1836 ई. में भीलवाड़ा जिले के ढोकलिया गांव में कविराजा श्यामलदास दधिवाड़िया का जन्म हुआ। इनके पिता का नाम काइमसिंह था। कविराजा के बड़े भाई औनाडसिंह व छोटे भाई ब्रजलाल और गोपालसिंह थे। कविराजा श्यामलदास मेवाड़ के ग्रंथ वीरविनोद के लेखक थे।
कविराजा श्यामलदास ने 1862 ई. में चित्तौड़ जाकर महता अजीतसिंह, जो कि चोर-डकैतों पर क्रूर तरीके से सजा दे रहे थे, उन्हें समझाया कि ऐसे ज़ुल्म ना करें। कविराजा ने 1868 ई. में पड़े भीषण अकाल के समय लोगों को मुफ्त भोजन उपलब्ध करवाया।
1869 ई. में कविराजा ने महाराणा शम्भूसिंह को समझाकर एक फ़क़ीर को देशनिकाला दिलवाया, यह फ़क़ीर लोगों को अपने झांसे में लेकर काम निकलवाता था।
जब कुछ ईर्ष्यालु लोगों ने राज्य के सच्चे हितैषियों के खिलाफ महाराणा शम्भूसिंह के कान भरे, तो महाराणा ने उनकी बातों में आकर उन हितैषियों से जुर्माना वसूलना चाहा, परन्तु कविराजा ने महाराणा को सलाह दी कि ऐसा न करें।
1875 ई. में महाराणा सज्जनसिंह ने उदयपुर राजमहल में सज्जन वाणी विलास नामक पुस्तकालय की स्थापना करके इसे कविराजा श्यामलदास के सुपुर्द किया। कविराजा ने मेवाड़ में फैली डाकन प्रथा को रुकवाने में हरसम्भव प्रयास किए।
कविराजा ने 1878 ई. में नमक की कीमतें तय करने हेतु अंग्रेज सरकार से मीटिंग की। इसी वर्ष कविराजा ने महाराणा को उनके 7-8 हज़ार आदमियों सहित अपने गांव ढोकलिया में दावत दी। 1880 ई. में कविराजा के भाई औनाडसिंह का देहांत हो गया।
1881 ई. में 19वीं सदी का सबसे बड़ा भील विद्रोह हुआ, इस विद्रोह को शांत करने का जिम्मा महाराणा सज्जनसिंह ने कविराजा श्यामलदास को सौंपा। कविराजा ने इस विद्रोह को कम खून-खराबे से समझा बुझाकर शांत कर दिया। यह कविराजा के जीवन की सबसे बड़ी सैनिक उपलब्धि थी।
1882 ई. में कविराजा श्यामलदास ने महाराणा सज्जनसिंह के आदेश से उदयपुर में ‘श्यामल बाग’ नाम से एक सुंदर बगीचा बनवाया। 1883 ई. में कविराजा को मारवाड़ नरेश महाराजा जसवन्तसिंह राठौड़ की तबियत पूछने के लिए जोधपुर भेजा गया।
1884 ई. में कविराजा के पेट में कोई बीमारी हुई, जो दिन-दिन बदतर होती गई। कविराजा को लगा कि ये बीमारी उनके प्राण ले लेगी, परन्तु डॉक्टर समरविल और मिट्ठनलाल ने उनका इलाज कर दिया।
महाराणा फतहसिंह के शासनकाल में 1893 ई. में 57 वर्ष की आयु में कविराजा श्यामलदास का देहांत हो गया। कविराजा श्यामलदास का जीवन परिचय स्वयं कविराजा ने ही अपने ग्रंथ में लिखा है, जिसे मैं हूबहू यहां लिख रहा हूँ। कविराजा श्यामलदास ने अपने बारे में लिखा है कि
“मेरा जन्म 5 जुलाई, 1836 ई. को हुआ। मेरा पहला विवाह 1850 ई. में व दूसरा विवाह 1859 ई. में हुआ। 1861 ई. में मेरी पहली पत्नी का देहांत हुआ। 1870 ई. में मैं अपने पिता का क्रमानुयायी बना।
1847 ई. में मैं अपने पिता के साथ महाराणा स्वरूपसिंह की सेवा में आया था। इसके 2-3 वर्ष पहले से मैंने सारस्वत और अमरकोश पढ़ना प्रारम्भ कर दिया था। उसके बाद दूसरे भी कोश, काव्य और साहित्य के ग्रंथ पढ़ता रहा।
फिर मुझको ज्योतिष का शौक हुआ और थोड़ा सा गणित का अभ्यास करके फलित ग्रंथों में लग गया। मुहूर्त चिंतामणि, मुहूर्त मार्तण्ड, मुहूर्त गणपति, जातकाभरण, मुहूर्त मुक्तावलि, चमत्कार चिंतामणि, हिल्लारजातक, पद्मकोशजातक, लघु पाराशरी, वृहत पाराशरी,
षट्पंचाशिका, प्रश्नभैरव और हायरत्न वगैरह कई ग्रंथ पढ़ने के पश्चात फलित पर से मेरी श्रद्धा उठ गई। फिर मेरा चित्त थोड़े दिनों के लिए मंत्रशास्त्र, सिद्धनागार्जुन, इंद्रजालादिक की तरफ हुआ, लेकिन फिर उनको भी व्यर्थ जानकर शीघ्र ही चित्त हट गया।
फिर मैंने थोड़े दिनों के लिए वैद्यक पर चित्त लगाया। इस विद्या में मुझको कुछ लाभ मालूम हुआ, लेकिन अंग्रेजी डॉक्टरों से मित्रता होने के कारण संस्कृत वैद्यक का अभ्यास छूट गया।
उसके बाद मुख्य विद्या कोश, काव्य और साहित्य की तरफ मन लगाया और बीच-बीच में महाभारत, रामायण, भागवत, देवीभागवत आदि कई पुराण ग्रंथ भी देखे। इन सबका फल यह हुआ कि मेरे मन से मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, डाकिन, भूत, मूठ, जादू वगैरह का वहम बिल्कुल निकल गया।
फिर मेरा शौक ज्यादातर इतिहास की तरफ झुका, लेकिन हमारे ऐतिहासिक ग्रंथों को तो लोगों ने धर्म में मिलाकर बढ़ावे और करामाती बातों से भर दिया। इसके अलावा पुराने ग्रंथों में देखें, तो साल संवत भी नहीं मिलते।
हालांकि हमारे काव्य और जैन ग्रंथों से कुछ-कुछ साल संवत और इतिहास का प्रयोजन सिद्ध होता है। मैं इन बातों की खोज में लगा हुआ था कि इसी समय याने 1871 ई. में मेवाड़ के महाराणा शम्भूसिंह साहिब ने मेवाड़ का इतिहास लिखने के लिए 2-4 आदमी नियत किए, पर जैसा काम चाहिए था, वैसा नहीं हुआ।
फिर मुझको आज्ञा मिली, तो मैंने और पुरोहित पद्मनाथ ने ऐतिहासिक सामग्री एकत्र करना शुरू किया और कुछ सामग्री एकत्र करने के बाद तवारीख लिखनी शुरू कर दी। पहले मुझको इतिहास विद्या में पूरा अनुभव प्राप्त नहीं था, इसलिए केवल 2-4 फ़ारसी तवारिखें देखकर उसी ढंग से लिखने लगा।
थोड़े ही दिन बाद ईश्वर ने इस कार्य को रोक दिया याने महाराणा शम्भूसिंह साहिब का परलोकवास होने से मेरे दिल पर बड़ा भारी सदमा पहुँचा, जिससे यह काम भी बंद हो गया। लेकिन मैंने ऐतिहासिक सामग्री एकत्र करना नहीं छोड़ा।
अपने तौर पर पाषाण लेख, सिक्के, ताम्रपत्र, पुराने कागज़ात, जनश्रुति, संस्कृत के ग्रंथ, काव्य, अंग्रेजी और फ़ारसी की ऐतिहासिक पुस्तकें एकत्र करता रहा।
इसी अरसे में महाराणा सज्जनसिंह साहिब ने मुझको मंत्रियों में दाख़िल करके अपना सलाहकार अर्थात मुख्यमंत्री बना लिया, जिससे मुझको रियासती कामों के कारण इतिहास संबंधी काम के लिए कम फुर्सत मिली।
रियासती प्रबन्ध में मेरी तुच्छ सलाह से विद्या की उन्नति, देश का सुधार, सेटलमेंट और जमाबंदी का प्रबन्ध, काउंसिल वगैरह न्याय की कचहरियों का खोला जाना, नई-नई इमारतों को बनाए जाने से देश को रौनक और प्रजा को लाभ पहुंचाना वगैरह अनेक अच्छे-अच्छे कार्य किए गए।
फिर मेवाड़ के पोलिटिकल एजेंट कर्नल इम्पी साहिब ने महाराणा सज्जनसिंह साहिब से गुजारिश की कि मुसाहिबी के काम के लिए तो बहुत आदमी मिल सकते हैं, लेकिन तवारीख के लिए नहीं। इसलिए तवारीख का काम श्यामलदास से शुरू करवाना चाहिए, जिससे आपकी और आपके राज्य की नामवरी हज़ारों वर्षों तक कायम रहेगी।
उक्त साहिब की यह राय महाराणा साहिब को बहुत पसंद आई और मुझको हुक्म दिया कि रियासती बड़े-बड़े कामों में कभी-कभी हमको सलाह से मदद देते रहने के अलावा तुम अपना मुख्य काम इतिहास लिखने का रखो।
तब मैं यह आज्ञा पाकर और भी अधिक तेजी के साथ सामग्री एकत्र करने लगा। 1879 ई. में मैंने यह वृहत कार्य प्रारंभ किया। फिर मैंने गवर्नमेंट अंग्रेजी से पाषाण लेख पढ़ने वाला एक आदमी मांगा।
इस पर फ्लीट साहिब के ज़रिए गोविंद गंगाधर देशपांडे नाम का एक पंडित एक वर्ष से ज्यादा समय के लिए हमको मिला। इस पंडित के ज़रिए मैंने मेवाड़ और मेवाड़ के समीपवर्ती स्थानों से कई पाषाण लेख प्राप्त किए।
हमारे 2-3 आदमियों को भी उक्त पंडित के पास रखकर प्रशस्ति छापने और वांचने का कार्य सिखलाया। इन बातों से मुझको बहुत कुछ अनुभव हासिल हो गया। इसके बाद मैं रॉयल एशियाटिक सोसाइटी बंगाल का मेम्बर बना।
इस सोसाइटी के मेम्बरों ने मुझको आर्कियोलॉजी और हिस्ट्री का ऑनरेरी मेम्बर चुना। उसके बाद मैं रॉयल एशियाटिक सोसाइटी लंदन और बम्बई ब्रैंच रॉयल एशियाटिक सोसाइटी का मेम्बर बना। फिर हिस्टोरिकल सोसाइटी लंदन का फेलो बना।
यदि मैं इन सोसाइटियों में लेख देने का ही काम रखता, तो कोई जर्नल मेरे लेख से खाली न रहता, लेकिन मैंने आज तक अपना कुल समय इतिहास वीरविनोद को बनाने में व्यतीत किया।
महाराणा सज्जनसिंह साहिब ने मुझको कविराजा की पदवी, जुहार, ताजीम, छड़ी, बांहपसाव, चरण शरण की बड़ी मुहर, पैरों में सर्व प्रकार के सुवर्ण भूषण, पगड़ी में मांझा वगैरह सब प्रकार की इज़्ज़त इनायत की। गवर्नमेंट अंग्रेजी से मुझको महामहोपाध्याय का ख़िताब मिला।
महाराणा फतहसिंह साहिब ने भी इस इतिहास वीरविनोद की कद्र करके मेरा बहुत कुछ उत्साह बढ़ाया। महाराणा शम्भूसिंह साहिब और महाराणा सज्जनसिंह साहिब ने मुझको यह आज्ञा दी थी कि इस तवारीख में तारीफ़ नहीं होनी चाहिए।”
(इस प्रकार कविराजा ने वीरविनोद ग्रंथ लिखा। महाराणा के कहे अनुसार कविराजा ने यह ग्रंथ बिना तारीफों के निष्पक्ष होकर लिखा। यहां तक कि इस ग्रंथ में महाराणा सज्जनसिंह की कमियों को भी उजागर किया गया। परन्तु फिर भी इस ग्रंथ में कई त्रुटियां हैं, जो बाद वाले इतिहासकारों ने सही की।)
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
वीर विनोद ग्रन्थ की पीडीऍफ़ प्रतिलिपि मेरे पास है