मेवाड़ के इतिहास में सहीवाले अर्जुनसिंह के घराने का योगदान :- सहीवाले अर्जुनसिंह कायस्थ जाति के थे। उनके पूर्वज भटनेर में कार्य करते थे, इसलिए भटनागर कायस्थ कहलाए।
अर्जुनसिंह समझदार, मिलनसार व सरल प्रकृति के थे। अर्जुनसिंह के पूर्वज दिल्ली के डासन्या नामक गाँव में रहे, फिर वहां से मेवाड़ में खैराड़ नामक स्थान पर आकर बसे, फिर वहां से चित्तौड़ आए।
चित्तौड़ में महाराणा ने अर्जुनसिंह को पूर्वजों को महाराणा की तरफ से पट्टे, परवाने आदि लिखने और उन पर ‘सही’ कराने का काम सुपुर्द किया, इसलिए यह खानदान ‘सहीवाला’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
इस वंश में नाथा कायस्थ हुए, जिनके पुत्र शिवसिंह कायस्थ हुए। शिवसिंह के 2 पुत्र हुए :- अर्जुनसिंह व बख्तावरसिंह। अर्जुनसिंह ने बाल्यावस्था में हिंदी का गहन अध्ययन किया और फिर फारसी का अध्ययन किया।
अर्जुनसिंह उदयपुर में महाराणा स्वरूपसिंह की सेवा में रहने लगे। महाराणा स्वरूपसिंह का शासनकाल 1842 ई. से 1861 ई. तक रहा। अर्जुनसिंह की योग्यता से धीरे-धीरे उनके पद में वृद्धि होती रही।
वकील के तौर पर नियुक्ति :- 1855 ई. में मेवाड़ के पोलिटिकल एजेंट के पास महाराणा स्वरूपसिंह को एक वकील नियुक्त करने पर विचार करना पड़ा, तब महाराणा ने अर्जुनसिंह को वकील नियुक्त किया।
नीमच विद्रोह में उड़ने वाली अफवाह का पर्दाफाश करना :- 1857 ई. में क्रांति हुई, तब नीमच में विद्रोह हुआ। इस छावनी में तैनात हिंदुस्तानी सिपाहियों ने बगावत करके छावनी जला दी और खजाना लूट लिया।
छावनी के अंग्रेज सिपाही भागकर नीमच के किले में जा घुसे। नीमच के किले पर हमला हुआ, तब अंग्रेजों को वहां से भी भागना पड़ा। अंग्रेजों ने केसुन्दा गांव में शरण ली। इस समय मेवाड़ के पोलिटिकल एजेंट कप्तान शावर्स थे।
शावर्स ने महाराणा स्वरूपसिंह से बातचीत करके नीमच जाना तय किया, तब महाराणा ने बेदला के राव बख्तसिंह चौहान की अध्यक्षता में मेवाड़ की फौजी पलटन भी शावर्स के साथ रवाना कर दी।
इस पलटन के साथ अर्जुनसिंह कायस्थ भी नीमच गए थे। इस फ़ौज के नीमच पहुंचने पर क्रांतिकारियों को नीमच छोड़ना पड़ा। शावर्स ने नीमच की रक्षा के लिए कप्तान लॉयड और मेवाड़ के वकील अर्जुनसिंह कायस्थ को नियुक्त किया।
हिंदुस्तान में अफवाहों का फैलना कोई नई बात नहीं थी, पुराने समय से लेकर अब तक अफवाहों का सिलसिला जारी है। विशेष रूप से धार्मिक मसलों पर अफवाहें जल्दी हवा पकड़ती हैं।
नीमच में भी यह अफवाह फैलाई गई कि अंग्रेजों ने हिंदुओं का धर्म भ्रष्ट करने के लिए आटे में मनुष्यों की हड्डियां मिलाई हैं। यह सूचना मिलने पर नीमच के कई सिपाहियों ने विरोध करना शुरू कर दिया।
अर्जुनसिंह कायस्थ ने मामले की गंभीरता को देखते हुए स्वयं इस मसले को सुलझाना चाहा। वे नीमच के बाजार में गए और बनियों से आटा मंगवाकर सभी सैनिकों के सामने रोटी बनवाकर खाई।
महाराणा और उनके सभी साथी बड़े ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे, इसलिए अर्जुनसिंह कायस्थ द्वारा ऐसा करने पर सभी सैनिकों का सन्देह दूर हो गया। इस बात से कप्तान लॉयड बड़ा खुश हुआ और उसने महाराणा स्वरूपसिंह के पास एक खरीता भेजकर अर्जुनसिंह के लिए सिफारिश की।
महकमा खास का काम :- महाराणा स्वरूपसिंह के देहांत के बाद शम्भूसिंह मेवाड़ की गद्दी पर बैठे। महकमा खास का काम मेहता पन्नालाल के सुपुर्द था, लेकिन पन्नालाल को कैद किया गया।
फिर यह काम राय सोहनलाल को सौंपा गया। सोहनलाल इस काम को ढंग से नहीं कर पाए, तब 1874 ई. में यह जिम्मेदारी मेहता गोकुलचंद व सहीवाला अर्जुनसिंह को सौंपी गई।
महाराणा सज्जनसिंह के शासनकाल में अर्जुनसिंह की भूमिका :- 1874 ई. में महाराणा शम्भूसिंह का देहांत हो गया और मात्र 15 वर्ष की आयु में महाराणा सज्जनसिंह मेवाड़ की गद्दी पर बैठे।
महाराणा सज्जनसिंह की आयु कम होने के कारण राज्य के कारोभार को संभालने हेतु रीजेंसी काउंसिल की स्थापना की गई। इस काउंसिल में भी मेहता गोकुलचंद व सहीवाला अर्जुनसिंह को कार्यकर्ता के तौर पर रखा गया।
हालांकि इन दोनों को साधारण दैनिक कार्यों को करने के लिए ही नियुक्त किया गया था। महाराणा सज्जनसिंह के समय इजलास खास व महद्राज सभा की स्थापना हुई थी। इन दिनों में अर्जुनसिंह कायस्थ को सदस्य बनाया गया था।
महाराणा फतहसिंह के शासनकाल में 1894 ई. में मेहता पन्नालाल ने महकमा खास से इस्तीफा दे दिया, तब बलवन्तसिंह कोठारी व सहीवाला अर्जुनसिंह को महकमा खास का सेक्रेटरी बनाया गया। इस समय महाराणा फतहसिंह ने अर्जुनसिंह को सोने के लंगर भेंट किए।
अर्जुनसिंह का देहांत :- 1905 ई. में कायस्थ अर्जुनसिंह ने इस्तीफा दे दिया। लगातार 4 महाराणाओं की सेवा में रहने के बाद 25 अप्रैल, 1906 ई. को सहीवाला अर्जुनसिंह कायस्थ का देहांत हो गया।
अर्जुनसिंह के 2 पुत्र हुए :- गुमानसिंह व भीमसिंह। भीमसिंह राजनगर (वर्तमान राजसमन्द), कुम्भलगढ़ व मांडलगढ़ के हाकिम रहे थे।
1871 ई. में अर्जुनसिंह के भाई बख्तावरसिंह को राजपूताने के ए.जी.जी. के यहां मेवाड़ की तरफ से वकील के तौर पर नियुक्त किया गया था। इन्हें ‘रायबहादुर’ की उपाधि मिली।
बख्तावरसिंह के पुत्र हमीरसिंह इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के ग्रेजुएट थे और महाराणा फतहसिंह के प्राइवेट सेक्रेटरी भी रहे। हमीरसिंह का देहांत युवावस्था में ही हो गया। यह जानकारी डॉ. ओझा के लिखे इतिहास से ली गई है।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)