राठौड़ राजपूतों का ठिकाना – केलवा (मेवाड़)

केलवा वर्तमान में मेवाड़ के राजसमन्द जिले में स्थित है। यह मेवाड़ के द्वितीय श्रेणी के 32 ठिकानों में से एक है। केलवा के सरदारों की उपाधि ठाकुर है। केलवा वाले मारवाड़ के राव सलखा राठौड़ के द्वितीय पुत्र जैतमाल के वंशज बीदा राठौड़ के वंशज हैं।

1504 ई. में मेवाड़ के महाराणा रायमल के जीते-जी मेवाड़ में उत्तराधिकार संघर्ष शुरु हुआ। यह संघर्ष महाराणा रायमल के शीर्ष 3 पुत्रों (सबसे बड़े पुत्र कुँवर पृथ्वीराज, दूसरे पुत्र कुँवर जयमल व तीसरे पुत्र कुँवर संग्रामसिंह/सांगा) के बीच हुआ।

कुँवर पृथ्वीराज ने तलवार से कुँवर संग्रामसिंह की आंख फोड़ दी। जैसे-तैसे रावत सारंगदेव ने संग्रामसिंह के प्राण बचाए। कुंवर संग्रामसिंह घोड़ा लेकर बच निकले। कुंवर जयमल ने संग्रामसिंह का पीछा किया।

सैवंत्री गांव में राठौड़ बीदा जैतमालोत रूपनारायण के दर्शन हेतु आए हुए थे। उन्होंने कुंवर संग्रामसिंह को खून से लथपथ देखा, तो उनको घोड़े से उतारकर घावों पर पट्टियां की।

कुंवर जयमल वहां पहुंचे, तो बीदा ने कुँवर संग्रामसिंह को जयमल के सुपुर्द करने से इनकार किया। बीदा ने संग्रामसिंह को तो गोडवाड़ की तरफ रवाना किया और खुद जयमल से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।

केलवा गढ़

बीदा राठौड़ के छोटे भाई सीहा व साथी रायपाल राठौड़ भी कुँवर संग्रामसिंह की रक्षार्थ इसी जगह वीरगति को प्राप्त हुए।

बीदा राठौड़ की छतरी रूपनारायण मंदिर के परिसर में बनी है, जिस पर खुदे हुए लेख में यह घटना विक्रम संवत 1561 ज्येष्ठ वदी 7 (1504 ई.) को घटित होना लिखा है। बीदा राठौड़ के साथ उनकी धर्मपत्नी सती हुईं।

1509 ई. में महाराणा संग्रामसिंह (राणा सांगा) मेवाड़ की गद्दी पर बैठे। उन्होंने बीदा राठौड़ के महान उपकार का ऋण चुकाने का एक छोटा सा प्रयास करते हुए उनके पुत्र को जागीर देने का इरादा किया।

इस समय बीदा के एक पुत्र नेतसिंह जीवित थे, लेकिन वो खोजने पर भी नहीं मिले। फिर महाराणा सांगा ने बीदा के छोटे भाई सीहा राठौड़ के बेटे को बदनोर की जागीर दे दी। बाद में सीहा के वंशज माण्डल के निकट स्थित बावड़ी गांव में रहने लगे।

महाराणा सांगा को अपने अंतिम दिनों में नेतसिंह का पता लगा, तो उन्होंने आशिया चारण करमसी को भेजकर उन्हें बुलाना चाहा। लेकिन इससे पहले ही महाराणा सांगा का देहांत हो गया।

1528 ई. में महाराणा सांगा के पुत्र महाराणा रतनसिंह मेवाड़ के शासक बने। महाराणा रतनसिंह ने नेतसिंह को बेमाली की जागीर प्रदान की। जब महाराणा उदयसिंह मेवाड़ के शासक बने, तब उन्होंने नेतसिंह राठौड़ को बणोल की जागीर दी।

केलवा गढ़

1568 ई. में मुगल बादशाह अकबर द्वारा चित्तौड़गढ़ की घेराबंदी के बाद हुए भीषण युद्ध में नेतसिंह राठौड़ वीरगति को प्राप्त हुए। नेतसिंह के पुत्र शंकरदास राठौड़ हुए।

1576 ई. के प्रसिद्ध हल्दीघाटी के युद्ध में शंकरदास राठौड़ अपने भाइयों केनदास व रामदास सहित वीरगति को प्राप्त हुए। हल्दीघाटी युद्ध में शंकरदास के पुत्र नरहरदास राठौड़ भी वीरगति को प्राप्त हुए।

ठाकुर शंकरदास के उत्तराधिकारी तेजमाल राठौड़ हुए, जिन्होंने महाराणा प्रताप व महाराणा अमरसिंह के समय मुगलों से हुई लड़ाइयों में वीरता दिखाई। तेजमाल के पुत्र वीरभाण हुए।

मुगल बादशाह शाहजहाँ ने मांडलगढ़ दुर्ग किशनगढ़ के राजा रुपसिंह राठौड़ को सौंप रखा था। राजा रूपसिंह ने राघवदास महाजन को मांडलगढ़ का किलेदार बना रखा था।

1657 ई. में महाराणा राजसिंह ने मांडलगढ़ पर आक्रमण करने के लिए एक सेना भेजी, इस सेना में वीरभाण राठौड़ भी थे। मांडलगढ़ की इस लड़ाई में महाराणा राजसिंह की सेना विजयी रही, लेकिन वीरभाण वीरगति को प्राप्त हुए।

वीरभाण के उत्तराधिकारी गोकुलदास हुए व गोकुलदास के उत्तराधिकारी सांवलदास राठौड़ हुए। 1679-1680 ई. में महाराणा राजसिंह व औरंगज़ेब की सेनाओं के बीच जगह-जगह भीषण युद्ध हो रहे थे।

औरंगज़ेब महाराणा राजसिंह द्वारा बनवाई गई राजसमन्द झील की पाल पर पहुंचा। महाराणा राजसिंह को लगा कि औरंगज़ेब पाल तुड़वा देगा, इसलिए उन्होंने अपने सामन्तों को आदेश दिया कि आप सभी अपनी-अपनी सैनिक टुकड़ियां ले जाओ और पाल टूटने से रोको।

केलवा गढ़ का प्रवेश द्वार

सभी सामन्त रवाना हुए, इस समय केलवा वालों की तरफ से ठाकुर सांवलदास राठौड़ ने अपने रिश्तेदार आनंदसिंह राठौड़ को सैनिक टुकड़ी सहित भेजा।

फिर महाराणा राजसिंह को औरंगज़ेब की सेना में शामिल गरीबदास सिसोदिया के ज़रिए पता चला कि औरंगज़ेब का इरादा पाल तुड़वाने का नहीं है। तब महाराणा ने एक पत्र में सभी सामन्तों के नाम लिखकर उन्हें वापिस बुलाया, लेकिन भूलवश आनंदसिंह का नाम नहीं लिखा।

सभी सामन्त लौट गए, पर आनंदसिंह राठौड़ ने अपने साथियों सहित औरंगज़ेब की विशाल सेना से लड़ते हुए वीरगति पाई। आनंदसिंह की छतरी राजसमन्द झील के किनारे अब तक विद्यमान है।

ठाकुर सांवलदास राठौड़ के उत्तराधिकारी ठाकुर किशनदास हुए। महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय के शासनकाल में भोमट के भोमिये बागी हो गए। महाराणा ने ठाकुर किशनदास राठौड़ को फौज समेत भेजा।

किशनदास राठौड़ के बहुत से कुटुंबी काम आए, लेकिन भोमिये मेवाड़ के अधीन हो गए। इससे प्रसन्न होकर महाराणा ने 1714 ई. में ठाकुर किशनदास राठौड़ को बेमाली व बणोल के बदले देसूरी की जागीर दी।

किशनदास के जो कुटुंब वाले वीरगति को प्राप्त हुए थे, उनके पुत्रों को 27 गांव जागीर में दिए गए। महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय की माता ने उदयपुर के सीसारमा गांव में वैद्यनाथ का मंदिर बनवाया था।

5 फरवरी, 1716 ई. को इस मंदिर की प्रतिष्ठा की गई, तब ठाकुर किशनदास राठौड़ भी वहां मौजूद थे। 1722 ई. में महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय ने ठाकुर किशनदास को देसूरी के बदले केलवा की जागीर दी।

ठाकुर किशनदास के उत्तराधिकारी ठाकुर मोहकमदास राठौड़ हुए। 1 मार्च, 1748 ई. को मेवाड़, कोटा, बूंदी, मराठों व माधवसिंह कछवाहा की सम्मिलित फ़ौज ने जयपुर के महाराजा ईश्वरीसिंह कछवाहा के विरुद्ध राजमहल (टोंक) का युद्ध लड़ा था।

इस समय मेवाड़ के महाराणा जगतसिंह द्वितीय थे। राजमहल की इस लड़ाई में मेवाड़ की तरफ से केलवा के ठाकुर मोहकमसिंह राठौड़ व उनके काका चतरसिंह ने बड़ी बहादुरी दिखाई।

इस वजह से महाराणा ने इनको आगरिया की जागीर देनी चाहिए, पर मोहकमसिंह ने कहा कि यह जागीर मुझे नहीं, मेरे काका चतरसिंह जी को दे दी जावे, तो महाराणा ने आगरिया की जागीर चतरसिंह राठौड़ को दे दी।

केलवा गढ़

ठाकुर मोहकमसिंह के बाद क्रमशः खुमाणसिंह, अनूपसिंह, माधवसिंह, बैरीसाल, धीरतसिंह, औनाड़सिंह केलवा के ठाकुर बने।

1877 ई. में गवर्नर जनरल लॉर्ड लिटन का दिल्ली दरबार हुआ था, जिसमें भाग लेने के लिए महाराणा सज्जनसिंह दिल्ली गए थे। उस समय महाराणा सज्जनसिंह के साथ केलवा के ठाकुर औनाड़सिंह राठौड़ भी थे।

ठाकुर औनाड़सिंह के बाद क्रमशः मदनसिंह, रूपसिंह व दौलतसिंह केलवा के ठाकुर बने। पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

2 Comments

  1. Mahendra Singh balla
    October 2, 2022 / 1:17 pm

    Balla rajputo ka etihas kya h

  2. Narayansingh Amrawat
    October 3, 2022 / 11:50 am

    Maldev की रानी भटियानी केलवा में सती कैसे हुई कृपया जानकारी derave।

error: Content is protected !!