मारवाड़ के राज्यचिह्न, कुलदेवी, सिक्कों व तोपों की जानकारी

मारवाड़ का राज्यचिह्न :- मारवाड़ के राज्यचिह्न में 2 तरफ चीलें पंख फैलाए हुए हैं। नीचे देवनागरी लिपि में ‘रणबंका राठौड़’ अंकित है। चिह्न में बाजरे के सिट्टों का अंकन सुमेलगिरी के उस भीषण युद्ध की याद दिलाता है,

जब शेरशाह सूरी ने कहा था कि “मुट्ठी भर बाजरे के लिए मैं हिंदुस्तान की बादशाहत खो देता।” 1918 ई. में इस राज्यचिह्न में दोनों चीलों के बीच की खाली जगह में सूर्य व नीचे दो तलवारों का अंकन होता था, बाद में तलवारें और सूर्य का अंकन लुप्त हो गया।

1933 ई. में इस खाली स्थान में सिंह का अंकन होने लगा। इस राज्यचिह्न में समय-समय पर कई बदलाव आए, परन्तु इन दोनों चीलों में कोई बदलाव नहीं किया गया।

मारवाड़ का राज्यचिह्न

मारवाड़ का राज्यगीत ‘धूँसा’ :- यह गीत कविराजा मुरारीदान के संग्रह से लिया गया था। सर्वप्रथम इसका प्रकाशन 13 अक्टूबर, 1929 ई. को हुआ।

इस गीत का प्रचलन राज्यगीत के तौर पर सर्वप्रथम महाराजा अभयसिंह राठौड़ के शासनकाल में हुआ। इस राज्यगीत में गोराधाय व वीर दुर्गादास राठौड़ जैसे देशभक्तों का भी नाम है।

मारवाड़ के राठौड़ वंश की कुलदेवी :- मारवाड़ के राठौड़ों की कुलदेवी माँ नागणेच्या जी हैं। माँ नागणेच्या जी की मूर्ति सर्वप्रथम मारवाड़ में कौन लाए, इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद हैं।

किसी के अनुसार राव धूहड़ जी यह मूर्ति कर्नाटक से लाए, तो किसी के अनुसार लुम्ब नामक ऋषि यह मूर्ति कन्नौज से लाए।

इन सभी में प्रबल मत यही है कि यह मूर्ति राव धूहड़ द्वारा कर्नाटक से लाई गई और मारवाड़ में नागाणा गांव में मूर्ति की स्थापना की। कर्नाटक में इन्हें चक्रेश्वरी माता के नाम से पूजा जाता था। मारवाड़ में स्थापना के बाद इन्हें माँ नागणेच्या जी के नाम से पूजा जाने लगा।

माना जाता है कि नागणेच्या जी को सतयुग में मंछादेवी, त्रेतायुग में राठेश्वरी, द्वापर में पंखणा देवी और कलयुग में माँ नागणेच्या जी कहा जाने लगा। मारवाड़ में स्थापित की गई इस मूर्ति में माताजी के 18 हाथ हैं।

प्रतिवर्ष माघ सुदी सप्तमी के दिन कुलदेवी मन्दिर में उत्सव मनाया जाता है और एक अन्य उत्सव भादवा सुदी सप्तमी के दिन भी मनाया जाता है।

राठौड़ राजपूतों ने माँ चामुंडा को अपनी इष्टदेवी के रूप में स्वीकार किया। राव जोधा ने मेहरानगढ़ दुर्ग में माँ चामुंडा का भव्य मंदिर बनवाया था।

कुलदेवी माँ नागणेच्या जी

मारवाड़ के सिक्के :- प्राचीनकाल में यहां के सिक्के चौकोर बनते थे। फिर बाद में गोल सिक्के बनने लगे। इन सिक्कों पर नाम की बजाय धनुष, सूर्य, वृक्ष, पशु, पुरुष की आकृतियां अंकित होती थीं।

क्षत्रपों के समय चलाए गए सिक्के ‘द्रम्म’ कहलाते थे। गुप्तों ने भी यहां सिक्के जारी किए। फिर यहां गधिया सिक्कों का चलन भी रहा। प्रतिहार राजा भोज ने यहां चांदी और तांबे के सिक्के चलाए। ये सिक्के आदिवराह नाम से चलाए गए थे।

जोधपुर के महाराजा विजयसिंह राठौड़ ने 1781 ई. में एक टकसाल की स्थापना की, जहां जारी किए गए सिक्के ‘विजयशाही सिक्के’ कहलाए। मारवाड़ में जोधपुर के अलावा पाली, सोजत, कुचामण व नागौर में भी टकसालें थीं।

नज़रों का क्रम :- नज़र पेश करने की रस्म सभी रियासतों में होती थी। विभिन्न अवसरों पर रियासती पदधारी लोग महाराजा को नज़रें पेश करते थे। मारवाड़ नरेश को नज़रें पेश करने के लिए इन पदधारियों का जो क्रम था, वो इस प्रकार होता था :-

सर्वप्रथम रियासत के राजकुमार मजराजा को नज़र पेश करते थे। तत्पश्चात क्रमशः महाराज सरदार, रावराजा, सिरायत एवं राजा, ताजीमी जागीरदार, मुत्सद्दी, गणमान्य नागरिक, सामान्य राजपूत सरदार नज़रें पेश करते थे।

तोपों की सलामी :- अंग्रेजों के ज़माने में जोधपुर रियासत को 17 तोपों की सलामी का अधिकार प्राप्त था। अर्थात किसी दरबार या ऐसी जगह जहां अंग्रेज सरकार के अफसर और अन्य राजा महाराजा शुमार हों, तो वहां जोधपुर महाराजा के सम्मान में 17 तोपों की सलामी दी जाती थी।

लेकिन स्थानीय सलामी की संख्या 19 थी, जो कि जोधपुर में ही किसी त्योहार या अन्य किसी विशेष अवसर पर जोधपुर महाराजा के सम्मान में चलाई जाती। जोधपुर महाराजा तख्तसिंह राठौड़ द्वारा ब्रिटिश दरबार से उठकर चले जाने के कारण उनकी तोपों की संख्या घटाकर 15 कर दी गई।

तोपें :- मारवाड़ की तोपें बड़ी प्रसिद्ध रही हैं। वर्तमान में भी मेहरानगढ़ दुर्ग में कई तोपें स्थित हैं। मारवाड़ की प्रसिद्ध तोपें किलकिला, कडकबिजली, शंभूबाण, बिछूबाण, गुब्बारा, जमजमा, धूड़धाणी, हड़मानहाक, बगररुवाहन, नुसरत, नागपली, मागवा, गजक, मीरकचंग, मीराबख्श, व्याघ्री, रास्यकलां आदि हैं।

मेहरानगढ़ दुर्ग पर स्थित तोप

रियासतकाल में जोधपुर में रात के वक्त 10 बजे अंतिम तोप बजती थी, जिसके बाद शहर के परकोटे व सभी दरवाज़े बन्द हो जाते थे। नगर कोतवाल की आज्ञा के बिना न तो कोई आ सकता था, न जा सकता था।

मेहरानगढ़ के संग्रह में एक ऐसी तोप भी है, जो पंचधातु से निर्मित है। इस तोप का मुंह मछली जैसा, पूंछ मगरमच्छ जैसी, पांव शेर के पंजों जैसे व गर्दन शेरनुमा आकार लिए हुए है। इस तोप का प्रदर्शन पेरिस में आयोजित अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनी में भी किया गया था।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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