राजपूतों के युद्ध नियम

राजपूतों के युद्ध नियम :- राजपूतों के इतिहास की बात आते ही आंखों के सामने आ जाते हैं उनके नियम, उसूल। कई बार इन्हीं उसूलों के कारण उन्हें समस्याओं का सामना करना पड़ा,

परन्तु फिर भी उन्होंने अपने इन उसूलों को महान आदर्शों का दर्जा देकर इनका अस्तित्व बनाए रखा। हालांकि ऐसा नहीं है कि इन नियमों का कभी उल्लंघन न हुआ हो।

अपवाद सर्वत्र हैं, परन्तु फिर भी राजपूतों ने जहां तक सम्भव हो सका इन नियमों की पालना की। बाद में 16वीं-17वीं सदी से इन उसूलों में कमी देखी गई।

राजपूत युद्ध में विषैले व आंकड़ेदार तीरों का प्रयोग नहीं करते थे। रथी से रथी, हाथी से हाथी, घुड़सवार से घुड़सवार व पैदल से पैदल लड़ते थे। हालांकि यदि कोई घुड़सवार आगे होकर हाथी से लड़ना चाहे, तो वह लड़ सकता था।

युद्धरत जयमल-कल्ला जी

सूर्योदय से पहले और सूर्यास्त के बाद युद्ध नहीं होते थे। तराइन के दूसरे युद्ध में सम्राट पृथ्वीराज चौहान की सेना की पराजय का मुख्य कारण यही था।

जब सम्राट की बहुत सी सेना को नींद से जागे हुए कुछ ही समय हुआ था कि तभी मोहम्मद गौरी ने सूर्योदय से पहले ही अचानक आक्रमण कर दिया। वह शुरुआती आक्रमण था, इसलिए राजपूत बाहरी आक्रांताओं की इन चालों से अनभिज्ञ थे।

राजपूत कभी भी भयभीत, पराजित व भागने वाले शत्रु पर वार नहीं करते थे। यह नियम खुले में लड़ने वाले युद्धों के लिए था, छापामार युद्धों में इन नियमों का प्रयोग नहीं किया जाता था।

शत्रु का शस्त्र टूट जाए, धनुष की प्रत्यंचा टूट जाए, कवच निकल पड़े या उसका वाहन नष्ट हो जाए, तो उस पर वार नहीं किया जाता था। इसी तरह सोते हुए, थके हुए, प्यासे, भोजन या जलपान करते हुए शत्रु पर वार नहीं किया जाता था।

युद्धों के समय राजपूत शासक प्रजा की सुरक्षा का पूरा ध्यान रखते थे। लेकिन जब शत्रु भारी संख्या में किले की घेराबंदी के लिए आते थे, तब राजपूतों के पास प्रजा को बचाने का एक ही तरीका होता था कि उन्हें दुर्ग में शरण दी जाए।

यदि शरण ना दी जाए, तो प्रजा निश्चित रूप से मारी जाती और शरण दी जाए, तो तभी मारी जाती जब बाहरी आक्रांता गढ़ जीत लेता। लेकिन फिर भी हज़ारों की संख्या में लोगों को गढ़ में शरण देना, उन्हें रसद उपलब्ध करवाना मामूली बात नहीं होती थी।

प्रजा को शरण देने से घेराबंदी कम समय तक चलती थी, क्योंकि किले में रसद सामग्री शीघ्र समाप्त हो जाती थी। फिर भी राजपूत इस बात की परवाह नहीं करते थे और जब रसद समाप्त हो जाती, तो खुद ही किले के द्वार खोलकर लड़ाई लड़ते थे।

युद्ध में जो शत्रु घायलावस्था में कैद किए जाते, उनका इलाज करवाकर उन्हें छोड़ दिया जाता था। जैसे महाराणा सांगा ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी के ज़ख्मी बेटे व मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी द्वितीय को कैद करके मरहम पट्टी करवाकर छोड़ दिया था।

शरणागत रक्षा को निभाने के लिए राजपूत अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते थे। रणथंभौर के वीर हम्मीर देव चौहान ने अलाउद्दीन खिलजी से बग़ावत करके भागे हुए 2 बागियों को शरण दी थी,

जिनके बदले में उन्होंने रणथंभौर के सभी राजपूतों समेत प्राणों का बलिदान दिया व राजपूतानियों को जौहर करना पड़ा।

जब भी दो राजपूत शासकों के बीच युद्ध हुए, तब पराजित पक्ष की स्त्रियों को जौहर जैसी परिस्थिति से नहीं गुज़रना पड़ा, क्योंकि राजपूत पराजित पक्ष की स्त्रियों का भी सम्मान करते थे।

उदाहरण के तौर पर सिरोही के राव सुरताण देवड़ा ने कल्ला को पराजित करके उनकी स्त्रियों को सम्मान सहित उन तक भिजवा दिया।

महाराणा प्रताप ने तो शत्रु पक्ष के सेनापति अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना की बेगमों को सम्मान सहित रहीम तक भिजवा दिया था। जबकि अकबर के आक्रमण के कारण चित्तौड़गढ़ में जौहर हुआ था।

हल्दीघाटी युद्ध से पहले राजा मानसिंह कछवाहा शिकार पर निकले थे और महाराणा प्रताप के शिविर के काफी नजदीक आ गए थे, जिसकी सूचना महाराणा के गुप्तचर ने उन तक पहुंचाई।

उस समय राजा मानसिंह के साथ केवल एक हज़ार घुड़सवार थे। लेकिन राजा मानसिंह पर आक्रमण नहीं किया गया।

राजपूतों में केसरिया का विशेष महत्व रहा है। यदि किसी युद्ध में राजपूत वीर केसरिया धारण कर लेते, तो उसका अर्थ होता था “विजय या वीरगति”। अर्थात पराजित होकर नहीं लौट सकते थे।

अक्सर केसरिया उन युद्धों में किया जाता था, जिनमें जीतने की संभावना बहुत कम हो, जैसे बड़ी सेना द्वारा किसी किले की घेराबंदी कर दी जाए, तो ऐसी परिस्थिति में राजपूतों का लक्ष्य शत्रु का अधिक से अधिक नुकसान करने का रहता था।

राजपूत अपने वचन के पक्के होते थे। कई बार तो ऐसे अवसर भी आए हैं जब किसी एक राजपूत के वचन ने परंपरा का रूप ले लिया हो।

कई बार राजपूत किसी विशेष शत्रु से प्रतिशोध लेने के लिए पगड़ी की जगह फैंटा बांध लिया करते थे और प्रण लेते थे कि जब तक शत्रु को न मार दूं, तब तक पगड़ी धारण नहीं करूंगा।

कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा है कि “यदि स्त्री के प्रति पुरुष की भक्ति और उसके सम्मान को कसौटी माना जाए, तो एक राजपूत का स्थान सबसे श्रेष्ठ माना जाएगा। वह स्त्री के प्रति किए गए असम्मान को कभी सहन नहीं कर

सकता और यदि इस प्रकार का संयोग उपस्थित हो जाए, तो वह अपने प्राणों का बलिदान देना अपना कर्तव्य समझता है। जिन उदाहरणों से इस प्रकार का निर्णय करना पड़ता है, उससे राजपूतों का सम्पूर्ण इतिहास ओतप्रोत है।”

लेनपूल लिखता है कि “राजपूतों की शूरवीरता और प्रतिष्ठा के स्वभाव, उन्हें साहस और बलिदान के लिए इतना उत्तेजित करते थे कि जिनका बाबर के अर्ध-सभ्य सिपाहियों की समझ में आना भी कठिन था”

जोधपुर के संस्थापक राव जोधाजी राठौड़

फ़ारसी तवारीख बादशाहनामा में लिखा है कि “बड़ी-बड़ी लड़ाइयों में जहां अच्छे-अच्छे बहादुरों के चेहरे का रंग फ़ीका पड़ जाता था, वहां राजपूत हरावल में रहकर लड़ाई का रंग जमा देते थे।”

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

4 Comments

  1. Ganesh Singh
    May 14, 2022 / 2:07 pm

    Aap ne bahut Achcha likha fir v rajputo ke bare me koi v itiharkar pura nahi likh sakta treta se kalyug tak rajputoki balidan mahan hai
    Garbh karo ki ham RAJPUT hai

  2. Narendra Singh
    May 14, 2022 / 2:12 pm

    Jay Rajputana🚩🚩

  3. Sharad Mishra
    May 15, 2022 / 5:43 pm

    राजपूतों ने हमेशा देश, धर्म की रक्षा का उत्तरदायित्व निभाया, नमन है उन्हे।

  4. Deepak Prajapat
    June 7, 2022 / 5:56 pm

    Very Good information,
    ham in sabhi se ab tak bahut door the.

    jai Rajputana….

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