मारवाड़ का भूगोल

मारवाड़ का भूगोल :- मरु, मरुधन्व, मरुस्थल, मरुस्थली, मरुमण्डल, मारव, मरुमेदिनी, मरुदेश, मरुकांतार आदि मारवाड़ के पुराने नाम हैं, जिनका अर्थ होता है रेगिस्तान या निर्जल क्षेत्र। भागवत में इसका नाम मरुधन्व दिया है।

मारवाड़ शब्द में ‘वाड़’ का अर्थ है ‘रक्षा’। मारवाड़ शब्द का आशय है ‘रेगिस्तान से रक्षित देश’। इस रेगिस्तान में शंख, सीप, कौड़ी आदि मिलते हैं, जिससे मालूम पड़ता है कि यहां प्राचीनकाल में समुद्र हुआ करता था। फिर प्राकृतिक कारणों से समुद्र का जल दक्षिण की तरफ हट गया।

पौराणिक वर्णन :- मारवाड़ में समुद्र से रेगिस्तान बनने का वर्णन रामायण की एक कथा में किया गया है, जिसके अनुसार भगवान श्री राम ने समुद्र जल को सुखाने के लिए आग्नेयास्त्र का प्रयोग करना चाहा।

तब समुद्र ने भगवान राम से कहा कि आग्नेयास्त्र को द्रुमकुल्य नामक उत्तरी भाग पर छोड़ दीजिए। भगवान राम ने ऐसा ही किया और द्रुमकुल्य का जल सूखकर वह मरुदेश में परिवर्तित हो गया।

रामायण में इस क्षेत्र के लिए मरुकांतार शब्द का प्रयोग किया गया है। डॉक्टर ओझा के अनुसार महाभारत काल में इस क्षेत्र पर पांडवों का अधिकार था।

मेहरानगढ़ दुर्ग

वैज्ञानिक कारण :- विज्ञान मानता है कि भू-संरचना में बदलाव होने से यहां समुद्र से रेगिस्तान बन गया। यहां मिले जीवाश्मों और पत्थरों से अनुमान लगाया जाता है कि करोड़ों वर्ष पहले यहां समुद्र था। यहां मिले करोड़ों वर्ष पहले के जीवाश्मों को जैसलमेर के म्यूजियम में रखा गया है।

मारवाड़ राजपूताने की सबसे बड़ी रियासत है। इसकी उत्तरी सीमा बीकानेर और शेखावाटी को छूती है। पूर्वी सीमा मेवाड़, जयपुर और किशनगढ़ को छूती है। अग्निकोण पर अजमेर और मेरवाड़ा, दक्षिण में मेवाड़, सिरोही और पालनपुर, वायुकोण पर जैसलमेर है।

जोधपुर, बाड़मेर, पाली, जालौर, नागौर जिले मारवाड़ की हद में आते हैं। मारवाड़ रेगिस्तानी इलाका है। मारवाड़ की सबसे लंबी नदी लूनी नदी है। लूनी नदी अजमेर की नाग पहाड़ियों से निकलती है और फिर नागौर, पाली, जोधपुर, बाड़मेर व जालौर होते हुए कच्छ की तरफ जाती है।

इस नदी का पानी बाड़मेर के बालोतरा नामक स्थान तक मीठा होता है, परन्तु बालोतरा से इसका पानी खारा हो जाता है। पाली से जवाई और सूकड़ी नामक नदियां निकलती हैं, जो कि जालौर होते हुए बाड़मेर में लूनी नदी में मिल जाती हैं।

खारी नदी सिरोही से निकलकर जालोर में जवाई नदी में मिल जाती है। बांडी नदी पाली से निकलती है, फिर जोधपुर में बहते हुए पुनः पाली में जाकर लूनी नदी में मिल जाती है। गुहिया नदी पाली से निकलकर बांडी नदी में मिल जाती है।

सागी नदी जालौर से निकलकर बाड़मेर में लूनी नदी में मिल जाती है। मीठड़ी नदी पाली से निकलकर बाड़मेर में लूनी नदी में मिल जाती है। जोजड़ी नदी नागौर से निकलकर जोधपुर में लूनी नदी में मिल जाती है।

लूनी नदी

गोवा नदी सोजत की पहाड़ियों से निकलकर लूनी नदी में मिल जाती है।मा रवाड़ में सूंधा, सिवाना, सोनगढ़ आदि ऊंची पहाड़ियां हैं। सिवाना के नज़दीक छप्पन की पहाड़ियां हैं। बाली, देसूरी, परबतसर, सोजत व सिवाना में जंगल हैं।

मारवाड़ में जसवंतसागर, बालसमन्द, कायलाना, एडवर्ड समंद, सरदारसमन्द आदि कृत्रिम झीलें हैं। मारवाड़ में फलौदी, पचपदरा, डीडवाना, कुुुचामन वगैरह झीलों से नमक निकलता, जिससे राज्य को आय होती थी।

एक पुराने रिकॉर्ड के अनुसार वर्ष 1857 ई. में बाड़मेर की पचपदरा झील से इस एक वर्ष में 11 लाख मन नमक निकाला गया। हमेशा से ही पचपदरा झील का नमक अन्य खारी झीलों की तुलना में अधीन श्रेष्ठ रहा है।

मारवाड़ में दिन में बहुत ज्यादा गर्मी व रात में बहुत ज्यादा सर्दी रहती है, क्योंकि रेत जल्दी ठंडी हो जाती है। यहां की हवा ख़ुश्क होती है। अप्रैल, मई और जून के महीनों में यहां ‘लू’ और आंधियां चलती, जिससे कुछ लोग मर भी जाते हैं।

1883 ई. की एक रिपोर्ट के अनुसार उस वक्त मारवाड़ में 4,440 गाँव थे, जिनमें से 497 गांव ख़ालिसे (वे गाँव, जिनकी समस्त आय शासक की होती थी) के थे। इनमें से मालानी का परगना सबसे बड़ा था, जिसकी आबादी 1,48,326 थी।

मारवाड़ के उचित प्रबंध हेतु यहां निम्नलिखित 21 विभाग किए गए और हर एक विभाग में एक हाकिम नियत किया गया :- जोधपुर, बिलाड़ा, जैतारण, मेड़ता, परबतसर, साम्भर, डीडवाना, नागौर, फलौदी, शेरगढ़, शिव, मालानी, सांचौर, पचपदरा, सिवाना, जसवंतपुरा, जालोर, पाली, बाली, देसूरी व सोजत।

मारवाड़ में बाजरा, मोठ, भुरट, ज्वार, तिल, मूंग, कपास, मक्की, जीरा, अजवायन, धनिया, तिजारा, मिर्च, तरबूज, मेथीदाना, ककड़ी, गेहूं, चने आदि होते हैं। आम लोग मुख्य रूप से बाजरा, मोठ और भुरट से गुजर बसर करते हैं।

जोधपुर शहर

मारवाड़ में ऊंट बड़ी संख्या में मिलते हैं। ऊंट को रेगिस्तान का जहाज कहते हैं। मारवाड़ के घोड़ों की तारीफें समूचे राजपूताने में की जाती थीं। राजपूताने में जब भी घुड़दौड़ का आयोजन होता था, तब मारवाड़ के घोड़ों को परास्त करना बड़ा मुश्किल होता था।

सोजत में घोड़े की लगामें और जीन बनती थी। ऊंटों की काठियाँ बाड़मेर की प्रसिद्ध रही हैं। पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

1 Comment

  1. B.D.Yadav
    July 15, 2022 / 5:24 pm

    Very nice 👌 history and culture of marvad

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