सैन्य व्यवस्था :- महाराणा कुम्भा के पास विशाल सेना होने के कारण उन्हें ‘तोडरमल्ल’ की उपाधि दी गई। ये सेना 3 भागों में विभाजित थी :- 1) पैदल सेना 2) अश्व सेना 3) गज सेना।
कीर्तिस्तंभ प्रशस्ति के अनुसार महाराणा कुम्भा ने आबू विजय में अश्वसेना का व सपादलक्ष विजय में पैदल सेना का अधिक उपयोग किया था।
कुंभलगढ़ प्रशस्ति के अनुसार महाराणा कुम्भा जब युद्ध अभियान के लिए निकलते थे, तो उनकी विशाल सेना के घोड़ों व हाथियों से धूल उड़कर आसमान में छा जाती थी।
युद्धनीति, शरणागत रक्षा व विजय के बाद शत्रुओं के साथ किया जाने वाला व्यवहार :- महाराणा कुम्भा ने मालवा व गुजरात के सुल्तानों से कई छापामार लड़ाइयां लड़कर इस पद्दति को मेवाड़ में प्रसिद्ध किया। इन लड़ाइयों के दौरान महाराणा ने कई बार शत्रुओं पर अचानक आक्रमण कर उनकी सेनाओं को परास्त किया।
यह नीति बाद में महाराणा उदयसिंह, महाराणा प्रताप, महाराणा अमरसिंह व महाराणा राजसिंह ने भी अपनाई। इसी पद्दति को अपनाने के कारण महाराणा कुम्भा को ‘छाप गुरु’ कहा जाता है।
जिन राज्यों या राजाओं पर महाराणा कुम्भा को अत्यधिक क्रोध आता था, उन्हें विजित करके उनके नगर को भी नष्ट कर दिया करते थे। नागौर विध्वंस सबसे बड़ा उदाहरण है।
महाराणा कुम्भा ने सोजत के ठाकुर को परास्त किया, परंतु ठाकुर के क्षमा मांगने पर महाराणा ने उनको उनका राज भी वापिस दे दिया। महाराणा कुम्भा शरणागतों की रक्षा हेतु सदैव तत्पर रहते थे।
टोडा के ठाकुर की जागीर मुसलमानों ने छीन ली थी, तो महाराणा से मदद मांगने पर महाराणा ने मुस्लिमों को परास्त कर टोडा पर ठाकुर का अधिकार करवा दिया।
इसी प्रकार ढूंढाड़ नरेश उद्धरण/उधा कछवाहा का राज्य कायमखानियों ने छीना, तो महाराणा से मदद मांगने पर महाराणा ने उनको उनका राज पुनः दिलाया। इसी प्रकार नागौर का मुस्लिम शहज़ादा जब महाराणा की शरण में आया, तो महाराणा ने उसे भी उसका राज दिलाया।
न्याय व्यवस्था :- महाराणा कुम्भा के शासन में देशद्रोह व षड्यंत्र के लिए सर्वोच्च दण्ड मृत्युदंड था। 12 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति, पागल, मूर्ख, बीमार व्यक्ति पर कोई भी आरोप लगाकर उसे न्यायालय में लाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता था।
जागीरदारी व्यवस्था व मंत्रिमंडल :- महाराणा कुम्भा के दुर्ग में प्रमुख जागीरदारों व मंत्रियों के लिए भी पृथक महल आदि बनाए गए थे। महाराणा कुम्भा के अधिकतर मंत्री ओसवाल जाति के थे।
मंत्रियों में राजगुरु के पद पर तिल्ह भट्ट नियुक्त थे। ये महाराणा लाखा के समय से इसी पद को संभाल रहे थे, इसलिए महाराणा कुम्भा के समय ये काफी वृद्ध थे। महाराणा इनका बहुत सम्मान करते थे।
मुख्य मंत्री सहणपाल नवलखा थे। सहणपाल नवलखा के 8 पुत्र थे, जिनके नाम इस तरह हैं :- रणमल, रणधीर, रणवीर, रणभ्रम, भांडा, सांडा, चउडा व कर्मसिंह।
रत्नों के भंडार के अधिकारी वेला भंडारी थे। चित्तौड़गढ़ दुर्ग में स्थित श्रृंगार चँवरी मंदिर पर खुदवाए गए शिलालेख के अनुसार महाराणा कुम्भा के शासनकाल में मेवाड़ के कोषाध्यक्ष कोला थे।
भूमि मापन :- महाराणा कुम्भा के समय भूमि नापने के लिए चारों तरफ खूंटियां गाड़कर डोरी बांधना आवश्यक था। इसको नापने के लिए हाथ या फिर गज का प्रयोग किया जाता था। गज लाल चंदन, महुआ, खेर, बांस या तांबे का बनाया जाता था।
गज 3 प्रकार के होते थे :- (1) ज्येष्ठ/बड़ा गज :- गांव, नगर आदि को नापने हेतु (2) मध्यम गज :- घर, महल आदि को नापने हेतु (3) लघु/छोटा गज :- सिंहासन, छत्र, शस्त्र आदि नापने हेतु। चित्तौड़गढ़ दुर्ग में स्थित विजय स्तम्भ पर साढ़े 22 इंच के एक गज का चित्र उत्कीर्ण है।
कर प्रणाली :- महाराणा कुम्भा के समय कर संग्रह करने वाले अधिकारियों में सबसे प्रमुख अधिकारी का नाम डूंगरभोजा था। राजस्व विभाग के एक प्रमुख अधिकारी का नाम सेलहथ था।
प्रमुख रूप से भाग भोग, हाटक, आयात-निर्यात, ग्रास, मापा (Custom), मांडवी नामक कर (Tax) लिए जाते थे।
सार्वजनिक निर्माण विभाग :- महाराणा कुम्भा ने सार्वजनिक निर्माण विभाग की स्थापना की। इस विभाग का प्रमुख कार्य प्रत्येक क्षेत्र में आवश्यकतानुसार बावड़ियाँ, बाग-बगीचे, तालाब आदि बनवाना था, जिससे प्रजा सुखी रहे।
राजकीय आज्ञापत्र :- महाराणा कुंभा के समय राजकीय आज्ञापत्र मेवाड़ी भाषा में ही लिखे जाते थे। इन पर महाराणा के हस्ताक्षर न होकर, केवल भाले का चिह्न अंकित होता था।
‘एकलिंग प्रसादात’ शब्द लिखा जाता था। ‘श्रीमुख’ शब्द भी लिखा जाता था, जिसका अर्थ था कि उक्त आज्ञा महाराणा ने मौखिक रूप से दे दी है।
करों की माफी :- गया, काशी, प्रयाग जाने वाले यात्रियों से जो भी धार्मिक तीर्थ कर (tax) लिया जाता था, महाराणा कुम्भा ने एक साथ वह तीर्थ कर राशि प्रदान करके इन तीर्थ स्थलों को करमुक्त करवा दिया।
1449 ई. में महाराणा कुम्भा ने आबू में वसूला जाने वाला धार्मिक कर बन्द करवा दिया। यह कर दीर्घकाल से वसूला जाता आ रहा था। महाराणा ने इस कर को बंद करवा कर केवल अचलगढ़ हेतु कुछ कर निर्धारित किया।
आबू जाने वाले यात्रियों से दाण (राहदारी), मुंडिक (प्रति यात्री), वलावी (मार्ग रक्षा) आदि कर लिए जाते थे, जो महाराणा कुम्भा ने माफ़ करवा दिए।
तुलादान :- अपने जीवन के अंतिम वर्षों में महाराणा कुम्भा ने स्वर्ण का तुलादान करवाया था। महाराणा कुम्भा ने आबू के ऋषिकेश आश्रम में दान दिया था।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)