कुँवर पृथ्वीराज का विवाह :- टोडा के राव सुल्तान सोलंकी ने अपनी पुुत्री ताराबाई का विवाह महाराणा रायमल के ज्येष्ठ कुँवर पृथ्वीराज से करवा दिया।
कुँवर पृथ्वीराज की टोडा व अजमेर पर विजय :- राव सुल्तान सोलंकी ने अपने दामाद कुंवर पृथ्वीराज से निवेदन किया कि “हमको हमारा टोडा का राज हमें फिर से दिलवा दीजिए”
कुंवर पृथ्वीराज ने 500 मेवाड़ी बहादुरों के साथ टोडा पर हमला किया और लल्ला खां पठान को मार कर कुंवर पृथ्वीराज ने टोडा का राज्य राव सुल्तान को सौंप दिया। इस लड़ाई के बाद यह कहावत प्रसिद्ध हो गई कि “भाग लला पृथ्वीराज आयो, सिंह के साथ श्याल ब्यायो।”
इस लड़ाई में आमेट के रावत सींहा चुण्डावत ने कुंवर पृथ्वीराज का साथ दिया था। इस लड़ाई में कुँवर पृथ्वीराज की पत्नी ताराबाई भी घोड़े पर सवार होकर बहादुरी से लड़ीं।
लल्ला खां पठान की मौत से खफ़ा होकर अजमेर के बादशाही सूबेदार मल्लू खां ने कुंवर पृथ्वीराज पर चढ़ाई करने का फैसला किया। ये खबर कुंवर पृथ्वीराज को मिली, तो वे खुद ही अजमेर चले गए।
अजमेर में हुई इस लड़ाई में मल्लू खां मारा गया और फतह का झंडा कुंवर पृथ्वीराज के हाथ रहा। कुँवर पृथ्वीराज ने अजमेर गढ़ पर विजय प्राप्त की। कुँवर पृथ्वीराज ने अजमेर दुर्ग में निर्माण कार्य करवाए व इस दुर्ग का नाम अपनी पत्नी के नाम पर तारागढ़ रखा।
रावत सूरजमल व रावत सारंगदेव :- रावत सूरजमल महाराणा कुंभा के भाई क्षेमकर्ण के पुत्र थे व प्रतापगढ़ वालों के पूर्वज थे। कानोड़ के रावत सारंगदेव महाराणा लाखा के पुत्र अज्जा के पुत्र थे।
रावत सारंगदेव महाराणा रायमल के पास पहुंचे और अपने हिस्से की जागीर मांगी, तो महाराणा ने भैंसरोड़गढ़ की जागीर दे दी।
इस बात से कुम्भलगढ़ में बैठे कुंवर पृथ्वीराज ने एक खत महाराणा को लिखा कि “हुज़ूर, आपने काकाजी को 5 लाख की जागीर दे दी। इसी तरह छोटों को जागीरें मिलती रहीं, तो आपके पास मेवाड़ का कुछ ही हिस्सा रह जाएगा”
भीमल गांव की घटना के कारण कुँवर पृथ्वीराज रावत सारंगदेव से बैर रखते थे। महाराणा रायमल ने भी कुंवर पृथ्वीराज को खत लिखा कि “अगर तुमको तकलीफ है, तो तुम सब आपस में ही सुलझ लो”
कुंवर पृथ्वीराज ने 2,000 की फौज लेकर भैंसरोडगढ़ पर चढ़ाई कर दी। गढ़ के दरवाज़े उस समय खुले थे, इसलिए कुँवर को अंदर दाख़िल होने में अधिक समय नहीं लगा। जो लड़ने को आये वे मारे गए और बचे-खुचों के शस्त्र छीन लिए गए।
रावत सारंगदेव बच निकले और इनकी पत्नी व बेटों को कुंवर पृथ्वीराज ने किले से निकाल दिया। इन दिनों रावत सूरजमल ने महाराणा का विरोध करते हुए मेवाड़ के कुछ हिस्से पर अधिकार कर लिया था, इससे रावत सूरजमल भी रावत सारंगदेव के सहयोगी हो गए।
अपनी ही जागीर में से रावत सारंगदेव को बेदखल कर दिया गया और उनके परिवार को बाहर निकाला गया, इस बात से रावत सारंगदेव बहुत नाराज़ हुए। रावत सूरजमल व रावत सारंगदेव ने मांडू के बादशाह नासिरुद्दीन खिलजी से मदद मांगी।
रावत सूरजमल व रावत सारंगदेव सुल्तान नासिरुद्दीन खिलजी की फौज के साथ रवाना हुए। दोनों रावत ने अपनी औरतों और बच्चों को सादड़ी में सुरक्षित रखा और ख़ुद खिलजी की फ़ौज के साथ चित्तौड़गढ़ की तरफ रवाना हुए।
महाराणा रायमल भी मेवाड़ी फौज के साथ मुकाबले के लिए किले से बाहर आए। गम्भीरी नदी के किनारे दोनों फौजों में मुकाबला हुआ। इस समय महाराणा रायमल की सेना अधिक नहीं थी।
महाराणा रायमल को 22 घाव लगे व उनकी हार करीब थी, कि तभी कुंवर पृथ्वीराज अपनी उड़न चाल से कुम्भलगढ़ से गम्भीरी नदी के किनारे पहुंच गए व युद्ध का रुख ही बदल दिया।
कुंवर पृथ्वीराज विजयी हुए। रावत सूरजमल व रावत सारंगदेव पराजित होकर अपने-अपने डेरों में चले गए। कुँवर पृथ्वीराज ने ज़ख्मी महाराणा रायमल को पालकी में सवार किया और किले में पहुंचाया। दोनों पक्षों के ज़ख्मी सिपाहियों का इलाज करवाया गया।
रावत सूरजमल व कुँवर पृथ्वीराज के बीच संवाद :- रात के वक्त कुंवर पृथ्वीराज घोड़े पर सवार हुए और बेखौफ होकर अकेले ही रावत सूरजमल के डेरे पर गए। रावत सूरजमल के मरहम-पट्टी की हुई थी। कुँवर को आता देख रावत सूरजमल उठ खड़े हुए। वहां इनके बीच जो बात हुई, वह कुछ इस तरह है :-
कुंवर पृथ्वीराज – “काकाजी, खुश हो ?” रावत सूरजमल – “तुम्हारे मिलने से ज्यादा खुशी हुई”। कुंवर पृथ्वीराज – “अभी-अभी दाजीराज के ज़ख्मों पर पट्टी बांधकर आ रहा हूँ”। (मेवाड़ में कुँवर अपने पिता को ‘दाजीराज’ कहा करते थे)
रावत सूरजमल – “राजपूतों के तो काम ही यही हैं”। कुंवर पृथ्वीराज – “काकाजी, मैं आपको भाले की नोक से दबे उतनी ज़मीन भी नहीं दूंगा”। रावत सूरजमल – “भतीजे, मैं तुम्हें इस पलंग के नीचे आए, उतनी ज़मीन भी नहीं हड़पने दूंगा”।
कुंवर पृथ्वीराज – “मैं फिर आऊंगा, होशियार रहना”। रावत सूरजमल – “जल्दी आना भतीजे”। कुंवर पृथ्वीराज – “कल ही आऊंगा”। रावत सूरजमल – “बहुत अच्छा”। (इस तरह बहस के बाद कुंवर पृथ्वीराज दुर्ग में चले गए) सुबह होते ही फिर से युद्ध की तैयारियां होने लगीं।
निष्कर्ष :- यहां शुरुआती गलती कुँवर पृथ्वीराज की थी, क्योंकि उन्होंने रावत सारंगदेव से निजी लड़ाई का जागीर छीनकर बैर निकाला। यहां कुछ गलती महाराणा रायमल की भी थी, क्योंकि रियासत के भीतर के मामले उन्हें स्वयं सुलझाने चाहिए थे।
सामन्तों व राजपरिवार में सामंजस्य बना रहे, इसका उत्तरदायित्व उन्हीं पर था। इसके बाद यहां रावत सारंगदेव की गलती भी थी, क्योंकि आपसी झगड़ों को मिटाने के लिए वे बाहरी शत्रुओं को मेवाड़ पर चढ़ा लाए।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
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