1468 ई. – महाराणा कुम्भा की हत्या कर उदयकर्ण द्वारा मेवाड़ की गद्दी हथियाना :- उदयकर्ण ने कुम्भलगढ़ दुर्ग में उन्माद रोग से ग्रस्त अपने पिता महाराणा कुम्भा की हत्या कर दी। उदयकर्ण को उदयसिंह व उदा नामों से भी जाना जाता है।
उदयकर्ण खून से सनी तलवार लेकर महलों के भीतर गया और ख़ुद को मेवाड़ का महाराणा घोषित किया, परंतु उसके कृत्य से समूचा राजपूताना उससे बैर रखने लगा।
ओझा जी ने लिखा है कि “राजपूताने के लोग पितृघाती को प्राचीन समय से ही हत्यारा कहते थे और उसका मुंह देखने से भी नफरत करते थे। वंशावली लेखक तो उसका नाम तक वंशावली में नहीं लिखते थे।”
ग्रंथ वीरविनोद में लिखा है कि “दुराचारी महाराणा उदयकर्ण ने राज्य के लालच से अपने धर्मशील, विवेकी, प्रजावत्सल और प्रतापी पिता को मारकर सूर्यवंशियों के कुल में अपने आप को कलंक का टीका लगाया। यदि
संसार के सर्वसाधारण लोगों पर नज़र डाली जावे, तो भी यह सम्भव नहीं कि बाप के बदचलन होने की हालत में बेटा बाप को दंड देवे या मार डाले, जिसमें भी कुम्भा जैसे सदाचारी महाराजाधिराज को मार डालना तो बड़ा ही भारी अपराध था।”
मेवाड़ के सामन्त उस समय उदयकर्ण को गद्दी पर बैठने से नहीं रोक सके, क्योंकि एक तो उदयकर्ण महाराणा कुम्भा का बड़ा बेटा था, इसलिए उत्तराधिकारी वही था। दूसरी बात ये कि उस समय उदयकर्ण के खिलाफ जाना सामन्तों के लिए भी समस्या खड़ी कर सकता था, क्योंकि उदयकर्ण के सहयोगी भी वहां मौजूद थे।
मेवाड़ के सामंत उदयकर्ण के दरबार में अपने भाई-बेटों को भेजकर औपचारिकता निभाने लगे और उदयकर्ण को राजगद्दी से हटाने के प्रयास करने लगे। उदयकर्ण ने भी उन्हें खुश करने के प्रयास किए।
उदयकर्ण ने सिरोही के राजा से संधि करके उनको आबू का क्षेत्र लौटा दिया। उसने महाराणा कुम्भा के भाई क्षेमकर्ण/खेमा से भी मेलजोल बनाए रखा। इतिहासकार रामवल्लभ सोमानी ने तो ये लिखा है कि खेमा ने ही उदयकर्ण को भड़काकर महाराणा कुम्भा की हत्या करवाई।
रायमल का मेवाड़ आगमन :- रावत कांधल चुंडावत की अध्यक्षता में सब सरदारों ने तय किया कि महाराणा कुम्भा के दूसरे पुत्र रायमल को ईडर से बुलाया जाए। रायमल ईडर से कुछ फ़ौज लेकर निकले और ब्रह्मा की खेड़, ऋषभदेव होते हुए जावर के निकट पहुंचे।
यहां मेवाड़ के कई सामंत अपनी-अपनी फ़ौजों समेत रायमल से मिल गए। जावर के पास रायमल और उदयकर्ण की सेनाओं में लड़ाई हुई, जिसमें रायमल विजयी रहे और जावर पर उनका अधिकार हो गया।
फिर रायमल एकलिंगनाथ जी के मंदिर में गए, जहां अन्य सामन्तों को भी बुलाया और यह तय किया कि अधर्मी उदयकर्ण को गद्दी से खारिज किया जावे।
1473 ई. – दाडिमपुर का युद्ध :- पिछले 3 वर्षों तक कई बार रायमल व उदयकर्ण की फौज में लड़ाईयां हुई। उदयकर्ण ने 10,000 की फौज के साथ रायमल पर हमला किया।
दाड़मी/दाडिम गांव में हुई इस लड़ाई में रायमल विजयी रहे। रायमल ने उदयकर्ण के हाथी, घोड़े, नक्कारे, निशान आदि छीन लिए। महाराणा कुम्भा के भाई क्षेमकर्ण दाडिमपुर के युद्ध में उदयकर्ण की तरफ से लड़तेे हुए मारे गए।
प्रतापगढ़ के इतिहास ग्रंथों के अनुसार क्षेमकर्ण का देहांत 1473 ई. में धुलेव के पास करमदी के खेमे में हुआ। परन्तु ख्यातों से अधिक प्रामाणिक इतिहास शिलालेखों का मानना चाहिए। खेमा के दाडिमपुर के युद्ध में मारे जाने का उल्लेख स्वयं महाराणा रायमल ने ही एकलिंगनाथ जी मंदिर की प्रशस्ति में खुदवाया।
रायमल की मेवाड़ विजय :- रायमल ने दाडिमपुर युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद उदयकर्ण का पीछा किया। उदयकर्ण जावी के किले में जा घुसा। रायमल ने जावी पर भी अधिकार कर लिया। फिर उदयकर्ण वहां से भागा और पानगढ़ में शरण ली।
पानगढ़ का एक चौहान किलेदार उदयकर्ण का सहयोगी था। रायमल ने उदयकर्ण की फौज को परास्त कर पानगढ़ पर भी अधिकार कर लिया। उदयकर्ण वहां से भी भाग निकला।
फिर रायमल ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग को घेर लिया और सुबह के वक्त उदयकर्ण की फ़ौज को परास्त कर किले पर अधिकार कर लिया। इन लड़ाईयों में सलूम्बर रावत कांधल चुंडावत (रावत चूंडा के पुत्र) ने रायमल का साथ दिया।
1473 ई. – रायमल की कुम्भलगढ़ विजय :- उदयकर्ण जगह-जगह रायमल की फ़ौज से परास्त होकर कुंभलगढ़ की तरफ़ भाग निकला।
कुंभलगढ़ में मौजूद उदयकर्ण की तरफ वाले राजपूतों ने आपस में सलाह की कि उदयकर्ण तो हर लड़ाई में रायमल से हार रहा है, इसलिए अब हमको रायमल का ही साथ देना चाहिए।
रायमल ने जब कुम्भलगढ़ पर चढ़ाई की, तब उनके साथ वागड़, छप्पन, मारवाड़, खैराड़ और हाड़ौती की फ़ौजें भी थीं। रायमल के कुम्भलगढ़ के निकट पहुंचने पर उदयकर्ण के साथ वाले राजपूत बातों-बातों में शिकार का बहाना बनाकर उदयकर्ण को किले की तलहटी में ले गए।
रायमल को आसानी से कुंभलगढ़ जीतने का अवसर मिल गया। रायमल ने उदयकर्ण के बेटों को कुम्भलगढ़ से निकाल दिया। रायमल ने एक राजपूत को भेजकर उदयकर्ण को कहलवाया कि “तू अपना काला मुंह लेकर कहीं दूर चला जा, वरना रायमल तुझे जीवित नहीं छोड़ेगा।”
उदयकर्ण की मृत्यु :- उदयकर्ण भागकर सोजत चला गया। सोजत के कुँवर बाघा राठौड़ ने अपनी पुत्री का ब्याह उदयकर्ण से करवा दिया। फिर कुछ समय उदयकर्ण ने बसी के मंदिर में गुजारा। फिर उदयकर्ण बीकानेर गया और वहां कुछ समय तक रहा।
बीकानेर से उदयकर्ण अपने दोनों बेटों सूरजमल व सैंसमल समेत मांडू के बादशाह गयासुद्दीन खिलजी के पास चला गया। उदयकर्ण ने गयासुद्दीन से अपनी बेटी के विवाह के बदले मेवाड़ पर चढाई करने का करार किया।
एकलिंगनाथजी की कृपा से ये सम्बन्ध नहीं हुआ, क्योंकि करार करके अपने शिविर की तरफ लौटते वक्त उदयकर्ण पर बिजली गिर गई, जिससे उसकी मौत हो गई।
ऊदा बाप न मारजै, लिखियो लाभै राज। देश बसायो रायमल, सरयो न एको काज।। अर्थात उदयसिंह, तुम्हें अपने पिता की हत्या नहीं करनी चाहिए थी। राज्य तो भाग्य में लिखा हो, तभी मिलता है। देश का स्वामी तो रायमल हुआ और तेरा एक भी काम सिद्ध न हुआ।
यदि उदयकर्ण ने सब्र से काम लिया होता, तो एक दिन राजगद्दी वैसे भी उन्हीं की होती। परन्तु अनर्थ करने के बाद मिला राज कुछ समय में ही उनके हाथों से छीन गया। मेवाड़ का इतिहास रहा है कि यहां के सामन्तों ने किसी अयोग्य शासक को अधिक समय तक राज नहीं करने दिया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)