17 मार्च, 1527 ई. – खानवा का युद्ध :- बाबर के भाई चीन तैमूर के हमले से राजपूतों के अग्रभाग और वाम पार्श्व में बहुत अंतर पड़ गया, जिसका फायदा उठाकर मुस्तफा ने राजपूतों पर तोपों से गोलों की बारिश शुरू कर दी।
तोपों के गोलों व बंदूकों की आवाजों ने राजपूतों के घोड़ों और हाथियों को भयभीत कर दिया। कुछ हाथी तो राजपूतों को ही कुचलते हुए भाग निकले। राजपूतों ने थोड़ा सम्भलकर फिर से मुगल सेना के एक भाग पर पुरज़ोर आक्रमण किया।
मुसलमानों ने तीर चलाए, जिससे कुछ राजपूत वीरगति को प्राप्त हुए। परन्तु राजपूतों का ये आक्रमण नहीं थमा और इस भाग में मौजूद कई मुगल मारे गए।
मुस्लिम अफसर अतका और रुस्तम तुर्कमान अपनी फौजी टुकड़ी सहित राजपूतों के भाग पर पीछे की तरफ गए और वहां से हमला किया।
राजपूतों ने इस हमले का भी करारा जवाब दिया, जिसके बाद बाबर को इस भाग में फंसे मुसलमान सैनिकों की मदद ख़ातिर निजामुद्दीन अली ख़लीफ़ा के अधीनस्थ अफसर मुल्ला महमूद और अली अतका बासलीक को भेजना पड़ा।
बाबर द्वारा भेजी गई यह फौजी टुकड़ी भी राजपूतों पर काबू पाने में नाकाम रही, जिसके बाद बाबर ने ख्वाजा हुसैन वज़ीर को फौजी टुकड़ी सहित भेजा। हुसैन वज़ीर की सैनिक टुकड़ी कुछ समय के लिए टिकी रही।
महाराणा सांगा को युद्धभूमि से दूर ले जाना :- महाराणा सांगा हाथी पर बैैठकर युद्ध लड़ रहे थे। युद्ध का घटनाक्रम उस समय बदल गया जब एक सख्त तीर महाराणा के सिर पर लगा, जिससे वे बेहोश हो गए।
सरदारों ने देखा, तो विचार किया कि महाराणा को युद्धभूमि से बाहर ले जाया जाए, इसलिए महाराणा को हाथी से उतार दिया गया। महाराणा के युद्धभूमि में न होने की बात यदि सेना को पता चलती, तो उनमें हताशा की भावना आ जाती।
इसलिए सरदारों ने रावत चुंडा के वंशज रावत रतनसिंह चुंडावत को महाराणा के हाथी पर सवार होने को कहा, पर रावत रतनसिंह ने ये कहते हुए मना कर दिया कि
“मेरे पूर्वज रावत चुंडा ने राज्य त्याग दिया था, इसलिए मैं किसी भी परिस्थिति में महाराणा का स्थान नहीं ले सकता, लेकिन इतना वादा करता हूँ, कि जो कोई भी यहां बैठेगा उसकी रक्षा के लिए मैं तत्पर रहूंगा”
हलवद के झाला अज्जा महाराणा के छत्र-चंवर वगैरह धारण कर हाथी पर बैठकर युद्ध लड़ने लगे। झाला अज्जा के भाई सज्जा, आमेर नरेश पृथ्वीराज कछवाहा व कुछ और सर्दार महाराणा सांगा को युद्धभूमि से दूर ले गए।
डॉ. ओझा ने लिखा है कि महाराणा सांगा ने हाथी पर बैठकर भूल की, क्योंकि इससे शत्रु के लिए निशाना लगाना आसान हो जाता है। ओझा जी की बात सही है, परन्तु मेरे विचार से महाराणा सांगा का एक पैर काम नहीं करता था, ऐसी स्थिति में सम्भवतः घोड़े पर बैठने में दिक्कत होती होगी।
वरना जब हम महाराणा सांगा की शुरुआती लड़ाइयों का वर्णन पढ़ते हैं, तो उनमें महाराणा सांगा घोड़े पर बैठकर ही लड़ने जाते थे, जैसे गयासुद्दीन खिलजी के आक्रमण के समय लड़ने गए थे।
तुलुगमा पद्दति का प्रयोग :- तुलुगमा पद्दति का प्रयोग करने के लिए बाबर ने अपनी सेना के 2 भाग दाएं और बाएं जमा रखे थे। बाई तरफ वाली सेना का नेतृत्व मुमीन आताक और रूस्तम तुर्कमान ने किया।
दाई तरफ वाली सेना का नेतृत्व तर्दीक, मलिक कासिम व बाबा कश्का ने किया। इन सेनाओं को ‘घेरा डालने वाली सेना’ कहा जाता था। बाबर ने घेरा डालने वाली दोनों सेनाओं को हमले का हुक्म दिया और साथ ही उस्ताद अली को भी तोपों से गोले दागने का हुक्म दिया।
तोपों की मार से राजपूतों की सेना की हरावल कमजोर पड़ गई। राजपूतों की हरावल कमजोर पड़ने के कारण वहां मौजूद अतिरिक्त मुगल फ़ौज का बाबर ने तरीके से उपयोग किया।
बाबर ने अपनी फ़ौज की हरावल, चन्दावल, वाम पार्श्व व दक्षिण पार्श्व की सेनाओं को घेरा डालने वाली दोनों सेनाओं के साथ मिला दिया। साथ ही तोपखाने को भी घेरा डालने वाली सेना के साथ मिला लिया।
तोपों को दाएं और बाएं दोनों तरफ़ से आगे बढ़ाया गया। इन तोपों के पीछे-पीछे बन्दूकचियों को चलाया गया। जो राजपूत मुगलों से लड़ रहे थे, अब उन पर दोनों तरफ़ से तोपों के गोलों और बंदूकों की गोलियों की बौछार होने लगी।
राजपूतों द्वारा खानवा की लड़ाई में विजय का अंतिम प्रयास :- जब हर तरफ से राजपूतों को घेर लिया गया और तोपों व बंदूकों से हज़ारों राजपूत वीरगति को प्राप्त हो गए, तो राजपूतों में गड़बड़ी फैल गई। कई राजपूतों ने हरावल की तरफ जाने की कोशिश की। लेकिन फिर नेतृत्वकर्ता ने राजपूतों को सम्भाला।
राजपूतों ने अपनी पुरज़ोर ताकत से मुगलों के दक्षिण पार्श्व और वाम पार्श्व पर एक साथ आक्रमण किया और मुगलों को चीरते हुए मध्यभाग में खड़े बाबर की फ़ौजी टुकड़ी के करीब पहुंच गए।
बाबर ने राजपूतों को तेजी से अपनी तरफ आते देखा, तो सामने से उन पर तोपों से कई गोले दागे, जिससे हज़ारों राजपूत वीरगति को प्राप्त हुए। इस युगपरिवर्तनकारी युद्ध में महाराणा सांगा के नेतृत्व में राजपूतों की सेना परास्त हुई।
अगले भाग में वीरगति पाने वाले योद्धाओं व सलहदी तंवर की भूमिका के बारे में लिखा जाएगा। पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
आप को बहुत बहुत धन्यवाद भाई।सार्थक व सत्य जानकारी हेतु।