भामाशाह जी का नाम इतिहास में सदा-सदा के लिए अमर हो चुका है। आज इस लेख में न केवल भामाशाह, बल्कि उनके पिता, भाई व अगली 2 पीढ़ियों की जानकारी भी दी जा रही है।
भामाशाह कावड़िया गोत्र के ओसवाल जाति के महाजन भारमल के पुत्र थे। महाराणा सांगा ने भारमल को रणथंभौर का किलेदार नियुक्त किया था। फिर जब मेवाड़ की गद्दी पर महाराणा उदयसिंह बिराजे, तब उन्होंने रणथंभौर की किलेदारी राव सुर्जन हाड़ा को सौंप दी।
हालांकि इस समय भी भारमल कावड़िया को कई जिम्मेदारियां सौंपी गई थी। कुछ समय बाद महाराणा उदयसिंह ने भारमल जी को अपने यहां चित्तौड़गढ़ बुला लिया और एक लाख की आमदनी वाली जागीर दे दी।
1547 ई. में भामाशाह कावड़िया का जन्म हुआ। भामाशाह चित्तौड़गढ़ दुर्ग में ही रहा करते थे, जहां इनकी हवेली आज भी मौजूद है। 1572 ई. में जब महाराणा प्रताप गद्दी पर बिराजे, तब उन्होंने भामाशाह पर बहुत अधिक विश्वास जताया।
1576 ई. में भामाशाह ने अपने भाई ताराचंद के साथ हल्दीघाटी के प्रसिद्ध युद्ध में अपनी तलवारों से कई मुगलों का संहार किया था।
हल्दीघाटी युद्ध के बाद जब महाराणा प्रताप छापामार युद्ध लड़ रहे थे, तब 1578 ई. में आर्थिक कमी के समय महाराणा ने भामाशाह को योग्य समझकर उन्हें एक सैनिक टुकड़ी के साथ मालवा भेजा।
भामाशाह ने मालवा के मुगल अधीनस्थ इलाकों को लूटकर 25 लाख रुपए व 20 हज़ार अशर्फियां ईडर के निकट चूलिया गांव में महाराणा प्रताप को भेंट की।
महाराणा प्रताप ने रामा महासहानी के स्थान पर भामाशाह को मेवाड़ का प्रधानमंत्री बना दिया। महाराणा प्रताप द्वारा जो भी ताम्रपत्र जारी किए जाते थे, वे भामाशाह ही लिखते थे।
एक बार मालवा में भामाशाह की मुलाकात अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना से हुई। रहीम ने कहा कि “महाराणा प्रताप को अब मुगल अधीनता स्वीकार कर लेनी चाहिए।” तब भामाशाह ने कहा कि “ऐसा कभी नहीं होगा”।
1582 ई. में हुए दिवेर के युद्ध में भामाशाह ने बड़ी वीरता दिखाई थी। महाराणा प्रताप के समय मेवाड़ का राजकोष किसी एक जगह नहीं रखा जाता था, बल्कि पहाड़ी इलाकों में अलग-अलग जगह सुरक्षित रखा जाता था और इन सभी स्थानों की जानकारी भामाशाह अपनी बही में लिखते थे।
1597 ई. में महाराणा प्रताप के देहांत के बाद भामाशाह की तबियत भी खराब रहने लगी। बीमारी के कारण भामाशाह ने अपना अंतिम समय निकट जानकर अपनी पत्नी को बही देते हुए कहा कि “यह बही मेवाड़ के लिए बहुमूल्य है, इसे महाराणा अमरसिंह जी को सौंप देना।”
16 जनवरी, 1600 ई. को भामाशाह का देहांत हो गया। उनका अंतिम संस्कार महाराणा अमरसिंह ने करवाया। भामाशाह की पत्नी ने वह बही महाराणा अमरसिंह को सौंप दी।
फिर महाराणा ने भामाशाह के पुत्र जीवाशाह को मेवाड़ का प्रधानमंत्री घोषित किया। 15 वर्षों तक जीवाशाह ने वही भूमिका निभाई, जो भामाशाह ने महाराणा प्रताप के समय निभाई थी।
1615 ई. में महाराणा अमरसिंह व जहांगीर के बीच सन्धि हुई, उस समय जीवाशाह भी कुँवर कर्णसिंह के साथ अजमेर गए थे। जीवाशाह के देहांत के बाद महाराणा कर्णसिंह ने जीवाशाह के पुत्र अक्षयराज को मेवाड़ का प्रधानमंत्री घोषित किया।
बाद में एक रिवाज बन गया कि जब भी महाजनों में समस्त जाति-समुदाय का भोजन आदि होता, तो सबसे पहले भामाशाह के मुख्य वंशधर को तिलक लगाया जाता था। परन्तु बाद में महाजनों ने यह रिवाज बन्द कर दिया।
19वीं सदी में महाराणा स्वरूपसिंह ने भामाशाह जी के महान कार्यों को याद करते हुए यह आदेश जारी किया कि महाजनों में सामूहिक भोज व सिंहपूजा के पहले भामाशाह के मुख्य वंशधर को तिलक लगाया जावे।
1856 ई. में इस विषय का एक परवाना महाराणा स्वरूपसिंह ने जयचंद कुनणा वीरचन्द कावड़िया के नाम कर दिया। महाजनों ने कुछ वर्षों तक महाराणा की आज्ञा का पालन किया, परन्तु फिर से भामाशाह के मुख्य वंशधर को तिलक लगाना बन्द कर दिया।
1895 ई. में महाराणा फतहसिंह ने पुनः महाजनों को आदेश दिया कि भामाशाह के मुख्य वंशधर को तिलक लगाना शुरू किया जावे। भामाशाह के भाई ताराचंद भी काफी वीर थे। उन्होंने हल्दीघाटी युद्ध में भी भाग लिया।
एक बार अकबर के सेनापति शाहबाज़ खां ने मालवा में ताराचंद को घेर लिया, तब बसी के निकट ताराचंद ज़ख्मी हो गए। बसी के स्वामी देवड़ा साईदास ने उनका उपचार करवाया।
महाराणा प्रताप को पता चला, तो वे स्वयं मालवा गए और मालवा की शाही चौकियों को ध्वस्त करते हुए ताराचंद को सुरक्षित मेवाड़ ले आए। ताराचंद गोडवाड़ के हाकिम रहे थे। उन्होंने सादड़ी में एक बारादरी और एक बावड़ी का निर्माण करवाया।
बावड़ी के निकट ही ताराचंद, उनकी 4 पत्नियां, एक खवास, 6 गायनियाँ, एक गवैये और उस गवैये की पत्नी की मूर्तियां खुदी हुई हैं।
भामाशाह, उनकी पत्नी, भाई, पिता व अगली 3 पीढियां, यह समस्त घराना ही मेवाड़ के प्रति सदा कर्तव्यनिष्ठ रहा। जब तक वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप का नाम याद रखा जाएगा, तब तक भामाशाह का नाम भी आंखों के सामने आता रहेगा।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
Excellent post congratulations
बहुत अच्छी इतिहास की जानकारी प्रेषित करने का सराहनीय कार्य किया है उसके लिए आपका आभार व्यक्त करता हूँ