मेवाड़ के उद्धारक – महाराणा हम्मीर (भाग – 1)

महाराणा हम्मीर का परिचय व उपाधियां :- महाराणा हम्मीर के पिता अरिसिंह जी व माता देवी चंदाणा चौहान थीं। मेवाड़ के गौरव को पुनर्स्थापित करने के कारण महाराणा हम्मीर को ‘मेवाड़ का उद्धारक’ भी कहा जाता है।

विषम घाटी पंचानन :- अर्थात विपरीत परिस्थितियों में भी शेर के समान। यह उपाधि महाराणा हम्मीर को कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति में दी गई, जो कि महाराणा कुम्भा के समय में खुदवाई गई। महाराणा कुम्भा द्वारा लिखी गई रसिकप्रिया की टीका में भी यह उपाधि दी गई है।

वीर राजा की उपाधि महाराणा कुम्भा द्वारा लिखी गई रसिकप्रिया की टीका में दी गई है। महाराणा की पदवी धारण करने वाले मेवाड़ के पहले शासक महाराणा हम्मीर थे।

महाराणा हम्मीर के जन्म का वृत्तांत :- मेवाड़ के रावल रतनसिंह के सामंत राणा लक्ष्मणसिंह के ज्येष्ठ पुत्र कुंवर अरीसिंह, जो कि अपने देहांत से कुछ वर्ष पूर्व एक बार शिकार के लिए ऊनवा नामक गाँव में गए।

महाराणा हम्मीर

ऊनवा गांव वर्तमान राजसमन्द में खमनौर के निकट स्थित है। वहां अरीसिंह के हाथ का तीर लगने से एक घायल जंगली सुअर जवार के खेत में जा घुसा।

कुंवर अरीसिंह भी उसी खेत में घोड़ा दौड़ाने को आगे बढ़े, की तभी उस खेत वाले ग्रामीण राजपूत की लड़की ने कुंवर को रोका और कहा कि “आप हमारी फसल बर्बाद ना करें, सुअर को मैं बाहर ले आती हूं।”

इतना कहकर उस बहादुर राजपूत कन्या ने लाठी से सुअर को खेत के बाहर कर दिया। कुछ स्रोतों के अनुसार उस लड़की ने जवार से ही उस सुअर को मार दिया।

कुंवर अपने साथियों समेत वहीं आम के पेड़ की छांव में विश्राम करने लगे, कि तभी उसी कन्या ने पक्षियों को उड़ाने के लिए गोंफ़न से पत्थर चलाया, जो कुंवर के साथी के घोड़े के पैर में जा लगा और घोड़े का पैर टूट गया।

फिर वह कन्या दूध की मटकी सिर पर रखकर दो भैंस के बच्चों को साथ लेकर जाती हुई दिखाई दी। वह उन भैंस के बच्चों को इस तरह काबू में किये हुए थी कि सिर पर रखे मटके से दूध की एक बूंद तक बाहर नहीं गिरी।

कुंवर अरीसिंह उस लड़की के बल और साहस से बड़े प्रभावित हुए वे उस लड़की के पास गए और उससे पूछा कि “तू किसकी बेटी है ?” लड़की ने जवाब दिया कि “चंदाणा राजपूत की बेटी हूँ”

चंदाणा राजपूतानी द्वारा जंगली सुअर को मारने का दृश्य

चंदाणा चौहान राजपूतों की एक शाखा है। मुहणौत नैणसी ने इनको सोनगरा चौहान की पुत्री होना लिखा है व नाम देवी होना लिखा है। ‘बांकीदास री ख्यात’ के अनुसार महाराणा हम्मीर के नाना का नाम भोज बलवीरोत चंदाणा था।

कुंवर अरीसिंह ने विचार किया कि यदि इस बलवती कन्या से विवाह हो जाये तो जो पुत्र होगा वो बड़ा ही बलवान होगा। कुंवर अरीसिंह ने अपने पिता की आज्ञा लिए बगैर ही उस कन्या के पिता को अपनी इच्छा बताई।

कन्या के पिता ने सहर्ष स्वीकार कर लिया, क्योंकि वे अपनी पुत्री का विवाह राजघराने में होने से खुश थे। कुंवर ने उस कन्या के साथ विवाह कर लिया। अपने पिता की अप्रसन्नता का भय होने से कुंवर अरीसिंह उस कन्या को महल नहीं ले गए।

शिकार के बहाने वे अक्सर ऊनवा गांव जाया करते थे, इस तरह अपने ननिहाल में ही वीर बालक हम्मीर का जन्म हुआ। वीर हम्मीर का जन्म 1302 ई. या इससे कुछ समय पहले हुआ।

1303 ई. में अलाउद्दीन खिलजी की फौज से लड़ते हुए अरीसिंह अपने 6 भाइयों समेत बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। उनके एक भाई राणा अजयसिंह जीवित बचे। राणा अजयसिंह मेवाड़ के सामंत थे, ना कि शासक।

अरिसिंह के देहांत का समाचार वीर हम्मीर की माता के पास पहुंचा, तब भी उन्होंने अपने पुत्र को जगजाहिर नहीं होने दिया। क्योंकि यदि खिलजियों को मालूम पड़ता कि मेवाड़ का उत्तराधिकारी जीवित है, तो वे उन्हें मार देते।

राणा अजयसिंह के अतिरिक्त राजपरिवार का कोई सदस्य उस समय मौजूद नहीं था, जो मेवाड़ की गद्दी संभाल सके इसलिए उन्होंने शासन अपने हाथ में लिया। वास्तविकता में देखा जाए, तो इस समय मेवाड़ में खिलजियों का परचम ही लहरा रहा था।

राजधानी चित्तौड़गढ़ पर खिलजियों का कब्ज़ा था। मेवाड़ वाले सिसोदा गांव से शासन संचालित कर रहे थे। कुछ समय बाद 1310 ई. के आसपास राणा अजयसिंह को ज्ञात हुआ कि उनके ज्येष्ठ भाई अरीसिंह का एक पुत्र ऊनवा गांव में अपनी माँ के साथ रहता है।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग का एक हिस्सा

राणा अजयसिंह को सत्ता की लालसा नहीं थी। वे हृदय से मेवाड़ की गद्दी पर वास्तविक उत्तराधिकारी के शासन को देखना चाहते थे और उनके अधीन रहकर मेवाड़ की सेवा करना चाहते थे।

राणा अजयसिंह ने फौरन अपने बड़े भाई की पत्नी और भतीजे हम्मीर को अपने पास बुला लिया। इस समय राणा अजयसिंह सिसोदा गांव में रहा करते थे। यह गांव राणा अजयसिंह का जागीरी गांव था।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

error: Content is protected !!