निर्माण काल :- कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति के अनुसार कुम्भलगढ़ दुर्ग का निर्माण विक्रम संवत 1515 चैत्र शुक्ल 13 (1458 ई.) को पूर्ण हुआ। इस दुर्ग का निर्माण कब शुरू करवाया गया, इस बारे में इतिहासकार एकमत नहीं हैं।
रामवल्लभ सोमानी के अनुसार कुम्भलगढ़ का निर्माण 1438 ई. व शारदा जी के अनुसार 1443 ई. को शुरू करवाया गया। समुद्र तल से कुंभलगढ़ की ऊंचाई 3568 फ़ीट है।
कुंभलगढ़ दुर्ग के शिल्पी मंडन थे। महाराणा कुम्भा ने यह दुर्ग अपने नाम पर नहीं, बल्कि अपनी प्रिय रानी कुम्भलदेवी के नाम पर बनवाया।
ग्रंथ वीरविनोद के अनुसार महाराणा कुम्भा ने मौर्य शासक संप्रति के बनाए हुए दुर्ग के अवशेषों पर कुंभलगढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया। इस दुर्ग के नाम सहित महाराणा कुम्भा ने सिक्के भी जारी किए थे।
महाराणा कुम्भा ने दुर्ग में जलाशय व बाग भी बनवाया। वे किसी शत्रु को पराजित करके वहां से गणपति जी की मूर्ति लाए व दुर्ग में स्थापित की।
किले के उत्तर की तरफ का पैदल रास्ता ‘टूट्या का होड़ा’ तथा पूर्व की तरफ हाथी गुढ़ा की नाल में उतरने का रास्ता ‘दाणीवटा’ कहलाता है। किले के पश्चिम की तरफ का रास्ता ‘हीराबारी’ कहलाता है। किले के शीर्ष से मारवाड़ का नज़ारा दिखाई देता है।
कुम्भलगढ़ के अन्य नाम :- 1448 ई. में गोड़वाड़ में लिखे गए एक जैन लेख में इस दुर्ग का नाम कुम्भपुर बताया है। प्रारम्भ में इसका नाम माहोर था। मुगल तवारीखों में इसका नाम कुम्भलमेर लिखा है।
मासिर-ए-मोहम्मदशाही में इसका नाम मछिन्दरपुर लिखा है। प्रशस्तियों में इसका नाम कुम्भलमेरु भी लिखा है। कुम्भलगढ़ का एक हिस्सा कटारगढ़ कहलाता है, जो ऊंचाई पर होने के कारण ‘मेवाड़ की आंख’ भी कहलाता है।
कुंभलगढ़ दुर्ग के निर्माण का प्रमुख उद्देश्य :- गोडवाड़ क्षेत्र की सुरक्षा, गुजरात के सुल्तान के आक्रमण को असफ़ल बनाना, इस दुर्ग से गोडवाड़ के अलावा मारवाड़ और मेरवाड़ा पर भी नज़र रखी जा सकती थी।
दीवार :- कुम्भलगढ़ दुर्ग की दीवार भारत की महान दीवार कही जाती है। इस दीवार की लंबाई लगभग 36 किलोमीटर है। यह इतनी चौड़ी है कि इस पर चार घोड़े एक साथ दौड़ सकते हैं।
द्वार :- केलवाड़ा से पश्चिम में जाते समय सबसे पहला द्वार आरेठ पोल है। फिर क्रमशः हल्लापोल व हनुमानपोल आती है। हनुमानपोल पर हनुमान जी की एक मूर्ति स्थापित की गई, जो कि महाराणा कुम्भा मंडोवर जीतकर वहां से लाए थे।
फिर विजयपोल, रामपोल आती है। यहां से कुम्भलगढ़ दुर्ग के अंदर का भाग शुरू होता है। यहां से 5 पोल और आती है, जिनके नाम क्रमशः भैरवपोल, नीबूपोल, चौगानपोल, पाखडापोल, गणेशपोल हैं।
गणेश पोल के सामने की तरफ गुम्बजदार महल व देवी का स्थान था। यहां से कुछ सीढियां और चढ़ने पर महाराणा उदयसिंह की रानी का महल बनाया गया, जिसे झाली रानी का मालिया कहा गया।
महाराणा फतहसिंह ने गणेश पोल के सामने की तरफ वाले पुराने महलों को गिरवाकर उनके स्थान पर नए महल बनवाए। ये महल गर्मी के समय भी ठंडे रहते हैं व ऊंचाई के कारण यहां के गोखड़ों में उम्दा हवा आती है।
यज्ञवेदी :- यह कुंभलगढ़ दुर्ग का प्रमुख आकर्षण है। अक्सर लोग इसे मंदिर समझ लेते हैं, पर वास्तव में यह महाराणा कुम्भा द्वारा बनवाई गई यज्ञवेदी है। यह राजस्थान की सबसे प्राचीन व भारत की सबसे बड़ी यज्ञवेदी है।
इस यज्ञवेदी के ऊपरी भाग में यज्ञ के दौरान धुंए के बाहर निकलने की समुचित व्यवस्था है। इसी यज्ञवेदी में 1458 ई. में कुम्भलगढ़ दुर्ग की प्रतिष्ठा की गई थी। यह यज्ञवेदी 3 मंजिला है।
मामादेव का मंदिर :- पुरातत्व वालों का मानना है कि यह मंदिर पहले चौमुखा जैन मंदिर था, जिसे वैष्णव मन्दिर में परिवर्तित किया गया। इस मंदिर के बाहरी भाग में भगवान विष्णु के दशावतार की प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। रामवल्लभ सोमानी ने इसी मंदिर को कुम्भस्वामी मंदिर बताया है।
कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति में लिखा है कि “विष्णु के चरणों के सेवक राणा कुम्भा ने कुम्भलमेर दुर्ग में सरोवर में खिले हुए कमलों के मध्य अनेक तोरणों वाला कुम्भ स्वामी का मंदिर बनवाया।”
इस मंदिर से महालक्ष्मी, घोड़े पर सवार कुबेर, पृथ्वी आदि की प्रतिमाएं मिली हैं। महाराणा कुम्भा ने चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़ व अचलगढ़ में कुम्भस्वामी विष्णु मंदिर बनवाए।
52 जैन मंदिर :- इस मंदिर का निर्माण 1464 ई. में करवाया गया। इस वर्ष का एक शिलालेख मिला है, जिसमें जसवास के नरसी का उल्लेख है।
कुंभलगढ़ प्रशस्ति :- महाराणा ने 1460 ई. में कुंभलगढ़ प्रशस्ति की रचना करवाई। इसकी रचना महेश ने की। इसमें महाराणा कुम्भा की उपलब्धियों का वर्णन है।
इतिहासकार रामवल्लभ सोमानी के अनुसार इस प्रशस्ति की रचना महेश ने नहीं, बल्कि कान्हव्यास ने की। कुम्भलगढ़ प्रशस्ति को काफी प्रामाणिक माना जाता है। मेवाड़ की वंशावली इसमें काफी हद तक सही दी हुई है।
कुम्भलगढ़ दुर्ग में स्थित अन्य स्थान :- पीतलिया देव का मंदिर, महाराणा रायमल के ज्येष्ठ पुत्र उड़न पृथ्वीराज की छतरी, कुंडेश्वर मन्दिर, दामोदर मन्दिर, नीलकंठ महादेव मंदिर। कुम्भलगढ़ दुर्ग में छोटे-बड़े कुल लगभग 350 मंदिर हैं, लेकिन दूर-दूर होने के कारण लोग देख नहीं पाते।
कुम्भलगढ़ दुर्ग में महाराणा कुम्भा के देहांत के बाद हुई प्रमुख घटनाएं :- महाराणा उदयसिंह का राजतिलक, महाराणा प्रताप का जन्म, महाराणा प्रताप के राज्याभिषेक का उत्सव, 1583 ई. का भीषण युद्ध।
महाराणा भूपालसिंह के समय मेवाड़ प्रजामण्डल के आंदोलनकारी माणिक्य लाल वर्मा को कुम्भलगढ़ दुर्ग में नजरबंद रखा गया था।
कुम्भलगढ़ दुर्ग को अजेय कहा जाता है, परन्तु फिर भी एक अवसर आया था जब यह दुर्ग शत्रुओं के हाथों में गया। 1583 ई. में अकबर के सेनापति शाहबाज़ खां ने दुर्ग पर हमला किया,
तब महाराणा प्रताप के मामा भाण सोनगरा के नेतृत्व में सभी वीर लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। मात्र 5 वर्ष बाद ही महाराणा प्रताप ने यह दुर्ग पुनः जीत लिया।
हरविलास शारदा ने कुंभलगढ़ को महाराणा कुम्भा की सैनिक मेधा का प्रतीक बताया। कर्नल जेम्स टॉड ने चित्तौड़गढ़ के बाद कुंभलगढ़ को दूसरा सर्वश्रेष्ठ दुर्भेद्य दुर्ग बताया।
फ़ारसी तवारीखों में कुम्भलगढ़ का वर्णन :- फिरिश्ता व निजामुद्दीन ने कुम्भलगढ़ दुर्ग को अजेय बताया है। अबुल फ़ज़ल ने अकबरनामा में लिखा है कि “कुंभलमेर किला इतनी बुलंदी पर बना है कि इसको नीचे से ऊपर देखने पर सिर से पगड़ी गिर जाती है।”
तारीख-ए-अकबरी का लेखक हाजी मोहम्मद आरिफ कंधारी लिखता है कि “देखने वाले की नज़र कुम्भलमेर के किले के छज्जे पर बड़ी मुश्किल से पहुंचती है और अगर देखने की कोशिश भी करे, तो पीठ के बल गिर जाते हैं।”
वंशजों का भाग्य :- महाराणा कुम्भा के सुकर्मों का फल उनके वंशजों को भी मिला। बनवीर के आतंक के समय महाराणा उदयसिंह को इसी दुर्ग ने शरण दी थी। महाराणा प्रताप को भी मुगलों से हुए संघर्ष में इस दुर्ग की सुदृढ़ता का लाभ मिला।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)