कोठारी केसरीसिंह का घराना :- 1845 ई. में मेवाड़ के महाराणा स्वरूपसिंह के समय उदयपुर में ‘रावली दुकान’ कायम करके उसका हाकिम कोठारी केसरीसिंह को बनाया गया। 1851 ई. में उनको चुंगी के महकमे का हाकिम बना दिया गया।
एकलिंगनाथजी के मंदिर का प्रबंध भी केसरीसिंह को ही सौंपा गया। जैन धर्मावलम्बी होने के बावजूद भी केसरीसिंह ने एकलिंगजी को अपना इष्टदेव माना। 1859 ई. में महाराणा स्वरूपसिंह ने केसरीसिंह को नेतवाला गांव की जागीर दी।
इसी वर्ष केसरीसिंह को मेवाड़ के प्रधान पद पर नियुक्त किया गया व बोराव गांव और पैर में पहनने के सोने के तोड़े भेंट किए गए। कोठारी केसरीसिंह के बड़े भाई छगनलाल थे। महाराणा स्वरूपसिंह ने छगनलाल को 1843 ई. में खजाने का कार्यभार सौंपा।
फिर छगनलाल की योग्यता देखते हुए कोठार और फ़ौज का काम भी उन्हें ही सौंप दिया गया। 5 वर्षों तक मेवाड़ राज्य की अच्छी सेवा करने के कारण महाराणा स्वरूपसिंह ने 1848 ई. में छगनलाल को मुरजाई नामक गांव भेंट किया।
1861 ई. में महाराणा स्वरूपसिंह के देहांत के बाद महाराणा शम्भूसिंह गद्दी पर बैठे, जिनकी बाल्यावस्था के कारण राज्य का कार्यभार रीजेंसी काउंसिल के अंतर्गत रहा। इस काउंसिल के एक सदस्य कोठारी केसरीसिंह भी थे।
इस समय सभी अपनी स्वार्थसिद्धि में लगे हुए थे। काउंसिल के अन्य सदस्य अपनी इच्छानुसार काम चलाना चाह रहे थे, लेकिन कोठारी केसरीसिंह सच्चे व स्पष्टवक्ता थे। केसरीसिंह के होते हुए कोई सदस्य अपना काम नहीं निकाल पा रहा था।
जब कोई सदस्य किसी को जागीर दिलवाने की बात करता, तो केसरीसिंह कहते कि जागीर देने का अधिकार केवल महाराणा को है, काउंसिल को नहीं।
अन्य ईर्ष्यालु सदस्यों ने केसरीसिंह को 2 लाख रुपए के झूठे गबन के आरोप में फंसा दिया और यह बात पोलिटिकल एजेंट को बताई। पोलिटिकल एजेंट ने केसरीसिंह को उनके पद से हटाकर उदयपुर से बाहर निकाल दिया।
फिर वे एकलिंगजी चले गए। महाराणा शम्भूसिंह को केसरीसिंह पर पूर्ण विश्वास था, इसलिए उन्होंने केसरीसिंह को पुनः उदयपुर बुलाया और प्रधान का पद सौंप दिया।
1868 ई. में मेवाड़ में भीषण अकाल पड़ा, तब कोठारी केसरीसिंह ने व्यापारियों से कहलवाकर बाहर से अन्न मंगवाया और कम दामों में प्रजा को उपलब्ध कराया।
1869 ई. में बागोर के महाराज समर्थसिंह के देहांत के बाद शक्तिसिंह व सोहनसिंह में उत्तराधिकार संघर्ष हुआ। कोठारी केसरीसिंह ने शक्तिसिंह का पक्ष लिया, परंतु महाराणा शम्भूसिंह ने सोहनसिंह को बागोर की गद्दी दिलवा दी।
कोठारी केसरीसिंह ने प्रधान पद से इस्तीफा दे दिया। अन्य सरदारों के बहकावे में आकर महाराणा शम्भूसिंह ने राज्य के बड़े कर्मचारियों से लाखों रुपए वसूलने चाहे। इस तरह केसरीसिंह और उनके बड़े भाई छगनलाल से भी 30 हजार रुपए वसूलने का आदेश हुआ।
कविराजा श्यामलदास ने महाराणा को सलाह दी कि आपको यह अनुचित कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे महाराणा ने केसरीसिंह को छूट दे दी।
महाराणा शम्भूसिंह ने किसानों से कर के रूप में अन्न का हिस्सा लेने की बजाय रुपया लेना चाहा, लेकिन इस काम में अहलकारों ने टांग अड़ाई, क्योंकि इसमें उनका स्वार्थ था। महाराणा ने यह काम कोठारी केसरीसिंह को सौंपा।
केसरीसिंह ने अपनी बुद्धिमत्ता से सारी कठिनाई दूर करके इस काम का उचित प्रबंध कर दिया। जब कोठारी केसरीसिंह बीमार हुए, तब महाराणा शम्भूसिंह उनके घर गए थे। कुछ दिनों बाद 27 फरवरी, 1872 ई. को केसरीसिंह का देहांत हो गया।
केसरीसिंह के देहांत के बाद महकमा माल का काम उनके बड़े भाई छगनलाल को सौंपा गया। 1873 ई. में महाराणा शम्भूसिंह ने छगनलाल को पैर में पहनने के सोने के तोड़े भेंट किए।
कोठारी केसरीसिंह निसंतान थे, इसलिए उन्होंने बलवंतसिंह को गोद लिया था। महाराणा शम्भूसिंह के देहांत के बाद महाराणा सज्जनसिंह मेवाड़ के शासक बने।
महाराणा स्वरूपसिंह ने कोठारी केसरीसिंह के बड़े भाई छगनलाल को जो मुरजाई गांव सौंपा था, वह गांव 1878 ई. में महाराणा सज्जनसिंह ने छगनलाल से वापिस लिया और उसकी जगह उनको सेतूरिया नामक गाँव भेंट किया।
महाराणा सज्जनसिंह ने 1881 ई. में बलवंतसिंह को देवस्थान महकमा का हाकिम नियुक्त किया। इस वर्ष छगनलाल का देहांत हो गया। छगनलाल के 2 दत्तक पुत्रों की जानकारी मिलती है, इनके नाम मोतीलाल व दलपतसिंह थे।
मोतीलाल को तो मेवाड़ के खजाने का सौंपा गया था और दलपतसिंह सिरोही चले गए, जहां उनको नायब दीवान बनाया गया। महाराणा फतहसिंह ने 1888 ई. में बलवंतसिंह को महद्राज सभा का सदस्य बनाया और सोने के लंगर भेंट किए।
फिर ‘रावली दुकान’ का काम भी बलवन्तसिंह को ही सौंप दिया गया। रावली दुकान उस समय राज्य का मुख्य बैंक होता था। फिर बलवन्तसिंह की योग्यता देखते हुए महकमा खास का काम भी उन्हें ही सौंप दिया गया।
इसके अलावा टकसाल का काम भी बलवन्तसिंह को सौंप दिया गया। खास बात ये रही कि कई वर्षों तक मेवाड़ राज्य की सेवा करने के बावजूद बलवन्तसिंह ने कभी तनख्वाह नहीं ली।
बलवन्तसिंह के पुत्र गिरधारी सिंह हुए। गिरधारी सिंह को समय-समय पर सहाड़ां, भीलवाड़ा, चित्तौड़ और गिर्वा का हाकिम नियुक्त किया गया। फिर महकमा देवस्थान का हाकिम भी इन्हें ही बना दिया गया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)