राजसिंहोत शक्तावत राजपूतों का ठिकाना – पीपल्या / पिपलिया रावजी (मनासा, नीमच – मध्यप्रदेश) :- यह ठिकाना मेवाड़ के सामन्तों की द्वितीय श्रेणी के 32 ठिकानों में शुमार है।
मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह के द्वितीय पुत्र महाराज शक्तिसिंह के 13वें पुत्र राजसिंह के द्वितीय पुत्र कल्याणसिंह शक्तावत को यह ठिकाना जागीर में मिला था।
मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह प्रथम के समय पीपल्या पर हाथीराम चंद्रावत का अधिकार था। महाराणा अमरसिंह का एक ऊंट झालरापाटन से पीपल्या होते हुए उदयपुर जा रहा था, जिस पर महाराणा के कपड़े लदे हुए थे।
हाथीराम ने यह ऊंट पकड़ लिया, जिससे क्रोधित होकर महाराणा अमरसिंह ने कल्याणसिंह शक्तावत को सेना सहित पीपल्या भेजा। कल्याणसिंह ने हाथीराम को कैद किया और महाराणा अमरसिंह के सामने हाजिर किया।
महाराणा अमरसिंह ने पीपल्या की जागीर हाथीराम से छीनकर कल्याणसिंह शक्तावत को दे दी। इससे पहले कल्याणसिंह के पास सतखंधे की जागीर थी।
कल्याणसिंह के भाई कीता के 2 पुत्र हुए :- शूरसिंह व उदयभान। शूरसिंह के वंशज बिनोता के स्वामी हैं। मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह द्वितीय के शासनकाल (1698-1710 ई.) में रामपुरा के राव गोपालसिंह चंद्रावत के पुत्र रतनसिंह ने रामपुरा की गद्दी अपने पिता से छीन ली।
रतनसिंह ने औरंगज़ेब को प्रसन्न करके रामपुरा की गद्दी अपने पास ही रखी। राव गोपालसिंह ने महाराणा अमरसिंह द्वितीय की शरण ली और बादशाही इलाकों पर हमले करने लगे। इन हमलों में कल्याणसिंह शक्तावत के भतीजे उदयभान ने भी गोपालसिंह की सहायता की।
कल्याणसिंह शक्तावत के बाद क्रमशः हरिसिंह, हठीसिंह व बाघसिंह पीपल्या के स्वामी हुए। जब मेवाड़ के महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय का शासन था, उस समय दक्षिण में सतारा की गद्दी पर छत्रपति शाहू महाराज विराजमान थे।
छत्रपति शाहू महाराज के कई अधिकारी उनके विरोधी हो गए थे, तब उन्होंने मेवाड़ से कोई योग्य अधिकार भेजे जाने का निवेदन किया। फिर महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय ने पीपल्या के बाघसिंह शक्तावत को सतारा भेजा।
बाघसिंह जी ने अपनी योग्यता से छत्रपति शाहू महाराज व उनके अधिकारियों के बीच मनमुटाव समाप्त कर दिया। यदि यह मनमुटाव समाप्त न होता तो मराठा साम्राज्य में गृहयुद्ध की स्थिति चरमसीमा पर पहुंच जाती।
रावत बाघसिंह की योग्यता से प्रसन्न होकर 1726 ई. में छत्रपति शाहू महाराज ने अपने सभी हिन्दू-मुस्लिम अधिकारियों के पास आज्ञापत्र भेजे, जिसमें लिखा था कि
“रावत बाघसिंह बड़े ही सत्पुरुष हैं व हमारे ही कुल के हैं। इनकी व इनके वंशजों की प्रतिष्ठा व मान मर्यादा सदा बनी रहनी चाहिए। इन्होंने मुझ पर बड़ा उपकार किया है। इन्हीं के प्रताप से भारत में हिन्दू राज्य अब तक स्थिर है। मेरा
आदेश न मानकर कोई हिन्दू इनकी मान मर्यादा को तोड़ने की कोशिश करेगा, तो उसके 7 वंशज नरक में जाएंगे। यदि कोई मुसलमान इस आदेश की अवहेलना करेगा, तो उसे सूअर का मांस खाने के बराबर पाप लगेगा।” (इस पत्र का ऊपर लिखित अंश प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर ओझा ने अपनी पुस्तक में लिखा है)
रावत बाघसिंह के उत्तराधिकारी जयसिंह शक्तावत हुए। महाराणा ने जयसिंह को अपना प्रतिनिधि बनाकर छत्रपति शाहू महाराज के पास भेजा। छत्रपति शाहू महाराज उनका बहुत सम्मान करते थे।
वे जयसिंह को ‘काका’ कहकर संबोधित करते थे। 1756 ई. में जयसिंह का देहांत हो गया। फिर जयसिंह के पुत्र केसरीसिंह शक्तावत पीपल्या के स्वामी हुए। 1767 ई. में केसरीसिंह ने पीपल्या के गढ़ का जीर्णोद्धार करवाया।
केसरीसिंह ने इंदौर के महाराज मल्हारराव के साथ भाईचारे का संबंध स्थापित किया। मेवाड़ के महाराणा अरिसिंह के शासनकाल में महादजी सिंधिया ने उदयपुर पर आक्रमण किया था।
इस समय महाराणा को मराठों से सन्धि करनी पड़ी, जिसके फलस्वरूप लाखों रुपए मराठों ने लिए। रुपयों का इंतजाम करने के लिए महाराणा अरिसिंह ने अपने सरदारों से भी रुपए मंगवाए।
इसी तरह पीपल्या के स्वामी केसरीसिंह से 35 हज़ार रुपए मंगवाए गए। केसरीसिंह द्वारा रुपए न देने पर उनकी जागीर जब्त कर ली गई। जब केसरीसिंह का देहांत हुआ, तब यह जागीर केसरीसिंह के पुत्र भीमसिंह को दे दी गई।
भीमसिंह के बाद जालिमसिंह व जालिमसिंह के बाद गोकुलदास पीपल्या के स्वामी हुए। विधि का विधान देखिए कि जिस मराठा साम्राज्य को पीपल्या के ठिकाने ने इतने बड़े संकट से उबारा था,
उसी मराठा साम्राज्य के लुटेरे वंशजों ने अपनी सेना सहित पीपल्या पर धावा बोल दिया। पीपल्या के स्वामी गोकुलदास से कहा गया कि या तो फौज खर्च दो या फिर गढ़ हमारे हवाले कर दो।
स्वाभिमानी गोकुलदास शक्तावत ने मराठों से कहलवा दिया कि “तुम्हारे पूर्वज हमारे पूर्वजों के एहसानमन्द रहे थे, पर लगता है तुम अपना अतीत भूल बैठे हो। ना तो तुम्हें फौज खर्च की रकम मिलेगी और ना ही ये गढ़ तुम्हारा हो सकेगा।”
मराठों की दमदार सेना भी इस छोटे से गढ़ में तैनात मुट्ठी भर बहादुरों के सामने बेबस नज़र आई। मराठों ने एक महीने तक पीपल्या के गढ़ को घेरे रखा। गोकुलदास के कुछ वीरों ने वीरगति पाई, लेकिन गढ़ पर मराठों का कब्ज़ा न होने दिया।
इसके बाद मराठों ने घेराबंदी उठा ली। मेवाड़ के महाराणा स्वरूपसिंह के शासनकाल में उनके व उनके सामन्तों के बीच मतभेद हो गए। इस समय पीपल्या के स्वामी गोकुलदास के पुत्र हिम्मतसिंह थे। हिम्मतसिंह इस विवाद में महाराणा के साथ खड़े रहे।
महाराणा ने प्रसन्न होकर उनको ‘रावत’ की उपाधि दी। 1861 ई. में जब महाराणा स्वरूपसिंह का देहांत हो गया, तब हिम्मतसिंह ने अपने पुत्र लक्ष्मणसिंह को पीपल्या का स्वामी बनाया और स्वयं वृंदावन चले गए। हिम्मतसिंह का देहांत वृंदावन में ही हुआ।
1868 ई. में लक्ष्मणसिंह अपने ही भाइयों के हाथों मारे गए। लक्ष्मणसिंह के उत्तराधिकारी किशनसिंह (शेरसिंह के पुत्र) हुए। 1876 ई. में मेवाड़ के महाराणा सज्जनसिंह ने किशनगढ की राठौड़ राजकुमारी से विवाह किया था।
इस अवसर पर किशनसिंह शक्तावत सहित कई सरदारों ने महाराणा को बिंदोले (दावत) दिए थे। 23 नवम्बर, 1881 ई. को मेवाड़ के महाराणा सज्जनसिंह ने गवर्नर जनरल लॉर्ड रिपन के आगमन पर चित्तौड़गढ़ दुर्ग में एक भव्य दरबार का आयोजन किया था।
इस दरबार में पीपल्या के किशनसिंह शक्तावत भी शामिल हुए थे। किशनसिंह के बाद क्रमशः जीवनसिंह, भीमसिंह व सज्जनसिंह, प्रतापसिंह पीपल्या के स्वामी हुए। वर्तमान में रावत दिग्विजय सिंह शक्तावत पीपल्या के रावत साहब हैं।
(सोर्स :- राजपूताने का इतिहास, वीरविनोद, सगतरासो) पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
मान्यवर, अक्सर मैं आपके लेख पढ़ता हूं। सारगर्भित और तथ्यों पर आधारित इतिहास से जनसाधारण को अवगत कराने के लिए साधुवाद।
Nice information about Thikana Pipliya ,thanks for sharing.Any relation of Pipliya Rao Sahiba with Thikana Bhadrajun in choraayee pargana of Jalore
Kiya hua….jaldi se vejo inti jar ka raha hi bohot