मारवाड़ के दरबारी शिष्टाचार

मारवाड़ के जागीरदारों की ताजीमें :- जागीरदारों द्वारा महाराजा के समक्ष जाने पर महाराजा द्वारा सम्मान स्वरूप जो प्रतिक्रिया की जाती थी, वह ताजीम कहलाती थी। ताजीम के कई प्रकार होते थे, जैसे :-

इकेवड़ी ताजीम :- जब जागीरदार महाराजा के सामने उपस्थित होता था, तब महाराजा खड़े होकर जागीरदार का अभिवादन स्वीकार करते थे।

दोवड़ी ताजीम :- जिन जागीरदारों को दोवड़ी ताजीम का अधिकार प्राप्त होता था, उनके दरबार में आने व जाने, दोनों बार महाराजा खड़े होकर अभिवादन स्वीकार करते थे।

बांहपसाव :- बांहपसाव वाले जागीरदार अपनी तलवार महाराजा के पैरों के पास रखकर उनके अचकन के पल्ले को छूकर अभिवादन करते थे और महाराजा साहब जागीरदार के कंधे पर हाथ रखकर अगवानी करते थे।

जोधपुर महाराजा तख्तसिंह जी राठौड़

हाथ का कुरब :- यह अभिवादन बांहपसाव वाले जागीरदारों की तरह ही होता था, बस फ़र्क़ ये था कि इसमें महाराजा जागीरदार के कंधे पर हाथ रखकर जागीरदार को अपनी छाती तक ले जाते थे।

सीरे का कुरब :- यह ताजीम सिर्फ गिने-चुने जागीरदारों को ही प्राप्त होती थी।

महाराज सरदार या राजवी सरदार :- ये महाराजा के छुट भाई या फिर नज़दीकी रिश्तेदार होते थे, जिन्हें मेहरानगढ़ किले में लोहा पोल तक घोड़े पर सवार होकर आने का अधिकार प्राप्त था।

हालांकि यहां से आगे उन्हें पैदल ही जाना पड़ता था। महाराजा के छोटे भाइयों के ज्येष्ठ पुत्र को ‘पाटवी महाराज’ व अन्य पुत्रों को ‘थाटवी महाराज’ कहा जाता था।

इसी तरह सिरायत के जागीरदार राव जोधाजी के फलसे तक घोड़े पर सवार होकर जा सकते थे। हाथ के कुरब वाले जागीरदारों को इमरती पोल व राव जोधा जी के फलसे के बीच में घोड़े से उतरना पड़ता था।

बांहपसावदोवड़ी ताजीम वाले जागीरदार फलसे के कुछ ऊपर तक घोड़े पर सवार होकर जा सकते थे। इस प्रकार जागीरदारों को इन शिष्टाचारों का पालन करना पड़ता था।

मारवाड़ में पड़दायतों व पासवानों के पुत्रों को पहले भाभा, चेला, गोटा बरदार, पासवानिये आदि कहा जाता था, परन्तु महाराजा तख्तसिंह ने 1862 ई. में उन्हें सम्मान देते हुए ‘रावराजा’ की पदवी दी।

जोधपुर के मेहरानगढ़ दुर्ग में स्थित दरबार का स्थान

हालांकि ‘भाभा’ शब्द सम्मानसूचक शब्द ही है। मारवाड़ में वर्तमान समय में भी बड़े भाई को ‘भाभा’ ही कहा जाता है। मारवाड़ में एक पदवी ‘रावरजा’ की भी होती थी, जो कि ‘रावराजा’ से भिन्न होते थे। रावरजा की उपाधि ओसवालों को दी जाती थी।

मारवाड़ में भेंट किए जाने वाले सिरोपाव में से हाथी सिरोपाव सबसे बड़ा सम्मान होता था। हाथी सिरोपाव में निम्नलिखित शामिल होते थे :- हाथी, कंठी, दुशाला, सिरपेच, दुपट्टा, पेची मदील, खिनखाब व फुलगरी।

पालकी सिरोपाव :- पालकी सिरोपाव में वे ही वस्तुएं होती थीं, जो हाथी सिरोपाव में होती थीं, लेकिन इसमें हाथी के स्थान पर पालकी दी जाती थी। पालकी सिरोपाव में जो अन्य वस्तुएं होती थीं, उनकी कीमत हाथी सिरोपाव वाली वस्तुओं से कम होती थी।

इनके अलावा घोड़ा सिरोपाव भी होता था व तीनों श्रेणियों के जागीरदारों के लिए सादे सिरोपाव होते थे दर्जे के अनुसार। मारवाड़ रियासत व अन्य रियासतों के बीच जिस प्रकार के दस्तूर होते थे, वे कुछ इस तरह हैं :-

यदि मेवाड़ के महाराणा मारवाड़ जाते, तो मारवाड़ नरेश अपने किले से बाहर निकलकर 3 कोस तक पेशवाई हेतु जाते थे। मारवाड़ नरेश द्वारा किसी भी अन्य रियासत के राजा की पेशवाई हेतु जाने के मामलों में मेवाड़ के महाराणा का दर्जा अव्वल था।

अर्थात मारवाड़ नरेश मेवाड़ के महाराणा के अलावा किसी भी अन्य राजा के लिए 3 कोस तक पेशवाई हेतु नहीं जाते थे। जयपुर महाराजा, बीकानेर नरेश, रतलाम नरेश व ईडर नरेश के आने पर मारवाड़ के महाराजा एक कोस तक पेशवाई हेतु जाते थे।

बूंदी के रावराजा, सिरोही के महाराव, सीतामऊ नरेश, झाबुआ नरेश, करौली के यदुवंशी शासक, नवानगर के जाडेजा शासक व किशनगढ के राजा के आने पर पौन कोस तक पेशवाई हेतु जाने का रिवाज था।

जैसलमेर के महारावल के आने पर आधे कोस तक जाने का रिवाज था। जूनागढ़ नरेश के आगमन पर किले के दरवाज़े से महज 20 कदम तक जाने का रिवाज था। देवलिया नरेश व गागरोन नरेश के आने पर मारवाड़ नरेश किले के दरवाज़े तक ही जाते थे।

जागीरदारों हेतु लवाजमे के नियम कायदे :- लवाजमे में सोने या चांदी की छड़ी केवल वे जागीरदार ही रख सकते थे, जिन्हें महाराजा की ओर से यह अधिकार दिया जाता।

जागीरदारों के घोड़ों के आभूषण सोने के होंगे या चांदी के, यह निर्धारण भी महाराजा द्वारा उक्त ठिकाने की कुरब व ताजीम के अनुसार तय किया जाता था।

जोधपुर के मेहरानगढ़ दुर्ग में स्थित दरबार का स्थान

जब भी कोई उमराव, जागीरदार जोधपुर आते थे, तो जोधपुर की सीमा से पहले ही उन्हें लवाजमे के नगाड़ों को बंद कर देना होता था। यदि महाराजा का डेरा किसी गांव में हो, तो उस गांव में प्रवेश से पहले ही जागीरदारों को अपने लवाजमे के नगाड़े बन्द कर देने होते थे।

लवाजमे में नगाड़े व निशान सबसे आगे होते थे। सबसे पीछे ऊंट पर नगाड़ा होता था। यदि सभी उमराव, जागीरदार महाराजा की सवारी के साथ किसी जुलूस या खास मौके पर होते, तो वे अपने लवाजमे के नगाड़े बजा सकते थे, लेकिन अलग हटकर नगाड़े बजाना अमर्यादित माना जाता था।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

2 Comments

  1. रतन सिंह राठौड़ सन ऑफ प्रहलाद सिंह राठौड़ ठिकाना दौलतपुर राजपरिवार तहसील इछावर डिस्ट्रिक्ट सीहोर मध्य प्रदेश दौलतपुर राजपरिवार से राजा निर्भय सिंह अंतिम गादीपति जयपुर से जोधपुर गोत्र जोधा

  2. कुवँर धनेन्द्र सिंह सोमवंशी
    July 17, 2022 / 7:49 am

    बहुत सुंदर जानकारी
    जय क्षात्र धर्म 🚩

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