महाराज शक्तिसिंह जी :- इतिहास के ऐसेे योद्धा जिन्हें अब तक महाराणा प्रताप के विरुद्ध युद्ध करने के लिए दोषी ठहराया जाता है, जबकि वे इस दोष के जिम्मेदार थे ही नहीं।
महाराज शक्तिसिंह का जन्म 1540 ई. में हुआ। इनके पिता मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह जी व माता सज्जाबाई जी सोलंकिनी थीं, जो कि महाराणा उदयसिंह जी की दूसरी रानी थीं। शक्तिसिंह के छोटे भाई वीरमदेव थे।
बड़े भाई महाराणा प्रताप के जन्म के कुछ ही महीनों बाद शक्तिसिंह जी का जन्म हुआ। बचपन में दोनों भाईयों के बीच कोई मनमुटाव नहीं था। एक दिन महाराणा उदयसिंह दरबार लगाए बैठे थे कि तभी तलवार बेचने वाला आया।
महाराणा ने तलवार की धार देखने के लिए एक महीन कपड़ा तलवार पर फेंका जिससे कपड़े के दो टुकड़े हो गए। कुंवर शक्तिसिंह तलवार की धार देखने के लिए अपना ही अंगूठा चीर कर बोले “वाकई, तलवार में धार है”।
राजमर्यादा तोड़ने पर महाराणा उदयसिंह ने क्रोधित होकर कुंवर शक्तिसिंह को दरबार से बाहर निकाल दिया। इस बात से कुंवर शक्तिसिंह जीवनभर महाराणा से नाराज रहे। कुंवर शक्तिसिंह को सत्ता का कोई लोभ नहीं था, उनकी नाराजगी केवल महाराणा उदयसिंह से थी।
31 अगस्त, 1567 ई. को अकबर ने धौलपुर में पड़ाव डाला, जहां उसकी मुलाकात मेवाड़ के कुंवर शक्तिसिंह से हुई। इस दौरान प्रसिद्ध लेखक अबुल फजल भी यहीं मौजूद था। अबुल फजल ने शक्तिसिंह जी का नाम शक्ता लिखा है।
अबुल फजल अकबरनामा में लिखता है कि “शहंशाह ने धौलपुर में पड़ाव डाला, यहां उनकी मुलाकात राणा उदयसिंह के बेटे शक्ता से हुई। शहंशाह ने शक्ता से कहा कि हम राणा उदयसिंह पर हमला करने जा रहे हैं, तुम भी चलोगे हमारे साथ ? ये सुनते ही शक्ता गुस्से में आकर शहंशाह को कोर्निश (सलाम) किए बगैर ही चला गया”
शक्तिसिंह जी ने अकबर के हमले की सूचना तुरन्त चित्तौड़ जाकर महाराणा उदयसिंह जी को सुनाई, जिससे युद्ध की तैयारियां व राजपरिवार की रक्षा हो सकी। एक बार किसी बात पर महाराणा प्रताप का उनके भाई शक्तिसिंह जी के साथ झगड़ा हो गया।
बीच-बचाव करने आए राजपुरोहित नारायणदास पालीवाल ये लड़ाई रोक नहीं पाए, तो उन्होंने लड़ाई रोकने के लिए आत्महत्या कर ली।
(एक मत ये भी है कि शक्तिसिंह जी की तलवार के वार से अनजाने में नारायणदास जी का देहान्त हुआ, जिससे नाराज होकर महाराणा प्रताप ने शक्तिसिंह जी को मेवाड़ से निर्वासित किया)
शक्तिसिंह जी 1572 ई. से 1576 ई. तक डूंगरपुर रावल आसकरण की सेवा में रहे, फिर अपने उग्र स्वभाव के चलते डूंगरपुर में किसी जगमाल नाम के मंत्री का वध कर देने पर इन्हें डूंगरपुर छोड़ना पड़ा और ये मुगल सेवा में चले गए।
शक्तिसिंह जी के सिर्फ मुगल सेवा में जाने का वर्णन मिलता है, लेकिन मुगलों की तरफ से इनके एक भी युद्ध लड़ने का कोई प्रमाण नहीं मिलता। शक्तिसिंह जी मुगल सेवा में कुछ महीने ही रहे थे।
(हालांकि कुछ महीनों तक मुगल सेवा में जाने का वर्णन भी कवि लोगों का लिखा हुआ है, अन्यथा उस वक्त के किसी भी मुगल लेखक ने शक्तिसिंह जी द्वारा मुगल अधीनता स्वीकार करने की बात नहीं लिखी)
हल्दीघाटी युद्ध में शक्तिसिंह जी ने मुगलों की तरफ से भाग लिया ही नहीं था। यदि भाग लिया होता तो युद्ध में मौजूद अब्दुल कादिर बंदायूनी उनका नाम जरुर लिखता।
युद्ध के अन्तिम क्षणों में शक्तिसिंह जी ने बनास नदी के करीब पहुंचकर महाराणा प्रताप के पीछे आ रहे खुरासान खां और मुल्तान खां को मारकर अपना घोड़ा महाराणा प्रताप को भेंट किया। शक्तिसिंह जी ने क्षमा मांगी और महाराणा प्रताप के साथ मिलकर स्वामिभक्त चेतक की अन्तिम क्रिया की।
हल्दीघाटी युद्ध के बाद शक्तिसिंह जी ने भीण्डर के पास स्थित वैणगढ़ दुर्ग पर तैनात मुगलों को मारकर विजय प्राप्त की। वैणगढ़ से शक्तिसिंह जी ने भैंसरोडगढ़ दुर्ग पर चढाई की।
भैंसरोडगढ़ में तैनात मुगलों से लड़ाई हुई जिसमें शक्तिसिंह जी विजयी हुए। शक्तिसिंह जी उदयपुर में महाराणा प्रताप से मिलने पहुंचे तब ये दुर्ग उन्होंने महाराणा को भेंट किया।
महाराणा प्रताप ने शक्तिसिंह जी के कार्यों से प्रसन्न होकर दुर्ग फिर से शक्तिसिंह जी को सौंप दिया और कहा कि “इस दुर्ग में हमारी सभी माताओं और बहनों को रखा जाए तथा उनकी सुरक्षा का दायित्व आपका और वीरमदेव (शक्तिसिंह जी के छोटे भाई) का होगा”
इन दोनों भाईयों ने पन्द्रह वर्षों तक राजपरिवार की महिलाओं की सुरक्षा की और किसी भी सदस्य पर आँच तक न आने दी। दशोर (वर्तमान में मन्दसौर) के मिर्जा बहादुर ने भीण्डर पर आक्रमण किया।
इस समय भीण्डर की जागीर हल्दीघाटी युद्ध में वीरगति पाने वाले मानसिंह जी सोनगरा (महाराणा प्रताप के मामा) के पुत्र अमरसिंह जी सोनगरा के पास थी। अमरसिंह जी सोनगरा ने शक्तिसिंह जी से सहायता मांगी, तो शक्तिसिंह जी ने मिर्जा बहादुर को पराजित कर भीण्डर की रक्षा की।
इस बात से महाराणा प्रताप काफी प्रसन्न हुए और उन्होंने शक्तिसिंह जी को तुरन्त बुलावा भिजवाया और अमरसिंह जी सोनगरा को कोई दूसरी जागीर देकर भीण्डर की जागीर शक्तिसिंह जी को दी, जहां आज तक शक्तिसिंह जी के वंशज रहते हैं।
साथ ही साथ महाराणा प्रताप ने शक्तिसिंह जी को बेगूं की जागीर भी प्रदान की। चावण्ड बसाने के बाद महाराणा प्रताप ने सूरत के मुगल सूबेदार से युद्ध किया था। इस युद्ध में शक्तिसिंह जी अपने पुत्रों सहित महाराणा प्रताप के साथ रहे।
बीमारी के चलते महाराज शक्तिसिंह जी का देहान्त 1594 ई. में 54 वर्ष की आयु में महाराणा प्रताप की मौजूदगी में हुआ। भैंसरोडगढ़ में महाराज शक्तिसिंह की 8 खम्भों की छतरी विद्यमान है।
शक्तिसिंह जी के 17 पुत्र हुए, जिनमें से 11-12 पुत्र महाराणा अमरसिंह जी के शासनकाल में हुए ऊँठाळा के भीषण युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। महाराज शक्तिसिंह जी के वंशज शक्तावत कहलाए।
इस तरह महाराज शक्तिसिंह जी ने मेवाड़ के संघर्ष में अपना अमूल्य योगदान दिया, लेकिन इतिहास के पन्नो पर उनका नाम आज भी विश्वासघात के लिए लिया जाता है, जो कि सर्वथा अनुचित है।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (मेवाड़)
आप का हार्दिक अभिनन्दन। शक्ति सिंह जी की वीरता का वर्णन पढ कर गौरव महसूस हुआ। 🙏🙏 जय राजपूताना
Kya Akbar ne udaipur jit neke bad waha bhi katleam
Kiya tha kya?
Thank you sir ❤️
Ab hum chahte hai ki Rathore Dynasty ki history ke Blog dalna shuru kare !
Jai marana shakti Singh ji sat sat naman
आप एक नेक कार्य कर रहे हो, मेरे प्यारे देश भक्त भगवान आपको लंबी उम्र प्रदान करे।