मेवाड़ के महाराणा सांगा (भाग 1)

महाराणा संग्रामसिंह (राणा सांगा) का परिचय :- महाराणाा सांगा का जन्म 12 अप्रैल, 1482 ई. को हुआ। इनके पिता महाराणा रायमल थे व माता महारानी रतन कंवर थीं, जो कि ये गुजरात में हलवद के 24वें राज साहिब राजधरजी की पुत्री थीं।

उपनाम व उपाधियां :- महाराणा सांगा राजपूताने केे अंतिम नेतृत्वकर्ता थे। कई ज़ख्मों की वजह से इनको मानवों का खण्डहर कहा जाता है।

कर्नल जेम्स टॉड ने महाराणा सांगा को सैनिकों का भग्नावेश सिपाही का अंश कहा। महाराणा सांगा ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को परास्त करने के बाद हिन्दुपत की उपाधि धारण की।

महाराणा सांगा का कुँवरपदे काल :- कुँवर संग्रामसिंह का संघर्ष अपने दोनों बड़े भाई कुँवर पृथ्वीराज व कुँवर जयमल से हुआ। कुँवर पृथ्वीराज व कुँवर संग्रामसिंह के बीच हुई लड़ाई में संग्रामसिंह बुरी तरह घायल हो गए, तब कानोड़ वालों के पूर्वज रावत सारंगदेव ने संग्रामसिंह के प्राणों की रक्षा की।

कुँवर संग्रामसिंह

कुँवर संग्रामसिंह सेवन्त्री गांव में पहुंचे, जहां राठौड़ बीदा जैतमालोत रूपनारायण जी के दर्शन हेतु वहां आए हुए थे। बीदा जी ने कुँवर को लहूलुहान देखकर घोड़े से नीचे उतारा और उनके घावों पर पट्टियां बांधी।

कुँवर संग्रामसिंह को ढूंढते हुए कुँवर जयमल वहां आ पहुंचे, तो बीदा जी ने संग्रामसिंह को घोड़े पर सवार करके गोडवाड़ की तरफ रवाना किया और स्वयं अपने भाई रायपाल सहित लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।

यहां स्थित रूपनारायण मंदिर की परिक्रमा में राठौड़ बीदा की छतरी बनी हुई है, जिसमें 3 स्मारक पत्थर खड़े हैं। यह घटना 1504 ई. की है। इस समय कुँवर संग्रामसिंह की आयु 22 वर्ष थी।

सेवन्त्री गांव से कुँवर संग्रामसिंह गोडवाड़ चले गए, जहां वे एक गडरिये के यहां कुछ दिन रहे और फिर वहां से अजमेर के निकट श्रीनगर के ठाकुर कर्मचंद पंवार के यहां चले गए।

ग्रंथ वीरविनोद के अनुसार ठाकुर कर्मचंद लुटेरों का एक गिरोह चलाते थे। ठाकुर कर्मचंद की फ़ौज में 3 हजार घुड़सवार थे, जिनमें कुँवर संग्रामसिंह भी अपनी पहचान छिपाकर शामिल हो गए।

सेवन्त्री गांव में स्थित बीदा राठौड़ की छतरी

कुँवर संग्रामसिंह ने अपने ज़ेवर बेचकर एक घोड़ा खरीद लिया। कुंवर संग्रामसिंह ने अपनी पहचान छिपाकर आम सैनिक की हैसियत से करमचन्द पंवार के यहां रहना शुरु किया।

एक दिन ठाकुर कर्मचंद फौज समेत किसी जगह लूट करके वापिस लौट रहे थे, तब एक जंगल में विश्राम करने के लिए रुक गए। कुंवर संग्रामसिंह बड़ के पेड़ के नीचे घोड़ा बांधकर सो रहे थे, तभी एक साँप ने कुंवर को धूप से बचाने के लिए उनके ऊपर फन से छाया कर दी।

ये दृश्य ठाकुर कर्मचंद के साथी राजपूतों में से जयसिंह बालेचा और जामा सींधल ने देखा तो हैरान रह गए। ये दोनों ठाकुर कर्मचंद को भी बुला लाए। ये नज़ारा जब ठाकुर कर्मचन्द ने देखा, तो उन्होंने कुंवर संग्रामसिंह से उनका परिचय पूछा।

कुँवर संग्रामसिंह ने कहा कि “मैं सिसोदिया राजपूत हूँ और संग्रामसिंह मेरा नाम है। आपको मेरे बारे में इससे ज्यादा जानने की जरूरत नहीं होनी चाहिए”

ठाकुर कर्मचंद समझ गए कि ये अवश्य ही महाराणा रायमल के पुत्र कुँवर संग्रामसिंह हैं, जिनका बहुत दिनों से कोई अता-पता नहीं है। ठाकुर कर्मचंद ने कहा कि

“हम जानते हैं कि आप महाराणा रायमल के पुत्र हैं। हम भी राजपूत हैं, आपको हमसे पहचान छुपाने की आवश्यकता नहीं है। अगर कुँवर पृथ्वीराज आपको मारने के लिए आवेंगे तो हम सैंकड़ों राजपूत आपके ख़ातिर मर मिटेंगे”

यह सुनकर कुँवर संग्रामसिंह ने भी असलियत बता दी। फिर ठाकुर कर्मचंद कुँवर संग्रामसिंह को श्रीनगर लेकर आए और अपनी पुत्री का विवाह उनसे करवा दिया।

यह ख़बर कुँवर पृथ्वीराज को मिली, तो उन्होंने श्रीनगर पर चढ़ाई करने का फ़ैसला कर लिया, पर इन्हीं दिनों उन्हें ख़बर मिली कि उनकी बहन को उनके पति सिरोही के जगमाल देवड़ा तकलीफ़ देते हैं, तो कुँवर पृथ्वीराज सिरोही गए।

यहां उन्हें विष दे दिया गया, जिसका असर कुंभलगढ़ आते वक़्त हुआ और वहीं उनका देहांत हो गया। कुँवर पृथ्वीराज का देहांत किस वर्ष हुआ यह ज्ञात नहीं, परन्तु उनके देहांत की सूचना मिलते ही कुँवर संग्रामसिंह चित्तौड़गढ़ के लिए रवाना हो गए थे, इस अनुमान से यह घटना 1509 ई. की ही होनी चाहिए।

इनसे कुछ समय पहले ही कुँवर जयमल की हत्या हो गई थी। यह विधि का विधान ही था कि मेवाड़ महाराणा रायमल के शीर्ष 2 पुत्रों की हत्या हो गई व तीसरे कुँवर संग्रामसिंह के कुँवरपदे काल में मरने के कई मौके आए, परन्तु उनके प्राण हर बार बच गए।

कुँवर संग्रामसिंह

ऐतिहासिक भ्रम :- कुँवर संग्रामसिंह के कुँवरपदे काल की एक घटना मुंशी देवीप्रसाद ने लिखी है, जिसमें कहा गया है कि कुँवर ने अपने मुश्किल दिनों में आमेर के राजा पृथ्वीराज के यहां पहरेदारी का काम किया।

यह घटना ऐतिहासिक रूप से सत्य नहीं है, क्योंकि अन्य ख्यातों से देखने पर मालूम पड़ता है कि यह घटना मेवाड़ के कुँवर सगरसिंह से सम्बंधित है, जो कि महाराणा उदयसिंह के पुत्र जगमाल का सगा भाई था।

सगरसिंह ने आमेर के राजा मानसिंह के यहां चाकरी की थी, जिसके बाद राजा मानसिंह सगरसिंह को अकबर के पास ले गए थे। सगरसिंह व संग्रामसिंह के नामों में कुछ समानता होने के कारण सम्भवतः मुंशी देवीप्रसाद से यह गलती हो गई होगी।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

1 Comment

  1. Vikash Kumar
    May 4, 2022 / 11:40 am

    M rajsthan bharatpur se hu m hm rajputo kaa naa to phle khoon kamjor tha naa aur naa hi aj h

error: Content is protected !!