मालवा के सुल्तान की मेवाड़ पर दूसरी चढ़ाई :- मालवा का सुल्तान महमूद खिलजी बहुत महत्वाकांक्षी शासक था। उसने न केवल मेवाड़, बल्कि गुजरात व दिल्ली पर भी आक्रमण किए। इसने सर्वाधिक आक्रमण मेवाड़ पर ही किए।
यदि इस समय मेवाड़ की गद्दी पर कोई कम योग्य शासक बैठा होता, तो निश्चित ही मेवाड़ पर महमूद का कब्ज़ा हो जाता। इस बार महमूद का लक्ष्य मांडलगढ़ दुर्ग को जीतने का था।
1443 ई. में गागरोन को जीतने के बाद महमूद खिलजी हाड़ौती होते हुए बनास नदी पार करके मांडलगढ़ पहुंचा। महमूद ने मांडलगढ़ दुर्ग पर चढ़ाई करके किले को घेर लिया।
फ़ारसी लेखकों ने लिखा है कि मांडलगढ़ का घेरा उठाने के लिए राणा कुम्भा ने सुल्तान से सन्धि करके उसको एक लाख टंका दिए। लेकिन यह बात अतिश्योक्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
क्योंकि सुल्तान महमूद खिलजी मेवाड़ को फतह करने का मकसद रखता था और उसके लिए उसने बार-बार मेवाड़ पर चढ़ाइयाँ कीं। वह रकम लेकर मेवाड़ को छोड़ने वालों में से नहीं था।
इतिहासकारों ने इस लड़ाई में सुल्तान की हार होना बतलाया है, क्योंकि मांडलगढ़ दुर्ग पर उसका कब्ज़ा नहीं हो सका और ना ही वो इससे आगे बढ़ सका। 1443 ई. के बाद वह कुछ समय के लिए बगावतों को कुचलने में व्यस्त हो गया।
महमूद खिलजी की मेवाड़ पर तीसरी चढ़ाई :- मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी की मेवाड़ पर तीसरी चढ़ाई भी मांडलगढ़ दुर्ग को जीतने के लिए ही थी। इस चढ़ाई से यह और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है कि सुल्तान द्वारा 1443 ई. में की गई चढ़ाई विफल हुई थी।
महमूद 11 अक्टूबर, 1446 ई. को मांडलगढ़ फतह करने के इरादे से फौज सहित रवाना हुआ। सबसे पहले वह रणथंभौर गया। वैसे तो महाराणा कुम्भा ने रणथंभौर दुर्ग को अपने शासनकाल की शुरुआत में जीता था, परन्तु यह किला जल्द ही उनके हाथ से निकल गया था।
इस बार महमूद ने रणथंभौर के हाकिम बहर खां को उसके पद से हटाया और उसकी जगह मलिक सैफुद्दीन को तैनात किया। इसके पीछे लेखक शिहाब हकीम ने यह वजह लिखी है कि
“रणथंभौर पर यह बदली इसलिए की गई, क्योंकि इस किले पर ऐसे शख्स की जरूरत थी, जो ग्वालियर के राजा डूंगरसिंह तोमर और मेवाड़ के राणा कुम्भा का सामना कर सके।”
महमूद खिलजी ने फ़ौज सहित मेवाड़ की तरफ कूच किया। महाराणा कुम्भा को ख़बर मिली, तो महाराणा ने भी सामना करने के लिए सेना सहित चित्तौड़गढ़ से प्रस्थान किया।
महमूद बनास नदी पार करके मांडलगढ़ पहुंचा। इस बार महाराणा कुम्भा का इरादा था कि महमूद को मांडलगढ़ से आगे ना बढ़ने दिया जावे। महमूद और महाराणा की सेनाओं में भीषण युद्ध हुआ।
यह युद्ध 2 दिन तक चलता रहा, परन्तु कोई परिणाम नहीं निकला। तीसरे दिन सुल्तान के सेनापति गज़नी खां ने महाराणा की सेना पर आक्रमण किया और इसी दिन महाराणा की सेना ने मांडलगढ़ से मालवा वालों की घेराबंदी उठा दी।
घेराबंदी उठाने के बाद महाराणा कुम्भा ने महमूद की सेना का पीछा किया और उनका सामान वगैरह लूट लिया। महमूद खिलजी ने ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया, लेकिन राजा डूंगरसिंह तोमर को परास्त नहीं कर सका। वह लौटकर बयाना आया।
बयाना का किला दिल्ली के सुल्तान के अधिकार क्षेत्र में था। महमूद ने बयाना पर कब्ज़ा कर लिया। फिर महमूद ने रणथंभौर के निकट स्थित आनंदपुर के किले को जीत लिया।
इसके बाद महमूद ने अपने सेनापति ताज खां को 8 हज़ार घोड़े और 20 हाथी देकर चित्तौड़गढ़ पर हमला करने के लिए रवाना किया। इस फ़ौज के साथ हज़ारों की पैदल फ़ौज भी रही होगी, वरना महमूद सिर्फ 8 हज़ार घुड़सवारों को चित्तौड़गढ़ जैसे सुदृढ दुर्ग को जीतने के लिए नहीं भेज सकता था।
महाराणा कुम्भा को ताज खां के आने की ख़बर मिली, तो महाराणा ने अपनी सेना तैयार की और चित्तौड़गढ़ से बाहर निकलकर इस सेना को करारी शिकस्त दी। ताज खां अपनी जान बचाकर सुल्तान के पास लौट आया।
फ़ारसी तवारीखों में पक्षपात मिलता ही है। मालवा वालों के इतिहास में सिर्फ ताज खां के चित्तौड़ आक्रमण का वर्णन लिखा है, परन्तु परिणाम के बारे में कुछ नहीं लिखा। इन तवारीखों में अक्सर सुल्तानों की जीत का वर्णन ही लिखा जाता।
कुछ वर्षों के लिए युद्ध विराम :- मालवा का सुल्तान महमूद खिलजी ने महाराणा कुम्भा से सारंगपुर के युद्ध में शिकस्त खाने के बाद 3 बार मेवाड़ पर चढ़ाई की और तीनों ही बार शिकस्त खाई।
अब उसने कुछ वर्षों तक मेवाड़ पर आक्रमण ना करके अपनी सेना को मजबूती प्रदान करने का विचार किया। साथ ही उसे यह भी समझ आ गया कि वह सिर्फ मालवा की फ़ौज के ज़रिए मेवाड़ नहीं जीत सकता है। महमूद खिलजी को आवश्यकता थी एक सन्धि की।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)