मेवाड़ के महाराणा कुम्भा (भाग – 24)

महाराणा कुम्भा के प्रसिद्ध दरबारी विद्वान मंडन द्वारा रचित ग्रंथ प्रासाद मंडन व राजवल्लभ मंडन का यहां विस्तार से वर्णन किया जा रहा है :-

राजवल्लभ मंडन/भूपतिवल्लभ :- इसमें आवासीय गृह, महल व नगरों के निर्माण का वर्णन है। इस ग्रंथ में 14 अध्याय हैं। इस ग्रंथ में सामान्य लोगों के आवास गृह के बारे में मंडन लिखते हैं कि जिस भूमि पर घर बनाने के लिए खुदाई की जा रही हो, यदि वहां कोई हड्डियां निकलें, तो समस्त हड्डियां निकाल देनी चाहिए।

यदि ये हड्डियां न निकाली जाए, तो कई प्रकार के दोष होने की सम्भावना रहती है। यदि घोड़े की हड्डियां रह जाए तो रोग भय, कुत्ते की हड्डियां रह जाए तो क्लेश होने की सम्भावना रहती है।

राजवल्लभ मंडन में 4 प्रकार की बावड़ियों, 4 प्रकार के कुंड, 6 प्रकार के तालाब व 10 प्रकार के कुंओं के निर्माण का वर्णन है। राजा के महल निर्माण के बारे में मंडन लिखते हैं कि

महाराणा कुम्भा

राजा का महल जिस क्षेत्र में बनाया जा रहा हो, उस गांव या नगर के 16वें भाग पर वह महल बनवाना चाहिए। यह महल नगर के मध्य में या पश्चिम दिशा में होना चाहिए। मुख्य द्वार के समीप त्रिपोलिया द्वार बनवाना चाहिए, जहां धूप घड़ी रखी जा सके।

राजा का सिंहासन 60 अंगुल का व शैय्या 100 अंगुल की होनी चाहिए। राजपुत्र की शैय्या 90 अंगुल, मंत्री की 84, सेनापति की 72, राजगुरु की 69 व ब्राह्मण की शैय्या 67 अंगुल की होनी चाहिए।

राजमहल के वाम भाग में कोषालय, वस्त्रागार, देवघर, अश्वशाला, धातु लक्ष्मी, अन्तःपुर आदि बनाया जाना चाहिए। दाहिने भाग में शस्त्रागार, हस्तिशाला आदि बनाने चाहिए। राजमहल के सामने सुंदर मंडप व उसके आसपास राजा के पुत्रों व पौत्रों के महल बनवाने चाहिए।

राजमहल के बाहर वाम भाग में शस्त्राधारी सैनिकों के आवास होने चाहिए और दाहिने भाग में शिरछत्र पकड़ने वाले, चँवर उड़ाने वाले, गुरु और तंबोलियों के आवास होने चाहिए।

नगर की बसावट के समय रंगकार, बुनकर व धोबियों को ईशान कोण की ओर बसाना चाहिए। अग्नि से कार्य करके जीविका चलाने वालों को अग्निकोण की ओर बसाना चाहिए। चर्मकार, घांची, कलाल को दक्षिण दिशा में बसाना चाहिए।

नैऋत्य कोण में वेश्याओं को बसाना चाहिए। पर्वतीय नगर बनाने पर राजाओं को कई तीर्थयात्राओं के समान पुण्य प्राप्त होता था। मंडन ने राजा की सभा 8 प्रकार की बताई है। मंडन के अनुसार राजा की सभा में कई स्तम्भ, तोरण बनाए जाने चाहिए।

स्तंभों व दीवारों पर हाथी, घोड़े, शेर, नर्तकी आदि बनाए जाने चाहिए। रंगभूमि बनाई जानी चाहिए, जिसके आगे क्रीड़ा करने के लिए एक मंडप बनाया जाना चाहिए। राजा के लिए क्रीड़ा करने के हेतु एक बगीचा बनाना चाहिए।

महाराणा कुम्भा

इस बगीचे में जलयन्त्र बनाकर उसके चारों ओर जल वापिका बनानी चाहिए। बाग में चम्पा, आम, जामुन, केले, चंदन, पीपल, हरड़े, आंवले, कदम्ब, नीम, खजूर, अंगूर, दाड़िम (अनार) आदि पेड़-पौधे लगाए जाने चाहिए।

प्रासाद मंडन :- प्रासाद मंडन के 8 भाग हैं। इसमें मंदिर निर्माण की प्रकिया का वर्णन हैै। इसमें 14 प्रकार के प्रासादों के निर्माण का वर्णन किया गया है। मंडन ने मंदिर निर्माण की विधि विस्तार से बताई है। मंडन ने लिखा है कि

सबसे पहले भूमि का परीक्षण करके उसे पंच गव्य (मणि, सोना, रूपा, मूंगा, फल) से शुद्ध करना चाहिए। मंदिर देवता का आवास है, इसलिए इस पर असुरों की वक्र दृष्टि रहती है। अतः शान्तिकर्म आवश्यक होता है। 14 प्रकार के शांतिकर्म हैं :-

खात कर्म, कूर्मशिला, शिलान्यास, तल निर्माण, खर शिला, मंदिर द्वार की स्थापना, मंडप का मुख्य स्तम्भ स्थापन, स्तम्भ पर भारपट्ट की स्थापना, शिखर पर पद्मशिला स्थापना, गर्भगृह के शिखर के समान ऊंचाई पर सिंह स्थापना,

स्वर्ण पुरुष की स्थापना, आमलक स्थापन, कलश स्थापना व ध्वजारोहण। प्रासाद की मर्यादित भूमि को जगती कहते हैं। जैसे राजा के सिंहासन को रखने के लिए कोई निश्चित स्थान मर्यादित होता है, वैसे ही मंदिर बनाने के लिए भूमि भी मर्यादित रखी जाती है।

जगती से मंडप में जाने के लिए सीढियां बनाकर इसके दोनों ओर हाथियों की सुंदर आकृति बनानी चाहिए। तोरण भी बनाना चाहिए। मन्दिर के सामने देवता का वाहन स्थान भी बनाना चाहिए। शिवलिंग के सामने किसी अन्य देवता का मंदिर या मूर्ति नहीं होनी चाहिए।

जहां तक हो सके ब्रह्मा के सामने ब्रह्मा का, विष्णु के सामने विष्णु का, जिनदेव के सामने जिनदेव का ही मंदिर होना चाहिए, इससे नाभिवेध नहीं होता। लेकिन साथ ही मंडन ये भी कहते हैं कि ब्रह्मा व विष्णु के मंदिर आमने-सामने हो सकते हैं, क्योंकि ये एक ही नाभि में हैं।

महाराणा कुम्भा

इसी प्रकार चंडिका के सामने मातृदेव, क्षेत्रपाल, भैरव आदि के मंदिर हों, तो कोई दोष नहीं है। यदि त्रिपुरुष देव की स्थापना की जाए, तो मध्य में महादेव, बायीं ओर विष्णु व दायीं ओर ब्रह्मा की मूर्ति होनी चाहिए।

मंदिर को धारण करने वाली जो आधारशिला है, जिसको खरशिला भी कहते हैं, वह जगती के ऊपर बनाई जाती है। इसके ऊपर भिट्ट नामक थर बनता है। उसके ऊपर पीठ बनाई जाती है। गर्भगृह के बाहर कोली मंडप बनाया जाता है। मंदिर के शिखर पर एक हिरण्य पुरुष की स्थापना की जानी चाहिए।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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