मालदेव सोनगरा को चित्तौड़गढ़ का हाकिम नियुक्त करना :- अलाउद्दीन खिलजी ने जालौर के मालदेव सोनगरा चौहान को फौज समेत चित्तौड़ भेजा। अलाउद्दीन ने चित्तौड़ के किले से अपना अधिकार हटा लिया और किला मालदेव को कुछ शर्तों के आधार पर सौंप दिया।
इन शर्तों के तहत जब भी सुल्तान किसी युद्ध के लिए बुलाये, तो मालदेव 5,000 घुड़सवार और 10,000 पैदल फौज के साथ हाजिर हो जाये। इसके अलावा हर साल चित्तौड़ के मुल्क से होने वाली आमदनी का एक बड़ा हिस्सा सुल्तान तक पहुंचा दिया जावे।
दिल्ली सल्तनत का हाल :- 1316 ई. में अलाउद्दीन खिलजी के मरने के बाद उसका 7 वर्ष का बेटा शहाबुद्दीन खिलजी सल्तनत के तख़्त पर बैठा। 1317 ई. में अलाउद्दीन के दूसरे बेटे मुबारक शाह ने अपने भाई शहाबुद्दीन को अंधा करके ग्वालियर भेज दिया और ख़ुद तख़्त पर बैठा।
1320 ई. में मलिक खुसरो खां मुबारकशाह को मारकर तख़्त पर बैठा और ख़ुद को सुल्तान नासिरूद्दीन के नाम से प्रसिद्ध किया। इसी वर्ष मलिक गाज़ी ने नासिरूद्दीन को मार दिया और तख़्त पर बैठकर ख़ुद को सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक के नाम से प्रसिद्ध किया।
मालदेव सोनगरा का देहांत :- 1321 ई. में चित्तौड़ पर लगभग 7 वर्ष राज करने के बाद मालदेव सोनगरा चौहान की किले में ही मृत्यु हो गई, जिसके पीछे उनका बेटा जैसा चौहान चित्तौड़ का मालिक बना।
1321 ई. का एक शिलालेख चित्तौड़गढ़ दुर्ग से मिला है। यह शिलालेख सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक के सिपहसालार मलिक असदुद्दीन ने खुदवाया। चित्तौड़ से गयासुद्दीन के सिक्के भी मिले हैं।
इससे पता चलता है कि किले की देखरेख भले ही जालोर के सोनगरा कर रहे थे, लेकिन मूल रूप से किले पर कब्ज़ा गयासुद्दीन तुगलक का ही था। 1325 ई. में गयासुद्दीन तुगलक छत गिरने से दबकर मर गया। उसका बेटा उलग खां ने तख़्त पर बैठकर खुद को मुहम्मदशाह तुगलक के नाम से प्रसिद्ध किया।
महाराणा हम्मीर का चित्तौड़गढ़ पर अधिकार व राज्याभिषेक :- महाराणा हम्मीर ने मेवाड़ की प्रजा को पहाड़ों में रहने का आदेश दिया, जिससे की लड़ाई-फसाद वगैरह से प्रजा को नुकसान न हो। प्रजा के पहाड़ों में जाने से जैसा सोनगरा के लिए खर्च चलाना मुश्किल हो गया।
महाराणा हम्मीर ने चित्तौड़ दुर्ग पर बहुत से हमले किए, पर अधिकार न जमा पाए। उनके पास फौजी ताकत न के बराबर थी। वे द्वारिकापुरी की तरफ निकले। जब वे गुजरात के खोड़ गाँव में पहुंचे, तो वहाँ चखड़ा चारण की बेटी बरबड़ी चारण नाम की एक अमीर औरत (देवी) ने उनकी मदद की।
महाराणा हम्मीर ने कहा कि “मेरे पास न तो घोड़े हैं और ना लड़ाई का सामान है।” बरबड़ी चारण ने कहा कि “चित्तौड़ तुम्हें मिलेगा, तुम केलवाड़ा चले जाओ, वहां मेरा बेटा बारू 500 घोड़े लेकर आ जाएगा। तुम उन घोड़ों से अपना काम निकाल लेना, धन जब तुम्हारे पास हो, तब देना।”
बरबड़ी चारण ने अपने बेटे बारू को 500 घोड़ों समेत महाराणा हम्मीर के पास भेज दिया। महाराणा हम्मीर ने खुश होकर बारू को केलवाड़ा के पास 12 गांवों समेत आंतरी गाँव की जागीर दी और इस आशय का एक ताम्रपत्र लिखकर बारू को दे दिया।
यहां अब तक बारू के वंशज रहते हैं। महाराणा हम्मीर ने बारू को अपना विश्वासपात्र बनाया, अपनी पोल का नेग दिया और अपना बारहट बना लिया।
महाराणा हम्मीर ने अपनी पुरजोर ताकत से चित्तौड़ के किले पर हमला किया और जैसा चौहान को पराजित कर दुर्ग पर अधिकार किया। ग्रंथ वीर विनोद व अन्य ख्यातों के अनुसार ये किला महाराणा हम्मीर ने मालदेव से छल से जीता था।
इन ग्रंथों के अनुसार मालदेव ने जालौर में अपनी पुत्री का ब्याह महाराणा से करवाया, तो महाराणा ने दहेज में जाल मेहता को मांग लिया। जाल मेहता के ज़रिए महाराणा ने किले में गुप्त रूप से प्रवेश करके अचानक हमला किया और विजय प्राप्त की।
जेम्स टॉड ने मालदेव की पुत्री को विधवा होना लिखा है, जिसको डॉ. ओझा ने तर्कों सहित गलत सिद्ध किया है। उस समय विधवा विवाह जैसी प्रथा प्रचलित नहीं थी।
यह घटना सत्य नहीं है, क्योंकि उस वक़्त मालदेव जीवित ही नहीं थे, इसलिए ओझा जी का मत सही है कि ये किला महाराणा ने जैसा चौहान से छल या बल से जीता। इसके अतिरिक्त जालौर में महाराणा हम्मीर का विवाह नहीं हो सकता था, क्योंकि जालौर पर इस समय मुस्लिम हाकिम तैनात थे।
30 वर्षों से ज्यादा समय से शत्रुओं के हाथों में रही चित्तौड़गढ़ की भूमि को पुनः विजय करके महाराणा हम्मीर ने यहां की मिट्टी को अपने माथे से लगाया और गढ़ में प्रवेश किया। यह विजय इतनी बड़ी थी कि इसके लिए महाराणा हम्मीर को मेवाड़ का उद्धारक कहा जाता है।
महाराणा हम्मीर के धैर्य की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है। कई वर्षों तक पहाड़ी इलाकों में रहे, लेकिन चित्तौड़ विजय के स्वप्न को साकार करना नहीं भूले। उन्होंने इस महान कार्य को पूरा करने के लिए मेवाड़ की प्रजा को पहाड़ों में भेजकर समतल भूमि को उजाड़ दिया।
प्रजा को भी कई कष्ट भोगने पड़े, परन्तु अंततः जब चित्तौड़ पर महाराणा हम्मीर का अधिकार हुआ, तो प्रजा महाराणा की जय-जयकार करने लगी।
विचार करना चाहिए कि जिस गढ़ को जीतने के लिए महाराणा हम्मीर ने वर्षों तक पहाड़ों में रहकर संघर्ष किया, सेना एकत्र की, लड़ने के साधन जुटाए, घोड़े-हाथी आदि का बंदोबस्त किया, प्रजा के प्राणों की रक्षा की और आखिरकार गढ़ पर विजय प्राप्त की, उस गढ़ में आज कई इमारतें हैं, जिनकी मरम्मत तक ठीक से नहीं हो पा रही है।
बहरहाल, महाराणा हम्मीर ने चित्तौड़गढ़ में अपने राज्याभिषेक का उत्सव मनाया और इसी समय उन्होंने ‘महाराणा’ की उपाधि धारण की। यह उपाधि धारण करने वाले वे मेवाड़ के पहले शासक थे।
महाराणा हम्मीर द्वारा चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर अधिकार की तिथि को लेकर इतिहासकार रामवल्लभ सोमानी जी का मत :- 1335 ई. के करेड़ा के जैन मंदिर शिलालेख के अनुसार चित्तौड़गढ़ पर इस समय पृथ्वीचंद्र का शासन होना लिखा है।
सिलहदार मोहम्मद देव और मालदेव के पुत्र बनवीर आदि के चित्तौड़ में होने का उल्लेख है। पृथ्वीचंद्र या तो बनवीर का ही एक अन्य नाम हो सकता है या फिर सम्भव है कि जालोर के सोनगरा परिवार के ही कोई सदस्य हों।
इसलिए सोमानी जी के अनुसार यह दुर्ग महाराणा हम्मीर ने 1326 में नहीं, बल्कि 1335 ई. के बाद फ़तह किया। डॉ. ओझा ने अपने अनुमान से 1326 ई. के आसपास महाराणा हम्मीर की चित्तौड़ विजय होना लिखा है।
सम्भवतः ओझा जी को करेड़ा का शिलालेख नहीं मिला था। यह शिलालेख मिलने के बाद निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि महाराणा हम्मीर ने यह दुर्ग 1335 ई. के बाद ही जीता था।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)