महाराणा कुम्भा की वागड़ विजय :- डूंगरपुर के शासक ने महाराणा मोकल के अंतिम समय या महाराणा कुम्भा के प्रारंभिक समय में जावर को छीन लिया था। इसलिए महाराणा कुम्भा को डूंगरपुर पर आक्रमण करने का बहाना मिल गया।
इसके अलावा डूंगरपुर को जीतना वैसे भी महाराणा के लिए बहुत महत्वपूर्ण था, क्योंकि यह क्षेत्र मेवाड़ की सीमाओं से लगा हुआ था। महाराणा कुम्भा ने गिरिपुर (डूंगरपुर) पर आक्रमण किया।
डूंगरपुर के शासक रावल गोपीनाथ ने बिना लड़े ही दुर्ग छोड़ दिया और पहाड़ियों में चले गए। कुम्भलगढ़ प्रशस्ति के अनुसार महाराणा कुम्भा ने डूंगरपुर को अश्व सेना की सहायता से विजय किया था।
इसके बाद महाराणा कुम्भा ने जावर को जीतकर मेवाड़ में मिला लिया। महाराणा कुम्भा की डूंगरपुर विजय का वर्णन रणकपुर के शिलालेख (1439 ई.) में नहीं मिलता है।
डूंगरपुर के महारावल सोमदास का एक शिलालेख 1447 ई. का मिला है। इससे यह निश्चित हो जाता है कि महाराणा कुम्भा ने 1439 ई. से 1447 ई. के बीच में डूंगरपुर को जीता था।
कोटड़ा मेवाड़ के हाथों से निकल गया था। महाराणा कुम्भा ने कोटड़ा पर विजय प्राप्त कर उसे फिर से मेवाड़ में मिलाया। कोटड़ा का क्षेत्र भी महाराणा कुम्भा ने डूंगरपुर विजय के दौरान ही विजय किया।
रणकपुर के शिलालेख में महाराणा कुम्भा की विजयों का वर्णन :- महाराणा कुम्भा के शासनकाल में 1439 ई. में रणकपुर का शिलालेख खुदवाया गया। इस शिलालेख में महाराणा कुम्भा के शासनकाल के प्रथम 7 वर्षों में जो प्रदेश जीते गए, उनका वर्णन किया गया है।
इस शिलालेख में लिखा है कि “अपने कालरूपी वन के सिंह महाराणा कुम्भकर्ण ने सारंगपुर (मालवा में स्थित), नागपुर (नागौर), गागरण (गागरोन), नराणक (जयपुर में स्थित नराणा), अजयमेरु (अजमेर), मंडोर, मंडलकर (मांडलगढ़), बूंदी, खाटू, चाटसू आदि सुदृढ और विषम
किलों को अपनी लीलामात्र से ही विजय किया, अपने भुजबल से अनेक उत्तम हाथियों को प्राप्त किया और म्लेच्छ महीपाल (सुल्तान) रूपी सर्पों का गरुड़ के समान दलन किया। प्रचंड भुजदण्ड से जीते हुए अनेक राजा
महाराणा कुम्भकर्ण के चरणों में सिर झुकाते थे। प्रबल पराक्रम के साथ ढील्ली (दिल्ली) और गुर्जरत्रा (गुजरात) के राज्यों की भूमि पर आक्रमण करने के कारण वहां के सुल्तानों ने छत्र भेंट कर उन्हें ‘हिन्दू सुरत्राण’ का विरुद प्रदान किया। वह सुवर्णसत्र (दान, यज्ञ) का निवास स्थान,
छः शास्त्रों में कहे गए धर्म का आधार, चतुरंगिणी सेनारूपी नदियों के लिए समुद्र था और कीर्ति व धर्म के साथ प्रजा का पालन करने और सत्य आदि गुणों के साथ कर्म करने में रामचंद्र और युधिष्ठिर का अनुकरण करता था और सब राजाओं का सार्वभौम (सम्राट) था।”
(ऊपर लिखित कुछ विजयों का वर्णन पिछले भागों में विस्तार से कर दिया गया है और कुछ विजयों का वर्णन अगले भाग में किया जाएगा)
महादानी नरबद राठौड़ द्वारा आँख का दान :- नरबद राठौड़ मंडोवर के राव चूंडा राठौड़ के पौत्र व सत्ता के पुत्र थे। ये राव रणमल के भतीजे थे। एक दिन महाराणा कुम्भा दरबार लगा कर बैठे थे, तभी नरबद की बात निकली।
सभी सर्दारों का कहना था कि नरबद से जो मांगो वो दे देते हैं। महाराणा ने कहा कि ऐसा तो सम्भव नहीं, पर सर्दारों ने फिर अपनी बात दोहराई। महाराणा ने अपने किसी आदमी को ये कहकर नरबद के मकान पर भेजा कि
“नरबद से उसकी आँख मांगना और अगर वो निकालने लगे तो उसे निकालने मत देना”। जब उस आदमी ने आँख मांगी, तभी नरबद को अंदाजा लग गया कि ये महाराणा का आदमी है और मुझे आँख निकालने नहीं देगा।
फिर भी नरबद ने चुपके से अपनी आँख निकाल ली और उसे दे दी। ये खबर महाराणा कुम्भा को मिली, तो वे उसी वक्त नरबद के मकान पर पहुंचे और बहुत पछताये। महाराणा ने नरबद की जागीर डेढ़ गुनी कर दी।
नरबद राठौड़ व सुप्यारदे :- नरबद की सगाई रूण के स्वामी सीहड सांखला की पुत्री सुप्यारदे के साथ तय हुई थी, पर जब नरबद की आंख चली गई और मंडोवर का राज भी हाथों से निकल गया, तो सुप्यारदे की सगाई जैतारण के स्वामी नरसिंह सिंघल के साथ कर दी गई।
एक दिन महाराणा के दरबार में खम्माइच राग गाया गया, तब नरबद राठौड़ ने लंबी श्वास ली। नरबद को दुःखी देखकर महाराणा कुम्भा ने कारण पूछा, तो नरबद ने सारी बात कह दी।
महाराणा कुंभा ने सीहड सांखला से कहलवाया कि अपनी पुत्री का ब्याह नरबद के साथ ही करवाओ। सीहड सांखला ने कहा कि मैं अपनी छोटी पुत्री का ब्याह नरबद से करवा सकता हूं, पर इस बात से नरबद खुश न हुए।
आखिरकार महाराणा के दबाव व नरबद राठौड़ की इच्छाशक्ति के कारण नरबद व सुप्यारदे का ब्याह हुआ। नरबद राठौड़ से संबंधित इन घटनाओं का वर्णन मारवाड़ के इतिहास की पुस्तकों से लिया गया है। बाद में मेवाड़ की प्रामाणिक पुस्तकों ने भी इस घटना को दर्ज किया है।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
क्या ये राव चून्डा जी महाराणा लाखा के पुत्र हि है। और नरबद जी राठौड़ के काका राव रणमल जी हंसा बाई के भाई हि है।