूरी पर स्थित जोगी तालाब किनारे डेरा डाला।
यहां रायमल सोनी द्वारा भेजा गया संदेशवाहक आया और उसने हुमायूं की सबसे छोटी उंगली पकड़ ली, जिससे हुमायूं को पूर्ण रूप से यकीन हो गया कि राव मालदेव उसकी कोई सहायता नहीं करेंगे।
राव मालदेव व हुमायूं से संबंधित शेष वर्णन अगले भाग में लिखा जाएगा। पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)