अलाउद्दीन के चित्तौड़ दुर्ग में आने की सही वजह कुछ इस तरह है :- जब अलाउद्दीन बादशाही फौज के साथ चित्तौड़ के करीब आया, तो रावल रतनसिंह की फौजी टुकड़ियों ने महलों से बाहर निकलकर कई छोटी-बड़ी लड़ाईयाँ लड़ी।
घेराबंदी के चौथे माह में राजपूतों ने खिलजियों की सेना को भारी नुकसान पहुंचाया। आखिरकार थक-हारकर अलाउद्दीन ने रावल रतनसिंह को खत लिखा कि “हमें हमारे कुछ आदमियों समेत किले में आने देवें, जिससे हमारी बात रह जावे, फिर हम चले जायेंगे”
रावत रतनसिंह ने ये प्रस्ताव स्वीकार कर अलाउद्दीन को 100-200 आदमियों समेत दुर्ग में आने दिया। अलाउद्दीन ने अपनी नाराज़गी छिपाकर रावल रतनसिंह से दोस्ताना बर्ताव किया। जब रुखसत का समय हुआ, तो रावल रतनसिंह सुल्तान अलाउद्दीन को दुर्ग से बाहर पहुंचाने गए।
इस समय अलाउद्दीन रावल रतनसिंह का हाथ पकड़कर दोस्ती की बातें करता हुआ दुर्ग से बाहर चलने लगा व मौका देखकर अपनी छुपी हुई फौज को बाहर निकालकर रावल का अपहरण कर अपने डेरों में ले गया।
जायसी के अनुसार रावल रतनसिंह को बंदी बनाकर दिल्ली ले जाया गया। जायसी की यह बात बिल्कुल गलत है। रावल रतनसिंह को चित्तौड़ के बाहर खिलजियों के शिविर में ही ले जाया गया था, ना कि दिल्ली।
1303 ई. में किले वालों ने अलाउद्दीन के डेरों पर जाकर कई बार बातचीत कर रावल रतनसिंह को छुड़ाने की कोशिश की, पर हर बार अलाउद्दीन ने रानी पद्मिनी के बदले रावल को छोड़ने की बात कही।
इतिहास में कुछ ऐसे योद्धा भी हुए, जिनके नाम हमेशा साथ-साथ ही लिए जाते हैं, जैसे :- जयमल-पत्ता, जैता-कूम्पा, सातल-सोम, आल्हा-ऊदल। इसी तरह रानी पद्मिनी के समय गोरा-बादल नाम के योद्धा थे।
गोरा-बादल ने चित्तौड़ के सभी सर्दारों से सलाह-मशवरा किया कि किस तरह रावल रतनसिंह को छुड़ाया जावे। आखिरकार गोरा-बादल ने एक योजना बनाई।
अलाउद्दीन को एक खत लिखा गया कि, रानी पद्मिनी एक बार रावल रतनसिंह से मिलना चाहती हैं, इसलिए वह अपनी सैकड़ों दासियों के साथ आयेंगी। अलाउद्दीन इस प्रस्ताव से बड़ा खुश हुआ।
कुल 800 डोलियाँ तैयार की गईं और इनमें से हर एक के लिए 16-16 राजपूत कहारों के भेष में मुकर्रर किए। बड़ी डोलियों के लिए 4 की बजाय 16 कहारों की जरुरत पड़ती थी।
इस तरह हजारों राजपूतों ने डोलियों में हथियार वगैरह भरकर अलाउद्दीन के डेरों की तरफ प्रस्थान किया, गोरा-बादल भी इनके साथ हो लिए।
कवि लोग खयाली बातें लिखते हैं कि इन डोलियों में सच में दासियाँ और रानी पद्मिनी थीं, तो कुछ कवि लोगों के मुताबिक रानी पद्मिनी की जगह उनकी कोई सहेली थी। हालांकि ये बातें समझ से परे हैं, क्योंकि रानी पद्मिनी और महल की कोई भी स्त्री इन पालकियों में सवार नहीं थीं।
गोरा-बादल कई राजपूतों समेत सबसे पहले रावल रतनसिंह के पास पहुंचे। जनाना बन्दोबस्त देखकर शाही मुलाज़िम पीछे हट गए। गोरा-बादल ने फौरन रावल रतनसिंह को घोड़े पर बिठाकर दुर्ग के लिए रवाना किया।
अलाउद्दीन ने हमले का आदेश दिया, फिर लड़ाई हुई, जिसमें सुल्तान के हजारों लोग कत्ल हुए। गोरा-बादल भी कईं राजपूतों के साथ वीरगति को प्राप्त हुए।
बादल जूझण जब चल्यो, माता आई ताम। रे बादल तै क्या किया, रे बालक परवाण।। अर्थात बादल जब युद्ध में लड़ने के लिए रवाना होने वाला था, तब उसकी माता आई और बोलीं कि बादल तू अभी बालक है।
माता बालक क्यूं कहो, रोई न मांग्यो ग्रास। जे खग मारू साह सिर, तो कहियो साबास।। अर्थात बादल उत्तर देता है कि हे माता, तुम मुझे बालक क्यों कहती हो, मैंने तो कभी रोकर खाने को नहीं मांगा। मुझे तो तब शाबाशी देना, जब मैं अपनी तलवार से सुल्तान के सिर पर तलवार मारूँ।
रानी पद्मिनी के नेतृत्व में चित्तौड़ के इतिहास का पहला जौहर हुआ। अपने सतीत्व की रक्षा के लिए 1600 क्षत्राणियों ने जौहर किया। कई ग्रंथों में 16000 संख्या लिखी गई है। किले से उठते धुंए को देखकर खिलजियों की सेना भी सोच में पड़ गई थी कि आखिर भीतर हुआ क्या है।
जौहर का समय :- कई पुस्तकों में फरवरी, 1303 ई. में जौहर होना लिखा गया है। हालांकि इनमें से एक भी समकालीन पुस्तक नहीं है और मैं इस तिथि से सहमत नहीं हूं।
इसके प्रमुख कारण ये हैं :- सवर्प्रथम तो 2 तिथियां बिल्कुल तय हैं, जिसके समकालीन प्रमाण भी हैं। अलाउद्दीन खिलजी 28 जनवरी, 1303 ई. को चित्तौड़ आया व 26 अगस्त, 1303 ई. को चित्तौड़ पर उसका कब्ज़ा हुआ।
समकालीन लेखक ज़ियाउद्दीन बरनी ने लिखा है कि घेराबंदी के चौथे माह में राजपूतों ने खिलजियों की सेना को बहुत नुकसान पहुंचाया।
निश्चित रूप से अलाउद्दीन खिलजी ने इस घटना के बाद ही रावल रतनसिंह को क़ैद किया था, क्योंकि यही वो समय था जब अलाउद्दीन को महसूस हुआ कि चित्तौड़ के राजपूतों को बल से नहीं हराया जा सकता है।
जनवरी से चौथा माह अप्रैल अंत या मई प्रारम्भ समझना चाहिए। पुरुषों द्वारा किए गए केसरिया से कुछ दिन पहले ही जौहर हुआ होगा। अब कई लोग 26 अगस्त को ही रानी पद्मिनी द्वारा जौहर करना बयान करते हैं। यह भी गलत है।
क्योंकि 26 अगस्त को तो दुर्ग पर अलाउद्दीन ने कब्जा कर लिया था। जौहर के लिए राजपूतानियों को पर्याप्त समय मिला था। अंतिम रूप से यही कह सकते हैं कि जौहर की तिथि 26 अगस्त से कुछ दिन पहले की रही होगी।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)