महमूद खिलजी का हाड़ौती अभियान :- 1440 ई. में मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी ने हाड़ौती की तरफ कूच किया। हाड़ौती को महाराणा कुम्भा ने कुछ समय पहले ही जीता था। महमूद को हाड़ौती में कोई खास सफलता नहीं मिली।
महाराणा कुम्भा के भाई द्वारा बग़ावत :- इन्हीं दिनों महाराणा कुम्भा के छोटे भाई क्षेमकर्ण ने मालवा जाकर महमूद खिलजी को मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए उकसाया।
महमूद के लिए क्षेमकर्ण का साथ बहुत महत्वपूर्ण था, क्योंकि क्षेमकर्ण मेवाड़ की भौगोलिक व सैनिक परिस्थितियों से भलीभांति परिचित थे। महमूद ने क्षेमकर्ण को भानपुरा के निकट कोई जागीर दी।
महमूद खिलजी का दिल्ली पर आक्रमण करना व फिर मेवाड़ की तरफ कूच करना :- 1442 ई. में महमूद खिलजी ने दिल्ली पर धावा बोल दिया। दिल्ली का सुल्तान सैयद मोहम्मद भागने लगा, पर उसके मंत्रियों ने उसे आश्वासन देकर रोका।
दोनों के बीच लड़ाई हुई, जो कि अनिर्णीत रही। इस घटनाक्रम से मालूम पड़ता है कि महमूद खिलजी उस समय दिल्ली के सुल्तान से भी ज्यादा शक्तिशाली था। महमूद का इरादा दिल्ली से लौटते वक्त मेवाड़ पर आक्रमण करने का था।
परन्तु इसी समय महमूद को ख़बर मिली कि कालपी के हाकिम अब्दुल कादिर ने बग़ावत कर दी है। महमूद ने कादिर को दंड देना आवश्यक समझकर कालपी की तरफ प्रस्थान किया।
कादिर को इस बात की खबर मिली, तो वह घबराया और उसने अली खां को भारी रकम के साथ महमूद के पास भेजा। ये रकम लेकर महमूद ने कालपी पर हमला करने का विचार छोड़ दिया और मेवाड़ की तरफ कूच किया।
1442-1443 ई. – महमूद खिलजी की मेवाड़ पर चढ़ाई :- मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी ने सारंगपुर के युद्ध में महाराणा कुम्भा से मिली घनघोर पराजय का बदला लेने के लिए फ़ौज समेत मेवाड़ की तरफ़ कूच किया।
महमूद अपनी भारी भरकम फौज के साथ पहाड़ों के किनारे-किनारे होता हुआ बनास नदी को पार करके मेवाड़ पहुंचा। महमूद ने वैसे भी छापामार युद्धों में महारथ हासिल कर रखी थी, इसलिए पहाड़ी घाटे व नाके उसका रास्ता नहीं रोक सके।
मासिर-इ-मोहम्मदशाही के अनुसार “सुल्तान महमूद खिलजी ने अपनी सेना के एक भाग को आदेश दे रखा था कि मुख्य सेना मेरे साथ आगे चलती रहेगी, पर तुम लोगों को जहां-जहां भी मंदिर दिखाई दे, उन्हें तोड़कर मस्जिद बनवाना शुरू कर दो और इस मुल्क के बाशिंदों को कैद करो।”
इस तरह महमूद खिलजी अपनी पिछली शिकस्त को याद करके तबाही मचाता हुआ आगे बढ़ा। वह हर एक पड़ाव पर 2-3 दिन तक रुकता और जब उसकी फौज का एक भाग उक्त पड़ाव व उसके नजदीक सभी मंदिरों का विध्वंस करके लौट आता, तभी वह फ़ौज समेत आगे बढ़ता।
बायण माता के मंदिर का विध्वंस :- महमूद केलवाड़ा गाँव में आया, जहां सिसोदिया वंश की कुलदेवी बायण माता का मंदिर था और महमूद ने उस मंदिर को जीतना चाहा। इस मंदिर के चारों तरफ एक सुरक्षा कोट था। मंदिर के अंदर बायण माता की काले पत्थर की एक मूर्ति थी।
उस मंदिर की रक्षा के लिए दीपसिंह नामक राजपूत सरदार अपनी फ़ौजी टुकड़ी समेत तैनात रहते थे। कहीं-कहीं दीपसिंह के स्थान पर वैणीराय नाम लिखा है। मंदिर के भीतर अस्त्र-शस्त्र पर्याप्त मात्रा में जमा किए हुए थे।
महमूद ने अपने सैनिकों से कहा कि “ये चंद राजपूत हमें चाहे जितना नुकसान पहुंचाए, पर ये मंदिर हमें जीतना ही है” (फिरिश्ता के लिखे अनुसार महमूद को यह मंदिर हर कीमत पर फतह करना था, चाहे उसके लिए कितने ही सैनिक क्यों न मारे जाए।)
दीपसिंह समेत थोड़े बहुत राजपूतों ने बड़ी बहादुरी से 7 दिनों तक महमूद की हज़ारों की फ़ौज को रोके रखा, परन्तु आखिरकार संख्याबल की जीत हुई। दीपसिंह अपने सभी साथी राजपूतों समेत वीरगति को प्राप्त हुए और बड़ी मुश्किल से महमूद को फ़तह नसीब हुई।
फ़ारसी तवारीखों में लिखे वर्णन से महमूद की धर्मांधता का पता चलता है। फिरिश्ता के लिखे अनुसार महमूद ने मंदिर में लकड़ियां भरकर उनमें आग लगवा दी, जिससे तप्त मूर्तियों पर ठंडा पानी डाला गया, तो मूर्तियों के टुकड़े-टुकड़े हो गए।
ये टुकड़े कसाइयों को मांस तोलने के लिए दिए गए और नंदी की मूर्ति का चूना पकवाकर हिन्दुओं को पान में खिलवाया। महमूद ने खुदा का खूब शुक्रिया अदा किया, इस मंदिर को गुजरात के सुल्तान भी फ़तह नहीं कर पाए थे।
केलवाड़ा से चार मील दूर स्थित रिछेड़ आदि गांवों पर महमूद ने आक्रमण किए। इस आक्रमण से ये गांव पूरी तरह से नष्ट हो गए, पशुओं के लिए चारा तक नहीं बचा। यहां के निवासी भाग निकले।
इस समय महाराणा कुम्भा मेवाड़ में नहीं थे। वे सम्भवतः हाड़ौती की तरफ थे या किसी अन्य विजय अभियान पर। लेकिन जब महाराणा कुम्भा को महमूद के आक्रमण की ख़बर मिली, तो महाराणा ने तेज़ी से मेवाड़ की तरफ प्रस्थान किया।
मंदिर तोड़ने के बाद महमूद को ख़बर मिली कि महाराणा कुम्भा चित्तौड़ लौट आए हैं। मंदिर की फतह से महमूद का उत्साह बढ़ा हुआ ही था, इसलिए उसने चित्तौड़ की तरफ कूच किया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)