मेवाड़ के महाराणा लाखा (भाग – 1)

महाराणा लाखा का परिचय :- शिलालेखों में महाराणा लाखा का नाम लक्ष्मणसिंह व लक्षसिंह भी मिलता है। इनके पिता महाराणा क्षेत्रसिंह थेे व माता जायल के मालिक धारू आंदलोत खींची चौहान की पुत्री थींं।

महाराणा लाखा का व्यक्तित्व :- महाराणा लाखा धर्म परायण, वीर व दानी थे। ये महाराणा अक्सर हंसी-मजाक किया करते थे। पिछले महाराणाओं की तुलना में इन महाराणा के शासनकाल में मेवाड़ धन संपदा के मामले में बहुत अधिक सम्पन्न था।

जोगा दुर्ग के मालिक से लड़ाई :- महाराणा लाखा ने अपने कुंवरपदे काल में जोगा नामक दुर्ग के स्वामी को पराजित किया व उसके हाथी-घोड़े सब छिन लिए। एकलिंगजी मंदिर के दक्षिण द्वार की प्रशस्ति में इस घटना का ज़िक्र है।

राज्याभिषेक :- पिता महाराणा क्षेत्रसिंह के देहांत के बाद 1382 ई. में महाराणा लाखा का राज्याभिषेक चित्तौड़गढ़ दुर्ग में सम्पन्न हुआ।

जावर की खान :- महाराणा लाखा के समय जावर में चाँदी व सीसे की खान निकली, जिससे राज्य को सैकड़ों वर्षों तक बड़ा फायदा होता रहा। इसी खान के कारण जावर एक कस्बा बन गया और कई मंदिर भी यहां बनवाए गए।

महाराणा लाखा

आमेर में कार्यवाही :- महाराणा लाखा ने नागरचाल के मालिक किसी सांखला राजपूत को आमेर में पराजित किया।

डोडिया राजपूतों का मेवाड़ आगमन :- महाराणा लाखा की माता सोलंकिनी द्वारिकानाथ के दर्शनों को पधारीं। काठियावाड़ पहुंचने पर एक लूटेरी कौम काबों ने हमला कर दिया। मेवाड़ी राजपूतों ने बहादुरी दिखाई, पर काबों की संख्या ज्यादा थी।

तभी शार्दूलगढ़ के राव सिंह डोडिया ने अपनी फौज के साथ मेवाड़ी फौज का साथ दिया और वीरगति को प्राप्त हुए। राव सिंह डोडिया के पुत्र कालू और धवल ने काबों को पराजित किया।

वे मेवाड़ की राजमाता को अपने ठिकाने में ले गए और वहां जाकर घायलों का इलाज करवाया। फिर ये दोनों भाई राजमाता को मेवाड़ की सीमा में पहुंचाकर लौट गए। महाराणा को अपनी माता से इस घटना का पता चला, तो उन्होंने धवल को पत्र लिखकर चित्तौड़ बुलाया।

महाराणा लाखा ने धवल को रत्नगढ़, नंदराय, मसूदा आदि 5 लाख की जागीरें दीं। 1387 ई. में महाराणा लाखा ने डोडिया धवल को अपना उमराव बनाया। वर्तमान में राजसमन्द जिले में स्थित सरदारगढ़ इन्हीं धवल के वंशजों का ठिकाना है।

शेर खां से लड़ाई :- महाराणा लाखा की माता जब गयाजी के दर्शनों को पधारीं, तो महाराणा ने धवल डोडिया को बहुत सी फौज देकर साथ में भेजा। इस बार छप्पर घाटा के हाकिम शेर खां से लड़ाई हुई। धवल डोडिया ने शेर खां को पराजित किया।

डोडिया राजपूतों का ठिकाना – सरदारगढ़

गयासुद्दीन से लड़ाई :- महाराणा लाखा के शासनकाल में दिल्ली के सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक द्वितीय ने मेवाड़ पर हमला किया। महाराणा लाखा ने गयासुद्दीन को करारी शिकस्त दी।

सरदारगढ़ के इतिहास में लिखा है कि धवल डोडिया के पुत्र हरू डोडिया ने इस लड़ाई में गयासुद्दीन के विरुद्ध लड़ते हुए वीरगति पाई।

बदनोर पर अधिकार :- महाराणा लाखा के शासनकाल में बदनोर में मेर जाति के लोगों ने बगावत कर दी। महाराणा ने फौज समेत कूच कर वहां के मेरों का दमन कर बदनोर पर अधिकार किया और वहां मौजूद बैराट का किला गिरवा दिया। बदनोर का पुराना नाम ‘वर्धन’ था।

कुम्भलगढ़ की प्रशस्ति (1460 ई.) में लिखा है कि “उग्र तेज वाले महाराणा लाखा का रणघोष सुनते ही मेरों का धैर्य ध्वंस हो गया, बहुत से मेर मारे गए और उनका वर्धन नामक पहाड़ी प्रदेश महाराणा द्वारा छीन लिया गया।”

गोडवाड़ विजय :- मेवाड़ शासकों में गोडवाड़ जीतने वाले पहले शासक महाराणा लाखा ही थे। 1386 ई. तक यह क्षेत्र बनवीर चौहान के अधिकार में था। गोड़वाड़ के कोट सोलंकियान नामक स्थान से महाराणा लाखा के समय का एक शिलालेख मिला है, जो कि 1418 ई. का है।

धार्मिक स्थलों को कर मुक्त करवाना :- काशी, प्रयाग व गया में मुस्लिम सिपाही बहुत सा कर वसूला करते थे। हिंदुओं के लिए यह बहुत कष्टदायी था। जब धर्म परायण महाराणा लाखा वहां दर्शन हेतु पधारे तो उन्होंने बहुत सा स्वर्ण देकर करार करके इन 3 पवित्र तीर्थ स्थानों को कर से मुक्त करवाया।

श्रृंगी ऋषि के शिलालेख के अनुसार महाराणा लाखा ने गया को करमुक्त करने के लिए स्वर्ण के साथ-साथ बहुत से घोड़े भी दिए थे। महाराणा लाखा के इस परोपकार के कारण यहां आने वाले यात्रियों व यहां के निवासी हिंदुओं ने महाराणा को बहुत सम्मान दिया।

जैन आचार्य का देलवाड़ा आगमन :- 1393 ई. में जैन आचार्य सोमसुंदर सूरी मेवाड़ के देलवाड़ा गांव में पधारे। मेवाड़ के प्रधान रामदेव नवलखा ने आचार्य का स्वागत किया। महाराणा लाखा, कुँवर चुंडा व सचिव रामदेव आचार्य से भेंट करने देलवाड़ा पधारे। कुँवर चुंडा इस समय मेवाड़ के मुख्यमंत्री थे।

देलवाड़ा जैन मंदिर

1396 ई. – मेवाड़ पर ज़फ़र का हमला :- गुजरात के सूबेदार ज़फ़र ने मांडलगढ़ दुर्ग पर आक्रमण किया, लेकिन दुर्ग जीतने में असफ़ल रहा।

वहां से ज़फ़र सांभर, डीडवाना तक गया और लौटते समय मेवाड़ के देलवाड़ा और झीलवाड़ा पर हमला किया। मेवाड़ी बहादुरों ने मेवाड़ के किसी भी क्षेत्र पर ज़फ़र का अधिकार नहीं होने दिया।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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