यह पोस्ट उन लोगों के लिए अतिमहत्वपूर्ण है, जो चित्तौड़गढ़ दुर्ग का भ्रमण करने वाले हैं। इस पोस्ट में चित्तौड़गढ़ के छोटे-बड़े कई महत्वपूर्ण स्थानों की ऐतिहासिक जानकारी मार्ग सहित लिखी गई है। इससे बिना किसी गाइड के आप स्वयं सम्पूर्ण किले का भ्रमण कर सकते हैं।
पाडन पोल किले का पहला गेट है, यहीं पर एक स्मारक बना हुआ है जो देवलिया रावत बाघसिंह सिसोदिया का है। 1534 ई. में रावत बाघसिंह ने चित्तौड़गढ़ के दूसरे शाके में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह के आक्रमण के वक्त मेवाड़ के महाराणा का प्रतिधिनित्व करते हुए इसी जगह पर वीरगति प्राप्त की थी।
फिर कुछ आगे किले का दूसरा द्वार भैरव पोल आता है, जहां देसूरी के भैरवदास सोलंकी ने 1534 ई. में बहादुरशाह की सेना से लड़ते हुए इसी स्थान पर वीरगति प्राप्त की।
भैरव पोल में प्रवेश करते ही दाई (right) तरफ 4 खंभों की एक छतरी बनी हुई है, जो कि 1568 ई. में मुगल बादशाह अकबर की सेना से लड़ते हुए वीरगति पाने वाले वीर कल्ला जी राठौड़ की है।
कल्लाजी की छतरी से ठीक आगे वाली 6 खंभों की छतरी इसी युद्ध में वीरगति पाने वाले वीर जयमल जी मेड़तिया राठौड़ की है।
युद्ध से एक दिन पहले अकबर ने जयमल जी के पैर पर पर गोली चलाई थी, जिससे वे ज़ख्मी हो गए और अगले दिन युद्ध में कल्लाजी के कंधों पर बैठकर लड़े थे।
इसके बाद क्रमशः हनुमानपोल, गणेश पोल, जोरला पोल व लक्ष्मण पोल आते हैं। ये सभी द्वार मेवाड़ के महाराणा कुम्भा ने ही बनवाए थे। अगला द्वार आता है रामपोल।
रामपोल वही द्वार है, जहां अकबर के आक्रमण के समय सर्वाधिक रक्तपात हुआ था। युद्ध के बाद यहां हज़ारों की तादाद में मुगलों, राजपूतों व प्रजा के शव मिले। रामपोल के भीतर प्रवेश करते ही ठीक सामने एक छतरी दिखाई देती है।
ये छतरी अकबर से हुए युद्ध में उसकी सेना के कई हाथियों को अपनी तलवार से मारने वाले व इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त अंतिम राजपूत योद्धा वीर रावत पत्ता जी चुंडावत की है।
पत्ताजी के कारण ही यहां मुगलों की लाशों के ढेर लगे थे।अकबर ने स्वयं इनकी तुलना एक हज़ार घुड़सवारों से की थी।
पत्ता जी की छतरी से एक रास्ता बाई ओर व एक रास्ता दाई ओर जाता है। आप दाई (right) तरफ जाइए। कुछ आगे तुलजा भवानी माता का मंदिर स्थित है, जिसके बारे में कोई कहता है कि ये दासीपुत्र बनवीर ने बनवाया था,
तो कोई कहता है कि उसने जीर्णोद्धार करवाया था, ये भी प्रचलित है कि बनवीर ने महाराणा विक्रमादित्य की हत्या यहीं की थी।
कुछ आगे जाने पर टिकिट काउंटर आता है। टिकटें खरीदकर आगे बढ़ने पर मात्र कुछ कदम की दूरी पर दाई (right) तरफ महाराणा कुम्भा महल का प्रवेश द्वार है। कुछ विद्वानों का मानना है कि चित्तौड़गढ़ का पहला जौहर इस महल में हुआ।
कुम्भा महल के प्रवेश द्वार पर ही एक छोटा सा मंदिर भी है, जो कि देवनारायण जी का है। यह मंदिर महाराणा सांगा द्वारा बनवाया गया था।
कुम्भा महल देखकर आगे बढ़ने पर एक रास्ता बाई तरफ जाता है व एक रास्ता दाई तरफ जाता है। आपको दाई (right) तरफ जाना है, लेकिन यदि आपको नगीना बाजार देखना है तो 10-20 कदम बाई (left) तरफ जाने पर दिखेगा।
नगीना बाजार की दुकानें दिखेंगी, जो कि मुख्य सड़क से काफी ऊपर बनी हैं। ऐसा इसलिए ताकि मुख्य सड़क पर ज्यादा भीड़ न रहे। नगीना बाजार देखकर उसी दिशा में कुछ कदम दूर बाई (left) तरफ पातालेश्वर मंदिर है, जो कि महाराणा उदयसिंह के शासनकाल में बनवाया गया था।
ये मंदिर देखकर पुनः पीछे मुड़ जाएं और नगीना बाजार होते हुए बाई (left) तरफ सफेद महल को देखें, ये फतह प्रकाश महल है। वर्तमान में इसे म्यूजियम का रूप दिया हुआ है।
ये म्यूजियम देख सकते हैं। इसके ठीक पास में सतबीस देवरी जैन मंदिर है। इस जैन मंदिर के थोड़ा सा आगे सामने की तरफ एक ही परिसर में 2 मंदिर दिखाई देते हैं।
इनमें से बड़ा वाला मंदिर कुंभश्याम मंदिर है, जो कि महाराणा कुम्भा ने भगवान विष्णु को समर्पित करते हुए बनवाया था। कुंभश्याम मंदिर पर उत्कीर्ण मूर्तियों की कलाकारी अद्भुत है।
छोटे वाले मंदिर में भक्त शिरोमणि मीराबाई जी भगवान कृष्ण की पूजा किया करती थीं, इसलिए ये मंदिर मीरा मंदिर भी कहलाता है।
कुछ आगे जाकर दाई (right) तरफ जाना है। यहां महान विजय स्तम्भ है, जो महाराणा कुम्भा ने भगवान विष्णु को समर्पित करते हुए बनवाया था। अधिकतर समय विजय स्तम्भ भीतर से बन्द ही रहता है।
विजय स्तम्भ जैसा अद्भुत कलात्मक स्तम्भ समस्त विश्व में दूसरा नहीं मिलेगा। विजय स्तम्भ के ठीक पास में एक बगीचा है। इसी जगह मेवाड़ के इतिहास का दूसरा जौहर हुआ था।
यह जौहर बहादुरशाह गुजराती के आक्रमण के समय महाराणा सांगा की पत्नी महारानी कर्णावती के नेतृत्व में हुआ था। यहां आपको हवन कुंड भी दिखेंगे।
इस स्थान के निकट ही एक मंदिर है, जिसका नाम समिद्धेश्वर महादेव मंदिर है। चित्तौड़गढ़ पर कुछ समय महान परमार राजा भोज का राज भी रहा था, ये मंदिर उन्होंने ही बनवाया। मेवाड़ के महाराणा मोकल ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था।
पास में ही कुछ कदम की दूरी पर गोमुख कुंड है, जहां गाय के मुख जैसी आकृति से अनवरत कभी न बन्द होने वाला पानी आता रहता है।
किले में छोटे बड़े कुल 22 तालाब हैं। गोमुख कुंड का भ्रमण करने के बाद पुनः मुख्य मार्ग पर आने के बाद दाई (right) ओर जाएं। फिर आगे जाने पर रास्ते में छोटे मंदिर, तालाब आदि आते हैं और फिर दाई (right) तरफ एक महल बना हुआ है, जिसके ठीक सामने एक तालाब भी है।
ये महल चित्तौड़गढ़ के तीसरे शाके के नेतृत्वकर्ता रावत पत्ताजी चुंडावत का है। अकबर के आक्रमण के समय चित्तौड़ का तीसरा जौहर किले में 3 अलग-अलग स्थानों पर हुआ था, जिसमें से एक स्थान ये महल भी है।
पत्ताजी के इस महल में जौहर को अब तक महसूस किया जा सकता है, इसकी दीवारें भी काफी काली हैं। इस महल पर चढ़ने के बाद पीछे की तरफ एक और महल दिखाई देता है, जो कि वीर जयमल जी राठौड़ का था।
पत्ताजी के इस महल के ठीक सामने की तरफ जो तालाब है उसे भी जयमल-पत्ता का तालाब ही कहा जाता है। फिर मुख्य मार्ग पर आगे प्रस्थान करने पर दाई (right) तरफ कालिका माता का भव्य मंदिर बना हुआ है।
यह मंदिर चित्तौड़ दुर्ग में स्थित सबसे पुराना मंदिर है। लगभग 1300 वर्ष पहले यह एक सूर्य मंदिर था, जो कालातंर में कालिका माता मंदिर में बदल दिया गया।
कालिका माता मंदिर दर्शन के बाद पुनः मुख्य मार्ग पर थोड़ा आगे जाने पर दाई (right) तरफ अलाउद्दीन खिलजी से लड़ते हुए वीरगति पाने वाले योद्धा गोरा-बादल के महल हैं। यहीं से कुछ दूरी पर रानी पद्मिनी महल व रानी पद्मिनी बगीचा स्थित है।
पुनः मुख्य मार्ग पर आगे जाने पर बाई (left) तरफ भाक्सी है, जो कि महाराणा सांगा के समय की जेल है। कहते हैं कि उन्होंने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी को यहीं कैद रखा था।
भाक्सी से थोड़ा सा आगे ठीक दाई (right) तरफ नागचंद्रेश्वर मंदिर है। यहां से आगे जाने पर बाई तरफ छोटा सा वैद्यनाथ महादेव मंदिर है, जिसके ठीक पीछे एक तालाब है। कहा जाता है कि यह तालाब चित्रांगद मौर्य ने बनवाया था।
इस तालाब के ठीक सामने की तरफ सनसेट पॉइंट है। यहां किले की प्राचीर से सारे शहर का नज़ारा दिखेगा। यहां से मुख्य मार्ग पर आगे जाते रहने पर दाई (right) तरफ एक मृगवन दिखाई देता है। कई बार इसके भीतर प्रवेश वर्जित होता है, अन्यथा इसमें प्रवेश करके किले के अंतिम छोर तक पहुंचा जा सकता है,
जहां से ठीक बाहर वह रेत का पहाड़ दिखाई देता है, जो अकबर ने बनवाया था ताकि उस पर तोपें चढ़ाकर किले की दीवारें तोड़ी जा सके। इसे मोहर मगरी कहते हैं, क्योंकि ये मगरी बनाने वालों को राजपूतों के तीरों का सामना करना पड़ता था, इसलिए अकबर ने एक टोकरी रेत के बदले एक मोहर देने का वादा किया था मजदूरों से।
(यदि आप ये रेत का मगरा देखना चाहते हैं, तो किले के भ्रमण के बाद किले से बाहर निकलकर आगे जाकर घटियावली रोड पर जाएं। इस रोड पर किले की दीवार जहां खत्म होती है, ठीक उसके आगे ये मगरा बना हुआ है जो स्पष्ट रूप से रेत का दिखाई देता है)
मृगवन में घूमकर बाहर आने के बाद कुछ कदम की दूरी पर बाई (left) तरफ एक छोटी सी पहाड़ी पर कच्चा रास्ता दिखता है, इसे राज टीला कहा जाता है। पुराने समय में मेवाड़ के शासकों का राजतिलक इसी टीले पर किया जाता था।
पुनः मुख्य मार्ग पर आने के बाद आगे जाते रहिए। बाई (left) तरफ एक कुंड दिखाई देगा, जिसका नाम भीमलत कुंड है। मुख्य मार्ग पर आगे जाने पर बाई (left) तरफ अद्भुतनाथ महादेव मंदिर है।
यहां से मुख्य मार्ग पर आगे जाने पर दाई (right) तरफ एक द्वार दिखेगा। ये सूरजपोल द्वार है। अकबर के आक्रमण के समय इस रास्ते से भी आक्रमण हुआ था। रावत साईंदास चुंडावत ने अपने इकलौते पुत्र सहित इसी द्वार पर वीरगति पाई थी।
यहां से ठीक आगे बाई (left) तरफ नीलकंठ महादेव मंदिर है। मुख्य मार्ग पर आगे बढ़ने पर दाई तरफ एक जैन मंदिर है व ठीक पास में है 1300 ई. के आसपास जैन श्रष्टि जीजा द्वारा बनवाया गया जैनियों के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ को समर्पित कीर्ति स्तम्भ है।
कीर्ति स्तम्भ से आधा किलोमीटर आगे जाने पर एक रास्ता बाएं मुड़ता है, जो सीधे एक बस्ती में जाता है, जहां सिसोदिया राजवंश की कुलदेवी बायण माता का मंदिर है।
(यदि आप इस रास्ते पर ना मुड़कर आगे जाते हैं, तो करीब डेढ़ दो किलोमीटर बाद फिर से एक रास्ता बाएं left मुड़ेगा, जो इसी मंदिर के रास्ते पर आकर मिलेगा।)
यहां 5-7 मंदिर एक साथ हैं, इसलिए आप किसी से भी बायण माता मंदिर के बारे में पूछ सकते हैं। इस मंदिर के परिसर में एक छतरी बनी हुई है, जो कि राघवदेव सिसोदिया की है।
राघवदेव मेवाड़ के महाराणा लाखा के दूसरे पुत्र थे। राघवदेव की हत्या मारवाड़ नरेश राव रणमल राठौड़ ने की थी। बायण माता मंदिर से 100-150 मीटर दूर ही कुकड़ेश्वर मंदिर है व पास ही कुकड़ेश्वर कुंड है।
ये मंदिर व कुंड 1200 वर्ष पुराने हैं। अकबर के समय जब चित्तौड़गढ़ में शाका हुआ था, तब रावत पत्ता चुंडावत ने इसी कुंड में हथियार, बचा खुचा ख़ज़ाना आदि डाल दिया था।
इस मंदिर से करीब 300 मीटर की दूरी पर ही राणा रतनसिंह महल है व तालाब भी है। ये महल महाराणा सांगा के पुत्र महाराणा रतनसिंह के थे। महाराणा उदयसिंह भी इसी महल में रहते थे।
राणा रतनसिंह महल से आधे किलोमीटर दूर ही रामपोल स्थित है, जहां से किले से बाहर निकला जा सकता है। चित्तौड़गढ़ दुर्ग में अनेक मंदिर हैं व छोटे बड़े कई महल हैं, जिनका सम्पूर्ण भ्रमण करने के लिए 2-3 दिन लग जाएंगे।
चित्तौड़गढ़ दुर्ग के पहले द्वार से लेकर पुनः उसी स्थान तक आने में आपको लगभग 10 किलोमीटर का सफर तय करना पड़ेगा। यह दुर्ग विश्व के सबसे बड़े दुर्गों की श्रेणी में स्थान रखता है।
इस पोस्ट में आपको सभी महत्वपूर्ण मंदिर, महल व अन्य स्थानों की जानकारी दी गई है। आशा है ये जानकारी आपके लिए उपयोगी होगी।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
बहुत उम्दा प्रस्तुति, ये जानकारी बहुत उपयोगी शिद्ध होगी जब इस दुर्ग के दर्शन करने जाएंगे
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