मेवाड़ के महाराणा सांगा (भाग – 2)

कुँवर संग्रामसिंह का चित्तौड़गढ़ आगमन :- कुंवर पृथ्वीराज व कुंवर जयमल के देहान्त के बाद महाराणा रायमल ने अपने चौथे पुत्र जैसा (जयसिंह) को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।

लेकिन जब उन्हें मालूम पड़ा कि कुँवर संग्रामसिंह जीवित हैं और इस वक़्त श्रीनगर में हैं, तो महाराणा ने तुरंत उन्हें बुलावा भिजवाया। ठाकुर कर्मचंद कुँवर संग्रामसिंह को लेकर महाराणा रायमल के सामने हाजिर हुए, तो महाराणा बहुत प्रसन्न हुए।

महाराणा ने ठाकुर कर्मचंद को जागीरें वग़ैरह देकर प्रसन्न किया। वर्तमान में मेवाड़ के सामन्तों की द्वितीय श्रेणी के 32 ठिकानों में से एक बंबोरी का ठिकाना इन्हीं ठाकुर कर्मचंद के वंशजों का ठिकाना है।

24 मई, 1509 ई. – महाराणा सांगा का राज्याभिषेक :- कुंवर संग्रामसिंह महाराणा सांगा के नाम से मशहूर हुए। महाराणा सांगा के राज्याभिषेक के समय दिल्ली पर सुल्तान सिकन्दर लोदी, गुजरात पर महमूद बेगड़ा और मालवा पर नासिरशाह खिलजी का राज था।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग

महाराणा सांगा का व्यक्तित्व :- महाराणा सांगा का कद मंझला, चेहरा मोटा, बड़ी आँखें, लम्बे हाथ व गेहुआँ रंग था। दिल के बड़े मजबूत थे व युद्धों में लड़ने के शौकीन ऐसे कि जहां सिर्फ अपनी फौज भेजकर काम चलाया जा सकता हो, वहां भी खुद लड़ने जाया करते थे।

80 जख्मों से मशहूर हुए, हालांकि ग्रन्थों में 84 जख्म दर्ज हैं। इन घावों में से एक आँख कुंवर पृथ्वीराज ने फोड़ी जिसका जिक्र महाराणा रायमल के इतिहास में किया जा चुका है।

महाराणा सांगा उदार व शरणागत रक्षक थे। बहुत से हिन्दू राजा, सरदार, मुस्लिम सिपहसालार, शहज़ादे आदि आपत्ति के समय महाराणा सांगा की शरण लेते थे। इन महाराणा ने निर्माण कार्यों व साहित्य में कम रुचि दिखाई। इनका अधिकतर समय युद्धों में ही बीता।

1510 ई. – ठाकुर कर्मचंद को जागीर देना :- महाराणा संग्रामसिंह पर ठाकुर कर्मचंद के बड़े उपकार थे, क्योंकि ठाकुर कर्मचंद ने उनको मुश्किल दिनों में शरण दी थी।

महाराणा रायमल ने ठाकुर कर्मचंद को जागीर दी थी, परन्तु महाराणा सांगा ने विचार किया कि यह जागीर ठाकुर कर्मचंद के सहयोग की तुलना में काफ़ी कम है।

महाराणा सांगा ने राजगद्दी पर बैठते ही श्रीनगर के ठाकुर कर्मचन्द पंवार को अजमेर, परबतसर, मांडल, फूलिया, बनेड़ा आदि जागीरें दीं, जिनकी कुल वार्षिक आय 15 लाख थी।

महाराणा ने ठाकुर कर्मचंद को ‘रावत’ की पदवी भी दी। ठाकुर कर्मचंद ने अपना नाम चिरस्थायी रखने के लिए इन परगनों में से बहुत से गांव ब्राम्हण, चारण आदि को दान में दे दिए।

महाराणा सांगा

रावत सारंगदेव के उपकार :- महाराणा सांगा के कुँवरपदे काल में 2 बार रावत सारंगदेव ने उनके प्राण बचाए थे। अपने स्वर्गीय काका सारंगदेव के इन उपकारों को याद करके महाराणा सांगा ने रावत सारंगदेव के पुत्र रावत जोगा को बुलवाया।

महाराणा सांगा ने रावत जोगा को मेवल परगने में कुछ और गांव दिए और यह आदेश दिया कि अब से सारंगदेव जी के वंशज सारंगदेवोत कहलाएंगे। इन घटनाओं से मालूम पड़ता है कि महाराणा सांगा अपने ऊपर किए गए उपकारों को सदा याद रखते थे।

1515 ई. – महाराणा सांगा द्वारा ईडर के रायमल को उनका हक़ दिलाना :- ईडर के राव भाण राठौड़ के 2 पुत्र थे सूर्यमल व भीमसिंह। राव भाण के देहांत के बाद सूर्यमल गद्दी पर बैठे। डेढ़ वर्ष तक राज करने के बाद सूर्यमल का देहांत हो गया।

फिर सूर्यमल के पुत्र रायमल ईडर की गद्दी पर बैठे, लेकिन रायमल की उम्र कम होने के कारण उनके काका भीमसिंह ने गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर की मदद लेकर रायमल को गद्दी से बर्खास्त किया और खुद गद्दी पर बैठ गए। रायमल ने मेवाड़ आकर महाराणा सांगा की शरण ली।

महाराणा सांगा ने रायमल को मदद देने का आश्वासन दिया और अपनी पुत्री की सगाई रायमल से करवा दी। कुछ दिन बाद भीमसिंह का देहांत हो गया। भीमसिंह के बाद उनके पुत्र भारमल ईडर की गद्दी पर बैठे।

जब रायमल युवा हुए, तो महाराणा सांगा ने भारमल को ईडर की गद्दी से खारिज करके रायमल को ईडर का राज दिलवा दिया। इस प्रकार महाराणा सांगा ने ईडर के वास्तविक उत्तराधिकारी को उनका हक दिलाया।

ऋषभदेव मंदिर में कार्य :- महाराणा सांगा के शासनकाल में अप्रैल, 1515 ई. में काष्टासंघ के अनुयायी काछलू गौत्र के कड़िया पोइया और उनके पुत्र हांसा ने उदयपुर के धूलेव गांव में स्थित ऋषभदेव मंदिर में मंडप व नौचौकी का निर्माण करवाया।

ऋषभदेव मन्दिर

चित्तौड़गढ़ का शिलालेख :- 1517 ई. में महाराणा सांगा ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग में एक शिलालेख खुदवाया। इस शिलालेख के अनुसार महाराणा सांगा ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग में स्थित कालिका माता मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। यह कार्य करने वाले 36 शिल्पियों के नाम भी दिए गए हैं।

जैन मंदिर :- महाराणा सांगा के शासनकाल में 1516 ई. में लिखे गए जैन ग्रंथ ‘जयचंद्रचैत्य परिपाटी’ के अनुसार उस समय चित्तौड़गढ़ दुर्ग में 32 जैन मंदिर थे।

इन 32 मंदिरों में श्रेयांसनाथ, आदिनाथ, सोमनाथ चिंतामणि पार्श्व, चन्द्रप्रभ चौमुख, पार्श्वनाथ, सुमतिनाथ, वीरविहार, जैन कीर्तिस्तम्भ, शांति खरतरवसही, शांति लीलावसही, मुनि सुव्रत, अजित सरसावसही, शीतल आदि जैन मंदिर उस समय विद्यमान थे।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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