राघवदेव राठौड़ द्वारा सोजत पर आक्रमण :- राव जोधा ने सोजत के ठाकुर राघवदेव राठौड़ को परास्त कर दिया था, जिसका बदला लेने के लिए राघवदेव ने पुनः सोजत पर आक्रमण किया।
सोजत में तैनात राव जोधा के चचेरे भाई वरजांग ने राघवदेव को परास्त कर दिया, लेकिन इस लड़ाई में वरजांग की गर्दन पर तलवार चली, जिससे उनकी गर्दन बहुत अधिक कट गई, इससे वे बुरी तरह जख्मी हो गए।
वरजांग ने रोहट जाकर अपना उपचार करवाया। ख्यातों में वर्णन है कि वरजांग की गर्दन की हड्डी की जगह कैर की लकड़ी लगाई गई, जिसके थोड़े ही दिन बाद वे दुरुस्त हो गए।
बैरसल को राघवदेव का पीछा करने के लिए भेजा गया। राघवदेव मेवाड़ की तरफ चले गए थे, इसलिए बैरसल ने उनका पीछा करते हुए मेवाड़ में सैनिक चौकियां स्थापित कर दीं और घाणेराव को उजाड़कर वहां के निवासियों को गूंदोज में बसाया।
मारवाड़ पर मेवाड़ी सेना के आक्रमण से संबंधित ऐतिहासिक भ्रम :- इतिहासकार मोहनलाल गुप्ता ने लिखा है कि राव जोधा द्वारा मंडोर पर अधिकार करने के बाद महाराणा कुम्भा ने अपने सेनापतियों को मारवाड़ भेजा।
क्योंकि महाराणा स्वयं मालवा और गुजरात के सुल्तानों से युद्ध में उलझे हुए थे। ये सेनापति परास्त होकर लौट गए। मोहनलाल गुप्ता का यह कथन अतिश्योक्ति से भरा है, क्योंकि उन्होंने न तो सेनापतियों के नाम बताए हैं,
न वीरगति पाने वालों के नाम बताए हैं और न ही ऐसी किसी चढ़ाई का वर्णन मेवाड़ के इतिहास में मिलता है। महाराणा कुम्भा ने तो अपनी दादी को वचन दे रखा था कि वे मारवाड़ पर हमला करके जोधा को तंग नहीं करेंगे।
राव जोधा द्वारा चित्तौड़ पर आक्रमण की वास्तविकता :- मारवाड़ की ख्यात में कुुुछ काल्पनिक वर्णन लिखा है। ख्यात के अनुसार “राणा कुम्भा ने राव जोधा पर चढ़ाई की। इस समय राव जोधा 20 हज़ार राठौड़ों को 5 हज़ार बैलगाड़ियों में सवार करके पाली की तरफ जा रहे थे।
राव जोधा के नक्कारे सुनकर ही राणा कुम्भा भाग निकला। राव जोधा ने चित्तौड़ तक उसका पीछा किया और गढ़ के दरवाज़े जला दिए। फिर राव जोधा मेवाड़ को लूटते हुए पिछोला झील तक पहुंच गए। वे मेवाड़ के सेठ पदमचंद को पकड़कर मारवाड़ ले गए।”
वैसे तो यह कथन इतना अधिक काल्पनिक है कि इसका स्पष्टीकरण देना ही व्यर्थ है, फिर भी यहां कुछ वर्णन किया जा रहा है। महाराणा कुम्भा ने मालवा और गुजरात के सुल्तानों को भयभीत किया था।
इन दोनों सुल्तानों की 2 लाख की सेना को एक साथ परास्त किया था। इसके अलावा उन्होंने राजपूताने के कई राज्यों पर विजय प्राप्त करके उन्हें कर (टैक्स) देने के लिए बाध्य किया था। महाराणा कुम्भा के पास न धन की कोई कमी थी, न साधनों की और न सेना की।
वे महाराणा भला केवल नक्कारे सुनकर कैसे भाग सकते थे। महाराणा कुम्भा उस समय सबसे प्रबल हिन्दू शासक थे, जिनकी प्रशंसा कई फ़ारसी तवारीखों में भी की गई है।
डॉक्टर ओझा के लिखे अनुसार तो राव जोधा ने मंडोर का राज भी महाराणा कुम्भा की सहमति से ही प्राप्त किया था। वास्तव में महाराणा कुम्भा ने तो इस समय मारवाड़ पर चढ़ाई की ही नहीं और ना ही राव जोधा के पास इस समय 20 हज़ार की फ़ौज थी।
मुहणौत नैणसी ने तो नाटकीय अंदाज़ में मेवाड़ और मारवाड़ की तरफ से एक-एक सामन्त का द्वंद्व युद्ध करवाया जाना भी लिख दिया, जो सत्य से परे है।
द्वंद्व युद्ध वाली बात का झूठ इसी बात से पकड़ में आ जाता है कि नैणसी ने महाराणा कुम्भा की तरफ से झाला सरदार के लड़ने व पराजित होकर मारे जाने की बात लिखी है, जबकि महाराणा कुम्भा के समय तो झालाओं का आगमन मेवाड़ में हुआ ही नहीं था।
झाला राजपूत 1506 ई. में महाराणा रायमल के समय मेवाड़ आए थे। महाराणा कुम्भा इस समय एक विशेष अभियान चला रहे थे।
दरअसल मालवा और गुजरात के सुल्तानों द्वारा आए दिन राजपूताने पर आक्रमण होते थे और यहां के छोटे राज्यों पर अधिकार करके वे वहां मुस्लिम सेनानायक नियुक्त कर देते थे। महाराणा कुम्भा चाहते थे कि राजपूताने व आसपास का क्षेत्र केवल हिंदुओं के अधीन हो।
महाराणा कुम्भा अपने विजय अभियान पर निकले और राजपूताने की कई रियासतों से मुसलमानों को खदेड़कर पुनः वहां पहले से मौजूद हिन्दू शासकों को अपना करदाता बनाकर नियुक्त कर दिया।
ऐसी स्थिति में राव जोधा से लड़ने में महाराणा कुम्भा की कोई रुचि नहीं थी, परन्तु राव जोधा द्वारा मेवाड़ की सीमा पर अतिक्रमण शुरू कर दिया गया। इसके बाद महाराणा कुम्भा अपनी दादी हंसाबाई जी के पास गए और उनसे कहा कि
“जोधा द्वारा मेवाड़ की सीमा पर अतिक्रमण किया जाना उचित नहीं है। मेरे द्वारा कोई कार्रवाई की जाए, उससे पहले आप बताएं क्या किया जाए ?”
महाराणा कुम्भा व राव जोधा के बीच हुई आंवल-बांवल की संधि :- हंसाबाई जी परिस्थिति की गंभीरता को समझ गईं और सन्धि का प्रस्ताव दिया, जिसे महाराणा कुम्भा ने सहर्ष स्वीकार किया।
महाराणा कुम्भा ने नापा सांखला व अपने ज्येष्ठ पुत्र उदयकर्ण सिसोदिया (ऊदा) को राव जोधा के शिविर में भेजा। राव जोधा ने कुँवर उदयकर्ण का स्वागत किया और उन्हें शिविर के भीतर ले गए।
सन्धि की वार्ता यहीं हुई और सोजत के निकट आंवल-बांवल की सीमा निर्धारित की गई। मेवाड़ में आंवलों की अधिकता व मारवाड़ में बबूल की अधिकता के कारण इस सन्धि का नाम आंवल-बांवल पड़ा।
राव जोधा ने अपनी पुत्री श्रृंगार देवी को महाराणा कुम्भा के दूसरे पुत्र रायमल को ब्याह दी, ताकि इस विवाह के बाद मेवाड़-मारवाड़ के बीच कोई विवाद न हो सके। इस विवाह सम्बन्ध ने निश्चित रूप से कुछ वर्षों के लिए मेवाड़ और मारवाड़ के संबंधों में सुधार किया।
श्रृंगारदेवी ने चित्तौड़ में घोसुंडी की बावड़ी बनवाई, जिसकी प्रशस्ति में इस विवाह का वर्णन खुदवाया गया। चित्तौड़गढ़ दुर्ग में स्थित श्रृंगार चँवरी मन्दिर का संबंध भी श्रृंगार देवी से बताया जाता है।
बड़े अचरज की बात है कि श्रृंगार देवी का ज़िक्र न तो मेवाड़ की ख्यातों में हुआ है और ना ही मारवाड़ की ख्यातों में। यदि श्रृंगार देवी का शिलालेख ना मिला होता, तो इस विवाह से संबंधित इतनी महत्वपूर्ण जानकारी सदा के लिए ओझल रहती।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)