राव जोधा राठौड़ द्वारा मेहरानगढ़ दुर्ग का निर्माण शुरू :- 12 मई, 1459 ई. को राव जोधा ने चिडियानाथ की टूंक पहाड़ी पर मेहरानगढ़ दुर्ग बनवाना शुरू किया। मेहरानगढ़ दुर्ग के द्वार के शिलान्यास के लिए जो शिला (पत्थर) लगाई जानी थी, वह समय पर नहीं लाई जा सकी।
मुहूर्त पर काम शुरू करने के लिए निकट ही एक ऊंट चराने वाले व्यक्ति के बाड़े से एक शिला लाकर उससे द्वार का शिलान्यास किया गया। इस शिला पर बाड़े के द्वार को बंद करने के लिए लगाए जाने वाले डंडों के छेद हैं।
करणी माता द्वारा मेहरानगढ़ दुर्ग का शिलान्यास :- चारण परिवार में जन्मी करणी माता बीकानेर के राठौड़ों की पूज्य देवी हैं। ये राव जोधा व राव बीका के समकालीन थीं। राव जोधा के निवेदन करने पर करणी माता ने अपने हाथों से मेहरानगढ़ दुर्ग का शिलान्यास किया।
ब्राह्मणों को आमंत्रित करना :- मेहरानगढ़ दुर्ग की स्थापना के अवसर पर राव जोधा ने कई ब्राह्मणों को आमंत्रित किया। उस समय सिंध से 65 पुष्करणा ब्राह्मण परिवार मेहरानगढ़ आए थे और जोधपुर में ही बस गए।
दुर्ग का नामकरण :- कुंडली के आधार पर दुर्ग का नाम चिंतामणि रखा गया। कहीं-कहीं लिखा है कि सिंध से आए ब्राह्मण गणपत दत्त के पुत्र मोरध्वज के नाम से इसका नाम मोरध्वज गढ़ रखा गया।
मंडोर का दुर्ग नागों ने बसाया था, नाग का शत्रु मोर को माना जाता है, इसलिए राव जोधा द्वारा नवनिर्मित दुर्ग का नाम मयूर ध्वज गढ़ रखा गया, ऐसी भी मान्यता है।
इस दुर्ग को मिहिर गढ़ भी कहते हैं, मिहिर का अर्थ होता है सूर्य अर्थात सूर्यवंशियों के रहने के कारण यह दुर्ग मिहिरगढ़ कहलाया। कालांतर में इसका नाम मिहिरानगढ़ हो गया, जिसके बाद इसे मेहरानगढ़ कहा जाने लगा।
मेहरानगढ़ दुर्ग केवल राजस्थान या भारत ही नहीं, बल्कि समस्त विश्व के सबसे बेहतरीन दुर्गों में से एक है। यह अपने निकट की भूमि से 400 फीट ऊंचा है और बहुत दूर से दिखाई देता है।
इस दुर्ग का कोट 20 से 120 फीट ऊंचा और 12 से 20 फीट चौड़ा है। दुर्ग की लंबाई 500 गज व चौड़ाई 250 गज है। दुर्ग का काफी काम हो रहा था और साथ ही जलस्रोतों की तरफ भी ध्यान दिया गया।
रानी सागर तालाब का निर्माण :- राव जोधा की रानी जसमादे हाड़ी ने 1459 ई. में दुर्ग की तलहटी में रानी सागर नाम का एक तालाब बनवाया व कुछ वर्ष बाद उन्होंने इसी दुर्ग में एक कुआं भी खुदवाया।
चांद बावड़ी का निर्माण :- राव जोधा की रानी चांद कंवर सोनगरी ने चांद बावड़ी बनवाई। चांद बावड़ी को चौहान बावड़ी भी कहा जाता था।
मेहरानगढ़ दुर्ग में चामुंडा माता के मंदिर का निर्माण :- 1394 ई. में राव चूंडा राठौड़ ने मंडोर पर विजय प्राप्त की थी, तब उस किले में प्रतिहारों की कुलदेवी चामुंडा माता की मूर्ति स्थापित थी।
1460 ई. में राव जोधा ने मंडोर से यह मूर्ति मेहरानगढ़ लाकर दुर्ग में स्थापित कर दी और एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया। यह मंदिर दुर्ग के कोट के अंतिम छोर पर स्थित है।
राव जोधा ने लोहा पोल से चामुंडाजी के बुर्ज़ तक कोट व बुर्जों का निर्माण करवाया। राव जोधा ने चामुंडा बुर्ज़ पर मंडप चुनवाया।
राव जोधा जी का फलसा :- राव जोधा के शासनकाल में यह किला जहां तक फैला हुआ था, वह स्थान जोधा जी का फलसा कहलाता था। राव जोधा जी का फलसा वह स्थान था,
जहां अधिकतर सामन्तों व राजाओं की सवारियां रुक जाती थीं व यहां से किले तक का सफर उन्हें पैदल ही तय करना पड़ता था। केवल कुछ राजाओं को ही दुर्ग तक सवारी में बैठकर आने का अधिकार प्राप्त था।
नवनिर्मित दुर्ग में राव जोधा का पहली बार तिलक :- मेहरानगढ़ दुर्ग का निर्माण होने के बाद इस दुर्ग का मध्य बिंदु ज्ञात करके वहां एक चौकी पर राव जोधा को बिठाकर उनका तिलक किया गया।
राव जोधा द्वारा मेहरानगढ़ दुर्ग निर्माण के इस महान कार्य ने राठौड़ों के भविष्य की मजबूत नींव रख दी। वर्तमान में भी यह दुर्ग काफी अच्छी स्थिति में है।
सींधल राठौड़ों पर कार्रवाई :- सींधल राठौड़ों ने राव जोधा की सहायता नहीं की थी, जिससे राव जोधा नाराज़ थे। राव जोधा सोजत में थे। वहां से उन्होंने सींधल राठौड़ों के विरुद्ध एक सेना भेजी। सींधलों से पाली परगने के 30 गांव छीन लिए गए।
ऋषभदेव को नवीन ताम्रपत्र प्रदान करना :- 1459 ई. में राव जोधा ने श्रीपति के पुत्र ऋषभदेव को पुरोहिताई का नवीन ताम्रपत्र जारी करके दिया। ऋषभदेव जाति से सारस्वत ब्राह्मण थे।
ऋषभदेव के पास एक ताम्रपत्र था, जो कि उनके पूर्वज लूम्ब ऋषि को राव जोधा के पूर्वज राव धूहड़ ने प्रदान किया था। लूम्ब ऋषि को प्रसिद्ध मां नागणेच्या जी की मूर्ति मारवाड़ में लाने का श्रेय दिया जाता है।
कोडमदेसर तालाब की प्रतिष्ठा :- बालेचों ने जांगलू के राजा नापा सांखला पर आक्रमण कर दिया, जिसकी सूचना मिलने पर राव जोधा सांखलों की मदद खातिर जांगलू की तरफ रवाना हुए।
मार्ग में राव जोधा ने अपनी माता द्वारा बनवाए हुए कोडमदेसर तालाब की प्रतिष्ठा करवाई और वहां एक कीर्ति स्तम्भ स्थापित किया। इस स्तम्भ पर उन्होंने संस्कृत में एक लेख भी उत्कीर्ण करवाया।
कोडमदेसर से लौटकर राव जोधा ने अपने कुलपुरोहित को एक नया दानपत्र दिया। इसी तालाब के किनारे राव जोधा की माता सती हुई थीं। अलग-अलग समय पर राव रणमल जी की कुल 9 रानियों के सती होने का उल्लेख मिलता है।
मेरों की बगावत :- इन्हीं दिनों सोजत के मेरों ने बगावत कर दी। वे बगावत करते हुए बगड़ी में आकर उत्पात मचाने लगे। बगड़ी पर इस समय राव जोधा के बड़े भाई अखैराज जी का राज था।
अखैराज जी मेरों को दंड देने के लिए अपने साथियों सहित घोड़ों पर सवार हुए कि तभी उनके 12 वर्षीय पुत्र पंचायण ने भी साथ आने की ज़िद की। अखैराज जी ने मना किया, फिर भी पंचायण ने अपना भाला लिया और घोड़े पर सवार होकर पीछे-पीछे चल दिए।
जैसे ही राठौड़ मेरों के ठिकाने पर पहुंचे, पंचायण फौरन घोड़े से उतरे और सीधे ही मेरों के सरदार से जूझ पड़े। पंचायण के वार से मेरों का सरदार मारा गया और बचे-खुचे मेर भाग निकले। अखैराज जी अपने पुत्र की वीरता देखकर भावविभोर हो गए।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)