मेवाड़ व मारवाड़ के बीच हुई लड़ाइयों का वर्णन :- 1438 ई. में महाराणा कुम्भा व रावत चूंडा ने मिलकर राव रणमल राठौड़ की हत्या करवा दी। इस वक्त राव रणमल के पुत्र जोधा अपने अन्य राठौड़ साथियों सहित चित्तौड़गढ़ दुर्ग की तलहटी में ही मौजूद थे।
इस वक्त एक बुढिया ने किले से तेज़ आवाज़ में ये दोहा कहा :- “चुंडा अजमल आविया, मांडू हूं धक आग। जोधा रणमल मारिया, भाग सके तो भाग।।”
जोधा भी बड़े बहादुर योद्धा थे। इस वक्त वे अपने साथी राजपूतों समेत दुर्ग की तलहटी में थे। रावत चूंडा भी सैनिकों समेत तलहटी पहुंचे और बड़ी सख्त लड़ाई हुई। इस लड़ाई में जोधा कि तरफ से जो राजपूत काम आए, उनके नाम कुछ इस तरह हैं :-
शिवराज, पूना भाटी, भीमा, वैरीशाल, बरजांग भीमावत, भीम चुण्डावत (राव जोधा के काका), चरढ़ा चन्द्रावत, पृथ्वीराज ईंदा।
जोधा और कांधल दोनों मांडल के तालाब पर पहुंचे। वहां से ये मारवाड़ चले गए। इस समय शत्रुशाल भाटी, जिनको राव रणमल ने चित्तौड़ की किलेदारी दिलवाई थी, वे किला छोड़कर जोधा का साथ देने के लिए मारवाड़ की तरफ लौट गए।
रावत चूंडा भी मारवाड़ पहुंचे और मंडोवर पर कब्जा कर लिया। रावत चूंडा ने अपने पुत्रों कुन्तल, आका व सूवा को वहां तैनात किया। साथ ही हाजा धोरणिया व हिंगलू आहाड़ा को भी वहां तैनात कर दिया।
महाराणा कुम्भा के आदेश से मंडोवर के अतिरिक्त भी इन स्थानों पर निम्न योद्धाओं को तैनात किया गया :- सोजत में राघवदेव राठौड़, विक्रमादित्य झाला, सांचोरा चौहान जैसा, शेखसदू, बीसलदेव पंवार को तैनात किया गया।
रोहिट में मांजा, आस्थान, नरा को तैनात किया गया। चोकड़ी में रावल इदा, बनवीर भाटी, सिंघल दर भाम को तैनात किया गया।
मारवाड़ के इतिहास से मालूम पड़ता है कि राव जोधा जब चित्तौड़ से रवाना हुए तब उनके साथ 700 सवार थे, लेकिन मारवाड़ पहुंचने के बाद 7 ही शेष रह गए थे।
राव जोधा ने काहुनी गांव में पड़ाव डाला। राव जोधा एक वर्ष तक काहुनी में ही रहे व समय-समय पर मंडोवर पर हमले करते रहे, लेकिन सफलता न मिली।
राव जोधा की दशा देखकर महाराणा कुम्भा की दादी हंसाबाई (राव रणमल की बहन व राव जोधा की भुआ) ने महाराणा कुम्भा से कहा कि “मेरे चित्तौड़ ब्याहे जाने से राठौड़ों का हर तरह से नुकसान ही हुआ है। भाई रणमल
ने मोकल के हत्यारे चाचा और मेरा को मारा, मुसलमानों को हराया, मेवाड़ का नाम ऊंचा किया, पर वह भी मरवाया गया और अब उसका बेटा जोधा मरूभूमि में कष्ट भोग रहा है”
ये सुनकर महाराणा कुम्भा ने कहा कि “मैं रावत चुंडा के ख़िलाफ़ तो नहीं जा सकता, क्योंकि जोधा के पिता रणमल ने रावत चूंडा के भाई राघवदेव की हत्या की, इसलिए रावत चूंडा को ये बात अब तक खटकती है। पर आप जोधा से कह दीजिए कि वह मंडोवर पर अधिकार कर ले, मेरी तरफ से कोई मनाही नहीं।”
राव जोधा द्वारा मेवाड़ी थाने हटाना :- हंसाबाई जी ने आशिया चारण डूला को संदेश देकर राव जोधा के पास भेजा। राव जोधा ने पहला हमला चौकड़ी के थाने पर किया, जहां महाराणा कुम्भा की तरफ से लड़ने वाले बनवीर भाटी, राणा वीसलदेव, रावल दूदा आदि योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए।
राव जोधा वहां से रवाना हुए और कोसाणे को जीतते हुए मंडोवर पहुंचे। 1453 ई. में हुई मंडोवर की लड़ाई में महाराणा कुम्भा की तरफ से कई राजपूत काम आए और मंडोवर पर राव जोधा का अधिकार हो गया।
इन लड़ाइयों में मेवाड़ की तरफ से मांजा व हिंगलू आहड़ा भी वीरगति को प्राप्त हुए। हिंगलू आहड़ा की छतरी बालसमन्द झील किनारे अब तक विद्यमान है।
मारवाड़ की ख्यात में अतिशयोक्ति भरा वर्णन लिखा है। ख्यात के अनुसार “राणा कुम्भा ने राव जोधा पर चढ़ाई की। इस समय राव जोधा 20 हज़ार राठौड़ों को बैलगाड़ियों में सवार करके पाली की तरफ जा रहे थे। राव जोधा के नक्कारे सुनकर ही राणा कुम्भा भाग निकला। राव जोधा ने चित्तौड़ तक उसका पीछा किया और गढ़ के दरवाज़े जला दिए।”
जिन महाराणा कुम्भा ने मालवा और गुजरात के सुल्तानों को भयभीत किया हो, वे भला केवल नक्कारे सुनकर कैसे भाग सकते थे। महाराणा कुम्भा उस समय सबसे प्रबल हिन्दू शासक थे, जिनकी प्रशंसा कई फ़ारसी तवारीखों में भी की गई है।
वास्तव में महाराणा कुम्भा ने तो इस समय मारवाड़ पर चढ़ाई की ही नहीं और ना ही राव जोधा के पास इस समय 20 हज़ार की फ़ौज थी। मुहणौत नैणसी ने तो नाटकीय अंदाज़ में मेवाड़ और मारवाड़ की तरफ से एक-एक सामन्त का द्वंद्व युद्ध करवाया जाना भी लिख दिया, जो सत्य से परे है।
आवँल-बांवल की संधि :- हंसाबाई जी के बीच में पड़ने पर राव जोधा और महाराणा कुम्भा के बीच आवँल-बांवल की संधि हुई, जिसमें दोनों राज्यों की सीमाएं तय की गईं। मेवाड़ में आंवलों की अधिकता व मारवाड़ में बबूल की अधिकता के कारण इस सन्धि का नाम आवँल-बांवल पड़ा।
इस संधि के तहत राव जोधा ने अपनी पुत्री श्रृंगार देवी को महाराणा कुम्भा के पुत्र रायमल को ब्याह दी। इन श्रृंगारदेवी ने चित्तौड़ में घोसुंडी की बावड़ी बनवाई, जिसकी प्रशस्ति में इस विवाह का वर्णन खुदवाया गया। चित्तौड़गढ़ दुर्ग में स्थित श्रृंगार चँवरी मन्दिर का संबंध भी श्रृंगार देवी से बताया जाता है।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)