महाराणा कुम्भा की सिरोही व आबू विजय :- महाराणा मोकल के देहांत से कुछ समय पहले मेवाड़ की शक्ति को कमजोर समझकर सिरोही के राव सैंसमल/सहसमल देवड़ा ने सिरोही से जुड़े हुए मेवाड़ के कुछ गांवों पर अवैध कब्ज़ा कर लिया।
राव सहसमल काफी प्रतिभाशाली थे। उन्होंने 1425 ई. में वर्तमान सिरोही नगर की स्थापना कर दी। जिस समय मेवाड़ के महाराणा मोकल नागौर के शासक से युद्धों में व्यस्त थे, उस समय राव सहसमल ने पिंडवाड़ा से जुड़े हुए मेवाड़ के गांवों पर अधिकार कर लिया।
राव सहसमल की इस गतिविधि ने महाराणा कुम्भा को सिरोही पर आक्रमण करने का बहाना दे दिया। महाराणा कुम्भा जानते थे कि गुजरात की तरफ से यदि कोई आक्रमण हुआ, तो वह पश्चिमी भाग से ही होगा।
यह विचार करके महाराणा कुम्भा ने सिरोही पर एक फ़ौज भेजने का निश्चय किया। महाराणा कुम्भा ने नरसिंह डोडिया को फौज देकर कहा कि मेवाड़ के गांवों समेत सिरोही के इलाकों पर भी कब्ज़ा कर लो। डोडिया नरसिंह को शत्रुशाल का पुत्र बताया जाता है।
मेवाड़ी फौज ने सिरोही के आबू, भूला, वसंतगढ़, नांदिया, चुरड़ी आदि इलाकों समेत सिरोही का पूर्वी भाग देवड़ा राजपूतों से छीनकर मेवाड़ में मिला दिया।
प्रत्येक शासक के समयकाल में लिखित ग्रंथों या ख्यातों में कई अतिश्योक्तियां भी होती थीं, लेकिन वास्तविक इतिहास तभी मालूम पड़ता है जब इन ग्रंथों की वास्तविकता को अन्य स्रोतों से मिलान करके सिद्ध किया जाए।
ख्यातों में कितना पक्षपात होता था, इसका एक उदाहरण यहां देखा जा सकता है। सिरोही की ख्यात में लिखा है कि “महाराणा कुम्भा गुजरात के सुल्तान की फ़ौज से हारकर महाराव लाखा देवड़ा की अनुमति से आबू में रहा था। सुल्तान की फ़ौज के लौट जाने पर राणा को आबू खाली
करने को कहा गया, पर उसने स्वीकार नहीं किया। फिर महाराव लाखा ने उसको पराजित करके आबू छीन लिया। महाराव लाखा ने प्रण लिया कि भविष्य में किसी राजा को आबू पर नहीं चढ़ने देंगे। 1836 ई. में जब मेवाड़ के
महाराणा जवानसिंह ने आबू की यात्रा करनी चाही, तब मेवाड़ के पोलिटिकल एजेंट कर्नल स्पियर्स ने बीच में पड़कर महाराणा जवानसिंह के लिए आबू पर जाने की मंजूरी दिलवाई, तब से राजा लोग आबू पर जाने लगे।”
सिरोही की ख्यात के ऊपर लिखित समस्त वर्णन को गलत सिद्ध करने के लिए केवल एक ही प्रमाण पर्याप्त है और वो है महाराणा कुम्भा द्वारा 1437 ई. में जारी किया गया ताम्रपत्र। इस ताम्रपत्र के अनुसार महाराणा कुम्भा ने सिरोही के अजारी परगने के चुरड़ी गांव में भूमिदान किया।
इस ताम्रपत्र के अनुसार महाराणा कुम्भा ने आबू के ऋषिकेश आश्रम से आते समय वहां एक नैवेद्य की व्यवस्था के लिए दान किया। यह स्थान आबू की तलहटी में है।
इसका अर्थ ये है कि महाराणा कुम्भा ने सिरोही के ये क्षेत्र 1437 ई. या इससे कुछ समय पहले जीत लिए थे। 1437 ई. में सिरोही पर महाराव लाखा का नहीं, बल्कि महाराव सैंसमल का अधिकार था। महाराव लाखा तो 1451 ई. में सिरोही की गद्दी पर बैठे।
महाराणा कुम्भा ने आबू की तलहटी भी अपने अधीन कर ली थी, परन्तु यह क्षेत्र देवड़ा राजपूतों ने पुनः जीत लिया। इसके बाद महाराणा कुम्भा ने आबू पर एक आक्रमण और किया था।
महाराणा कुम्भा द्वारा सिरोही के इन क्षेत्रों को जीतने तक उनका सामना किसी गुजराती सुल्तान से हुआ ही नहीं था, तो महाराणा कुम्भा के गुजरात से पराजित होकर लौटने की बात ही कल्पित है।
परन्तु कुछ इतिहासकारों ने सिरोही के मुख्य दुर्ग को भी महाराणा कुम्भा द्वारा जीतने का समय 1437 ई. लिख दिया गया, जो कि गलत है। क्योंकि 1440 ई. तक सिरोही के दुर्ग में देवड़ा राजपूत शासकों के शिलालेख मिलते हैं।
आबू से महाराणा कुम्भा का पहला शिलालेख 1449 ई. का मिला है। इस शिलालेख के अनुसार महाराणा कुम्भा ने आबू के जैन यात्रियों से लिए कर (टैक्स) माफ किया। 1452 ई. में महाराणा कुम्भा ने अचलगढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया।
1458 ई. में लिखित ‘खरतरगच्छ वसही’ में स्पष्ट रूप से लिखा है कि आबू के दुर्ग पर महाराणा कुम्भा का अधिकार था।
इतिहासकार सोमानी जी ने महाराणा कुम्भा की सिरोही व आबू विजय का वर्ष 1443 ई. के आसपास माना है। महाराणा कुम्भा के शिलालेखों से ज्ञात होता है कि महाराणा कुम्भा के जीवनकाल तक आबू का क्षेत्र उनके अधीन ही रहा।
कीर्तिस्तंभ प्रशस्ति में लिखा है कि “महाराणा कुम्भा ने शीघ्रगामी घोड़ों को भेजकर आबू के किले को अपने अधिकार में लिया और वहां सैनिक भेजकर तलवार के बल से आबू विजय किया।”
महाराणा कुम्भा की सिरोही विजय का एक प्रमाण मिराते सिकंदरी से भी मिलता है। इस तवारीख में लिखा है कि “सिरोही के राव ने सुल्तान कुतुबुद्दीन से कहा कि मेवाड़ के राणा कुम्भा ने मेरे बाप दादों का आबू का किला छीन लिया है, वह मुझे वापिस दिला दो।”
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)