बड़गूजरवंशीय महाराज राजदेव का इतिहास

बड़गूजरवंशीय महाराज राजदेव (लगभग 580 ई.-620 ई.) का इतिहास :- श्रीतावट के बाद दौसा की गद्दी पर परमप्रतापी शासक राजदेव बैठे। वे अपने पिता की ही भांति वीर, पराक्रमी, कुशल योद्धा और दूरदर्शी थे।

सही अर्थों में देखा जाए तो इन्हें बड़गूजर वंश का वास्तविक संस्थापक मानने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है, क्योंकि राज्य विस्तार और उसके सुदृढ़ीकरण में राजदेव अपने पिता से ज्यादा सफल रहे।

पचवाड़ा का इलाका जीतना :- श्रीतावट के शासनकाल के अंतिम वर्षों में ही बड़गूजरों ने राज्य विस्तार की नीति अपना ली थी। राजा राजदेव के समय भी सीमा विस्तार जारी रहा। ढूंढ नदी के मध्य भाग से लगाकर दक्षिण तक का पूरा भूभाग पचवाड़ा के मीणाओं के अधिकार में था।

बड़गूजरों द्वारा जब इस ओर राज्य विस्तार किया जाने लगा तो मीणाओं के साथ इनका संघर्ष अवश्यंभावी हो गया। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. मोहनलाल गुप्ता लिखते हैं कि

“बड़गूजरों ने जब अपना प्रसार इस क्षेत्र में बढ़ाना शुरू किया तब यहाँ मीणाओं के पाँच प्रमुख कबीले थे। ये क़बीले सम्मिलित रूप से पचवाड़ा कहलाते थे किंतु ये पूरी तरह असंगठित थे। आम्बेर का मीणा वंश इसमें वरिष्ठ स्थान रखता था किंतु इसका नेतृत्व अप्रभावी था, दूसरे मीणा सरदार उसका कहना नहीं मानते थे। बड़गूजर इन मीणाओं की अपेक्षा अधिक संगठित, सभ्य, शक्तिशाली और बुद्धिमान थे।”

राजा राजदेव ने सेना लेकर बड़ी बहादुरी से पचवाड़ा के मीणाओं को हराकर इस पूरे इलाके को अपने अधिकार में कर लिया। इस लड़ाई के बाद ढूंढ नदी के मध्य भाग से लेकर सुदूर दक्षिण तक बड़गूजरों का अधिकार हो गया और बड़गूजर राज्य की सीमाएं ढूंढ नदी के दक्षिणी छोर तक पँहुच गई।

चाकसू पर गुहिलवंशियों के अधिकार के साथ ही ढूंढ नदी प्राकृतिक सीमा विभाजक का कार्य करने लगी। ढूंढ नदी के बाईं ओर बड़गूजरों और दाईं ओर गुहिलवंशियों ने अपनी-अपनी सत्ताएं कायम की।

मत्स्यप्रदेश पर आक्रमण और राज्यपुर की स्थापना :- जनरल कनिंघम लिखते हैं :- “अलवर की अरावली पहाड़ियों तथा यमुना के बीच के सम्पूर्ण भूभाग के पश्चिम में मत्स्य प्रदेश और पूर्व में शूरसेन प्रदेश है। मत्स्य प्रदेश में वर्तमान समय के अलवर (तहसील अलवर, राजगढ़, टहला आदि), जयपुर (बैराठ, कोटपूतली का कुछ भाग) और भरतपुर का कुछ भाग शामिल था। मत्स्यपुरी (माचेड़ी) और बैराठ दोनों मत्स्य प्रदेश में थे।”

इसी प्रकार ओझाजी ‘ओझा निबंध संग्रह’ में मत्स्य देश का वर्णन करते हुए लिखते हैं :- “मत्स्य देश कुरुक्षेत्र के दक्षिण में और शूरसेन के पश्चिम में था, जिसमें अलवर राज्य की तहसील अलवर, राजगढ़, टहला आदि के दक्षिणी और पश्चिमी हिस्से थे। जयपुर राज्य का बहुत सा अंश भी इसमें शामिल था। इसकी राजधानी विराट नगर थी।”

मत्स्यप्रदेश में बड़गूजरों के आगमन और अधिकार करने को लेकर इतिहासकारों में पर्याप्त मतभेद है। इतिहासकार डॉ. एस. एल. नागौरी तीसरी शताब्दी में बड़गूजरों का मत्स्यप्रदेश में आगमन मानते हैं, तो इतिहासकार डॉ. दशरथ शर्मा 5वी शताब्दी मानते हैं।

दोनों इतिहासकारों से इतर इतिहासकार गौरीशंकर ओझा मत्स्यक्षेत्र में बड़गूजरों का आगमन 620 ई. के आसपास बताते हैं। डॉ. मोहनलाल गुप्ता भी 7वी सदी में आगमन मानते हुए लिखते हैं :-

“सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के साथ ही इस क्षेत्र में प्राचीन क्षत्रियों का प्रभाव समाप्त हो गया। प्रतिहार, परमार, चालुक्य और चौहान समेत कालांतर में राजपूतों के कुलों की संख्या 36 हो गई, जिनकी शाखाएं और उपशाखाएँ फैलती गई। वर्तमान में जो जयपुर है उसमें राजपूतों की बड़गूजर शाखा ने बड़ी तेज़ी से अपनी सत्ता कायम की और लगभग आधे क्षेत्र पर बड़गूजर छा गये।”

बड़वाजी की पोथी में भी छठी शताब्दी के उत्तरार्ध मत्स्यप्रदेश में बसना लिखा है। बहरहाल, राजदेव का अभी तक कोई शिलालेख नहीं मिला है लेकिन उपर्युक्त सभी वर्णनों को देखे तो इतिहासकार ओझाजी का मत ज्यादा प्रामाणिक और सर्वमान्य प्रतीत होता है। यदि 5-10 वर्ष ऊपर-नीचे हो जाए तब भी कोई आपत्ति नहीं।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि 6ठी शताब्दी के उत्तरार्ध और 7वी शताब्दी के प्रारंभिक दशकों में मत्स्यक्षेत्र में बड़गूजरों का आगमन हो चुका था। मत्स्यप्रदेश पर बड़गूजरों का पहला आक्रमण राजा राजदेव के नेतृत्व में हुआ था।

इससे पहले किसी भी बड़गूजर शासक ने इस क्षेत्र के लिए संघर्ष नहीं किया था। मत्स्यप्रदेश पर पहले ही मीणा, गुर्जर जनजाति और निकुम्भवंशी क्षत्रिय तीनों परस्पर संघर्षरत थे। तीनों एक-दूसरे के इलाके दबाने में लगे हुए थे।

राजा राजदेव ने बड़ी बुद्धिमानी के साथ राजनैतिक परिस्थितियों का विश्लेषण कर सटीक रणनीति के साथ तीनों के साथ संघर्ष किया। राजा राजदेव ने पचवाड़ा जीतने के बाद सेना लेकर मत्स्य क्षेत्र की कबीलाई गुर्जर जनजाति पर आक्रमण किया।

राजा राजदेव ने किसी सिंधुराज गुर्जर को मार कर यह क्षेत्र जीता था और अपने ही नाम पर राज्यपुर की स्थापना की थी। राज्यपुर बसाने और राजा राजदेव को लेकर बड़वों की पोथियों और स्थानीय किवदंतियों दोनों में एक लोककथा प्रचलित है, जो इस प्रकार है :-

“महाराज श्रीतावट के पुत्र राजदेव ने छठी शताब्दी के उत्तरार्ध में राजौरगढ़ की स्थापना की। राजा राजदेव को लोकभाषा में ‘महासुजी’ कहा जाता है। राजदेव दौसा से अपने भाई के साथ शिकार खेलते हुए तालटेढ़ा के सरोवर पर खेमा लगाकर ठहरे।

दौसा दुर्ग

तालटेढ़ा सरोवर से राजौर (राज्यपुर) चार कोस दूर था, जहां कबीले का मुखिया सिंधुराज गूजर था। वहां के लोगों ने उसकी क्रूरता का वर्णन करते हुए अपना कष्ट राजा राजदेव को बताया।

राजा राजदेव ने अपने भाई को सिंधुराज गूजर के पास भेजकर उसको लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करने की बात कही। लेकिन सिंधुराज ने आग-बबूला होकर राजा राजदेव का अपमान किया।

राजा राजदेव ने सिंधुराज गूजर पर आक्रमण कर दिया। छः दिनों तक युद्ध चला। अंत में महासुजी (राजा राजदेव) ने अपनी तलवार से सिंधुराज गूजर का सर धड़ से अलग कर दिया।”

इस लोककथा के संदर्भ में एक दोहा जनमानस में आज भी प्रचलित है। जो इस प्रकार है :- “सिंधुराज गूजर मार जस पायो। राजा महास तू बड़गूजर कहायो।।”

राजा राजदेव ने सिंधुराज गूजर को मारकर पूरे क्षेत्र को अपने अधिकार में ले लिया और अपने नाम पर “राज्यपुर” की स्थापना की और एक किले का निर्माण करवाया, जिसे वर्तमान में राजौरगढ़ दुर्ग कहते हैं।

राजा राजदेव के वंशजों के मिले कई शिलालेखों, जैसे महाराजाधिराज परमेश्वर सावटदेव का शिलालेख (923ई.), महाराजाधिराज परमेश्वर मथनदेव का शिलालेख (959ई.), महाराज अजयपालदेव का शिलालेख (1044ई.) और महाराज पृथ्वीपालदेव बड़गूजर का शिलालेख (1151 ई. और 1182ई.) आदि में बड़गूजरों की राजधानी “राज्यपुर” का उल्लेख मिलता है।

कर्नल जेम्स टॉड लिखता है :- “बड़गूजर सूर्यवंशी हैं और अपने आप को श्रीरामचन्द्र केे बेटे लव से निकला बतलाते हैं। बड़गूजरों के बड़े-बड़े इलाके ढूंढाड़ (जयपुर राज्य) में थे और माचेड़ी (अलवर के राजाओं का मूल स्थान) के राज्य में राजोर (राजौरगढ़) का पहाड़ी किला उनकी राजधानी था। राजगढ़ और अलवर भी इनके अधिकार में थे।”

द्वैतवन (देवती) पर अधिकार करना :- राजौरगढ़ के उत्तरी भूभाग पर उत्तर से पूर्व तक निकुम्भवंशी क्षत्रियों का अधिकार था। राजा राजदेव ने निकुम्भों पर आक्रमण कर उनसे कई इलाके जीते, जिनमें ज्यादातर भाग अलवर जिले की राजगढ़ और लक्ष्मणगढ़ तहसील का था।

इतिहासकार राघवेंद्र सिंह के अनुसार :- “बड़गूजरों ने राजौरगढ़ से पूर्व दिशा के क्षेत्र में निकुम्भों को हराकर इस इलाके पर कब्ज़ा किया और उसके नियंत्रण के लिए राजपुर किले का निर्माण करवाया।”

मत्स्यपुरी (माचेड़ी) और टहला पर अधिकार करना :- टहला और माचेड़ी दोनों पर मीणाओं का अधिकार था। राजा राजदेव ने माचेड़ी और टहला पर आक्रमण करके उसे अपने राज्य में मिला लिया।

राजा मान, जो कि राजा राजदेव के छोटे भाई थे, भी इस युद्ध अभियान में इनके साथ थे। इतिहासकार मोहनलाल गुप्ता के अनुसार राजा मान ने मत्स्यपुरी क्षेत्र को जीतकर इसका नाम माचेड़ी रखा था।

सम्भवतः ऐसा हो सकता है कि राजा राजदेव और राजा मान दोनों ने एक ही समय पर मीणाओं पर आक्रमण किया हो। राजा राजदेव ने टहला पर और राजा मान ने मत्स्यपुरी पर।

राजगढ़ नामक कस्बा बसाना :- टहला और माचेड़ी नामक स्थानों को जीतने के बाद राजा राजदेव ने अपने ही नाम पर राजगढ़ नामक कस्बा बसाया।

टहला दुर्ग

इतिहासकार मोहनलाल गुप्ता लिखते हैं :- “बड़गूजर वंश में राजदेव दूसरा प्रमुख शासक हुआ, जिसने अपने राज्य का विस्तार कर उसे समृद्धशाली एवं वैभवशाली बनाया। इसी राजदेव के नाम पर यह कस्बा राजगढ़ कहलाया।”

वर्तमान समय में अलवर जिले की एक तहसील का नाम राजगढ़ है और इसी नाम से एक रेलवे स्टेशन बना हुआ है, जो सम्भवतः राजगढ़ कस्बे के आधार पर ही रखा गया हो।

आधुनिक इतिहासकार महेंद्र सिंह तलवाना ने राजा राजदेव और महाराजाधिराज परमेश्वर मथनदेव को एक ही माना है, जो कि अनुचित है, क्योंकि, महाराजाधिराज मथनदेव, राजा राजदेव की 12वी पीढ़ी में हुए थे।

कुछ इतिहासकारों ने यह बात लिखी है कि श्रीरामचंद्र के बेटे महाराज लव के बेटे का नाम बड़उज्ज्वल था और उसी के नाम पर इस वंश का नाम बड़गूजर या बड़उज्ज्वल पड़ा।

यह मान्यता सही नहीं, क्योंकि महाराज लव की अब तक कई वंशावलियां प्राप्त हो चुकी है लेकिन किसी में भी उनके पुत्र का नाम बड़उज्ज्वल पढ़ने में नहीं आया है। लेकिन यह बात भी सत्य है कि बड़गूजरों द्वारा कहीं-कहीं पर बड़उज्ज्वल शब्द का इस्तेमाल किया जाता है।

इस संदर्भ में ठा. ईश्वर सिंह मडाढ़ का मत ज्यादा प्रामाणिक, सटीक और सर्वमान्य है। वे लिखते हैं :- “राजौरगढ़ (जिला अलवर) के शासक वंश परंपरा में पवित्र और बड़े ही उज्ज्वल होने के कारण बड़उज्ज्वल और धीरे-धीरे बड़गूजर कहे जाने लगे।”

हालही में हुए शोध में यह बात और अधिक स्पष्टता के साथ सामने आई है कि गुर्जरदेश के बड़नगर से निकासी के कारण सूर्यवंशियों की यह शाखा कालांतर में बड़गूजर कहलाई।

राजपुर दुर्ग

संदर्भ सूची :- (1) क्षत्रिय राजवंश बड़गूजर – सिकरवार – मडाढ़ (कुंवर अमित सिंह राघव, डॉ. खेमराज राघव, पवन बख्शी) (2) ओझा निबंध संग्रह (डॉ. गौरीशंकर ओझा) (3) जयपुर सम्भाग का जिलेवार सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन (डॉ. मोहनलाल गुप्ता)

(4) अलवर राज्य का इतिहास (डॉ. S. L. नागौरी) (5) राजस्थान के प्राचीन नगर और क़स्बे (डॉ. राघवेंद्र सिंह मनोहर) (6) बड़गूजर राजवंश (महेंद्र सिंह तलवाना) (7) राजपूत वंशावली (ठा. ईश्वर सिंह मडाढ़) (8) प्रोटेक्टेड मोन्यूमेंट ऑफ़ राजस्थान (डॉ. चंद्रमणि सिंह)

पोस्ट लेखक :- जितेंद्र सिंह बडगूजर

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