मेहता अगरचन्द का घराना :- मेहता अगरचन्द के पूर्वज देवड़ा चौहान राजपूत थे। इनके पूर्वज सागर के पुत्र बोहित्थ हुए। बोहित्थ के वंशज बोहिथरे कहलाए। बोहित्थ चित्तौड़ में हुई किसी लड़ाई में अपने 1100 साथियों समेत वीरगति को प्राप्त हुए।
इसी वंश में श्रीकर्ण हुए, जो 700 साथियों समेत मुसलमानों के विरुद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। लड़ाई से पहले श्रीकर्ण ने अपने पुत्र समधर व अन्य 3 पुत्रों को उनके ननिहाल खेड़ी नामक गाँव में भेज दिया था, जहां वे अपनी माता के साथ रहने लगे।
इस गांव में खरतरगच्छ के एक जैन मुनि ने उनको जैन धर्म की दीक्षा दी, तत्पश्चात वे जैन धर्मावलंबी हो गए। समधर के पुत्र तेजपाल हुए, जिन्होंने गुजरात के सुल्तान को घोड़े भेंट किए और बदले में अन्हिलपाटन में कुछ भूमि प्राप्त की।
तेजपाल ने कई तीर्थों की यात्रा की। उनके पुत्र वील्हा मेवाड़ गए, जहां महाराणा ने उनको अपनी सेवा में रख लिया। वील्हा के कार्यों को देखते हुए मेवाड़ नरेश ने उन्हें राज्य का प्रधान घोषित कर दिया।
कुछ वर्ष मेवाड़ राज्य की सेवा में रहने के बाद वील्हा पुनः पाटन चले गए और वहां एक जैन प्रतिमा की स्थापना की। वील्हा के वंशजों ने कई वर्षों तक जोधपुर व बीकानेर राज्यों की सेवा की।
वील्हा के वंशजों ने जो कार्य मारवाड़ व बीकानेर रियासतों में किए, वो इन रियासतों के इतिहास में अलग से लिखा जाएगा। इसी वंश में संग्राम नामक एक व्यक्ति हुए, जिन्होंने मेवाड़ की यात्रा की।
उस समय मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह थे। महाराणा ने संग्राम का बड़ा सम्मान किया। इसी वंश में कर्मचंद्र नामक योग्य व्यक्ति हुए, जिनका विवाह मेवाड़ के प्रसिद्ध भामाशाह जी कावड़िया की पुत्री से हुआ।
भामाशाह की इन पुत्री ने भाण को जन्म दिया। भाण मेवाड़ में ही रहते थे। हालांकि उदयपुर के मेहताओं के इतिहास की पुस्तक के अनुसार भाण के पिता भोजराज थे।
भाण के पुत्र जीवराज हुए। जीवराज के पुत्र लालचंद हुए। लालचंद के प्रपौत्र पृथ्वीराज हुए। पृथ्वीराज के 2 पुत्र हुए :- अगरचन्द व हंसराज। अगरचन्द मेवाड़ नरेश महाराणा अरिसिंह के समकालीन थे।
महाराणा अरिसिंह का शासनकाल 1761 ई. से 1773 ई. तक रहा। महाराणा अरिसिंह ने मेहता अगरचन्द को मांडलगढ़ दुर्ग का किलेदार व मांडलगढ़ परगने का हाकिम नियुक्त किया।
मेहता अगरचन्द महाराणा अरिसिंह के सलाहकार थे। महाराणा ने इनको मंत्री का पद दे दिया। 1769 ई. में महाराणा अरिसिंह व महादजी सिंधिया के बीच उज्जैन की भीषण लड़ाई हुई, तब अगरचन्द ज़ख्मी होकर मराठों द्वारा कैद कर लिए गए।
अगरचन्द को मेवाड़ के रूपाहेली ठिकाने के सामन्त ठाकुर शिवसिंह ने कैद से छुड़वाया। 1769 ई. में ही महाराणा अरिसिंह व महादजी सिंधिया के बीच उदयपुर में स्थित एकलिंगगढ़ किले व उसके नजदीक 6 महीने तक लड़ाई हुई।
इसमें अगरचन्द ने महाराणा अरिसिंह का सहयोग किया व समय-समय पर उन्हें उचित सलाह देते रहे। 1770 ई. में महाराणा अरिसिंह व नागा साधुओं के बीच टोपलमगरी का युद्ध हुआ।
इस युद्ध में महता अगरचन्द ने 1600 सैनिकों की एक सैनिक टुकड़ी का नेतृत्व किया। इस सैनिक टुकड़ी में अधिकतर मांडलगढ़ व जहाजपुर के मीणा जनजाति के लोग थे।
1771 ई. में महाराणा अरिसिंह व जोगियों के बीच गंगार के युद्ध में भी महता अगरचन्द महाराणा के साथ रहकर लड़े। जोगियों के साथ हुई इन लड़ाइयों में महाराणा अरिसिंह विजयी रहे थे।
1773 ई. में मेवाड़ की गद्दी पर महाराणा हम्मीरसिंह द्वितीय बैठे। इनके समय मेवाड़ की स्थिति बड़ी विकट थी। इस मुश्किल समय में ठाकुर अमरचंद बड़वा व मेहता अगरचन्द ने मेवाड़ की बड़ी सेवा की।
1778 ई. में महाराणा भीमसिंह मेवाड़ की गद्दी पर बैठे। इनके समय मेवाड़ के शक्तावत व चुंडावत राजपूतों के बीच आपसी लड़ाइयां हुईं। फिर इन लड़ाइयों के बाद महाराणा भीमसिंह ने मेहता अगरचन्द को मेवाड़ का प्रधान बना दिया।
मेवाड़ में लकवा दादा और गणेशपंत नामक 2 मराठा सरदारों के बीच आपसी लड़ाइयां हुईं, जिनमें महाराणा भीमसिंह ने गणेशपन्त को सज़ा देने के लिए लकवा दादा का सहयोग किया। इस हेतु महाराणा ने एक फ़ौज भेजी, जिसमें अगरचन्द ने भी भाग लिया।
मेहता अगरचन्द का देहांत :- 1800 ई. में मांडलगढ़ दुर्ग में मेहता अगरचन्द का देहांत हो गया। अगरचन्द ने हृदय से मेवाड़ राज्य की सेवा की। उन्होंने अपने अंतिम समय में अपने वंशजों हेतु उपदेश लिखवाए।
इन उपदेशों में उन्होंने विस्तार से लिखा कि राज्य की सेवा व हित के लिए क्या-क्या कार्य करने चाहिए और क्या-क्या कार्य नहीं करने चाहिए। किस प्रकार मुश्किल समय में महाराणा का साथ देना चाहिए।
इन बातों से पता चलता है कि मेवाड़ के प्रति उनके मन में इतनी श्रद्धा थी कि वे चाहते थे कि मेरे मरने के बाद भी मेरे वंशज मेवाड़ की उचित रूप से सेवा करते रहें। मांडलगढ़ दुर्ग से मेहता अगरचन्द का गहरा संबंध रहा।
मांडलगढ़ दुर्ग में ‘सागर’ व ‘सागरी’ नाम के 2 जलाशय थे, लेकिन अकाल के समय इनका जल सुख जाया करता था। इसलिए मेहता अगरचन्द ने सागर में 2 कुएं खुदवा दिए, जिससे फिर कभी मांडलगढ़ में जल की कमी नहीं हुई।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
Agar ye pidhi dar pidhi ki kahani kuch vistar me mile to aor bhi aacha hoga