महमूद खिलजी का चित्तौड़ की तरफ कूच :- 1443 ई. में मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी ने केलवाड़ा में बायण माता का मंदिर ध्वस्त करने के बाद चित्तौड़गढ़ की तरफ कूच किया। महाराणा कुम्भा भी चित्तौड़गढ़ में फ़ौजी तैयारी करने लगे।
महमूद द्वारा मंदसौर की तरफ फ़ौज भेजना :- महमूद स्वयं तो चित्तौड़गढ़ की तरफ रवाना हुआ और उसने अपने पिता आज़म हुमायूं के नेतृत्व में एक फ़ौज मंदसौर की तरफ भेजी। मंदसौर अभियान के द्वारा वह उन क्षेत्रों को पुनः जीतना चाहता था, जिन पर महाराणा कुम्भा ने अधिकार कर लिया।
महमूद को ख़बर मिली कि मंदसौर में किसी बीमारी के चलते उसके पिता आज़म हुमायूं की मृत्यु हो गई है। महमूद मंदसौर पहुंचा और वहां से अपने पिता की लाश को मांडू ले गया।
मंदसौर से रवाना होते समय उसने वहां तैनात फ़ौज का नेतृत्व ताज खां को सौंपा। कुछ दिन बाद महमूद मांडू से रवाना हुआ और चित्तौड़गढ़ पहुंचा, जहां उसकी शेष सेना तैनात थी।
महाराणा कुम्भा व महमूद खिलजी के बीच हुआ चित्तौड़गढ़ का युद्ध :- महाराणा कुम्भा को जब बायण माता मंदिर विध्वंस का पता चला, तो वे बड़े क्रोधित हुए। 26 अप्रैल, 1443 ई. को महाराणा ने किले से बाहर निकलकर 6,000 पैदल फ़ौज व 10,000 घुड़सवारों सहित महमूद की सेना पर धावा बोल दिया।
फिरिश्ता लिखता है कि “राणा कुम्भा ने सुल्तान की फ़ौज पर धावा बोला, पर हारकर किले में लौट गया। अगले दिन सुल्तान ने राणा की फ़ौज पर हमला किया, जिसमें राणा ज़ख्मी होकर किले में लौट गया। फिर बारिश शुरू हो गई, जिसके बाद सुल्तान ने अगले साल राणा से मुकाबला करने का इरादा किया और वहां से बिना किसी के सताए लौट गया।”
फिरिश्ता का यह पक्षपात भरा कथन ही महमूद की पराजय को स्पष्ट कर देता है। फ़ारसी तवारीखों में अक्सर जहां मुसलमानों की पराजय होती, वहां वे बारिश के आने, भंवर के उड़ने जैसे प्राकृतिक कारणों के बहाने बना देते थे।
मेवाड़ में बारिश का मौसम जुलाई से शुरू होता है और यदि एक बार अप्रैल में बारिश आ भी गई हो, तब भी वह लगातार बनी नहीं रह सकती थी। महमूद के पास फिर भी 2 माह थे लड़ाई के लिए, लेकिन उसने वहां से लौट जाना तय किया।
फिरिश्ता के अनुसार 2 बार महमूद ने राणा को हराया, पर वह ये नहीं लिख सका कि महमूद दोनों ही बार चित्तौड़ का किला हासिल करने में नाकामयाब रहा।
फिरिश्ता ने अंत में लिखा है कि महमूद बिना सताए ही वहां से लौट गया। फिरिश्ता का ये बनावटी कथन एक तरह से स्पष्टीकरण है कि महमूद अवश्य ही महाराणा द्वारा मार्ग में सताया गया था।
इस प्रकार महमूद खिलजी की दोनों सेनाएं अपने उद्देश्य में असफल हुईं। ना चित्तौड़ हाथ आया और ना ही मंदसौर का निकटवर्ती क्षेत्र, जिस पर महाराणा कुम्भा का अधिकार था। परन्तु अब महमूद ने अपनी रणनीति में परिवर्तन किया।
1443 ई. – गागरोन का दूसरा शाका :- मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी ने देखा कि मेवाड़ के किलों को जीतना मुश्किल है, इसलिए उसने मेवाड़ के सीमावर्ती दुर्गों को जीतने का निश्चय किया और 25 नवम्बर, 1443 ई. को गागरोन की तरफ रवाना हुआ।
महमूद खिलजी ने गागरोन दुर्ग पर चढाई की। गागरोन दुर्ग वर्तमान में राजस्थान के हाड़ौती क्षेत्र के झालावाड़ जिले में स्थित है। मालवा और हाड़ौती के मध्य में होने के कारण इस दुर्ग का विशेष महत्व था।
महाराणा कुम्भा जब मालवा के सुल्तान को परास्त करके लौट रहे थे, तब मार्ग में पड़ने वाले गागरोन दुर्ग को जीतकर राव प्रहलानसिंह खींची को सौंप दिया था।
मासिर-इ-मोहम्मदशाही के अनुसार इस समय गागरोन दुर्ग में खींची राजपूतों ने इतनी ज्यादा मात्रा में रसद जमा कर रखी थी कि वर्षों तक खत्म ना हो। खींची राजपूतों के अलावा यहां महाराणा कुम्भा द्वारा भी एक सैनिक टुकड़ी रखी गई थी, जिसका नेतृत्व दाहिर नामक एक सेनापति ने किया।
महमूद खिलजी ने गागरोन दुर्ग को घेर लिया। महमूद की फ़ौज से खींची राजपूतों ने 7 दिनों तक लड़ाई जारी रखी। फिर सुल्तान के हमले से सेनापति दाहिर वीरगति को प्राप्त हुए व किले में राजपूतानियों ने जौहर किया।
प्रहलानसिंह के वीरगति पाने का उल्लेख नहीं मिलता है। इतिहासकार रामवल्लभ सोमानी ने प्रहलानसिंह द्वारा किला छोड़ते वक्त भीलों द्वारा मारा जाना लिखा है।
सुल्तान ने गागरोन दुर्ग जीतकर गयासुद्दीन को वहां नियुक्त किया। इसके अलावा उसने गागरोन दुर्ग के आसपास विशाल सेना भी तैनात कर दी। यह सेना इतनी ज्यादा थी कि इससे हाड़ौती जीता जा सके।
फारसी तवारिख मासिर-इ-मोहम्मदशाही के मुताबिक जब इस घटना की खबर महाराणा कुम्भा को मिली, तो महाराणा ने कहा कि “सुल्तान इस विजय को बहोत बड़ी विजय न माने, क्योंकि इतनी सी ज़मीन तो मैं भाटों को दान में दे देता हूँ”
1444 ई. – फिरिश्ता लिखता है “जब जौनपुर के शासक इब्राहिम शरकी का बेटा मोहम्मद शरकी दूत बनकर आया तब, सुल्तान महमूद खिलजी ने उससे कहा था कि हमारी फ़ौज मंदसौर के आसपास काफ़िरों को इस्लाम कुबूलवाने की कोशिश में लगी हुई है, पर राणा कुंभा रोड़ा बना हुआ है”
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)