मेवाड़ के रावल रतनसिंह व रानी पद्मिनी (भाग – 2)

रावल रतनसिंह का राज्याभिषेक :- रावल समरसिंह के पुत्र रावल रतनसिंह 1302 ई. में मेवाड़ की गद्दी पर बैठे। रावल रतनसिंह मेवाड़ की रावल शाखा के अंतिम शासक हुए।

अमरकाव्य वंशावली के अनुसार रावल रतनसिंह को रावल समरसिंह ने गोद लिया था। रावल रतनसिंह मेवाड़ की राणा शाखा के थे। रतनसिंह इससे पहले कई वर्षों तक लखणसी (राणा लक्ष्मणसिंह) के साथ मालवा में भी रहे।

रावल रतनसिंह के समय मेवाड़ की स्थिति :- रावल रतनसिंह से पहले मेवाड़ की 3 पीढ़ियों ने मेवाड़ की बड़ी उन्नति की। रावल जैत्रसिंह, रावल तेजसिंह व रावल समरसिंह ने न केवल मेवाड़ को विजेता बनाया,

बल्कि व्यापार को भी बढ़ावा दिया। अब मेवाड़ की ख्याति समूचे हिंदुस्तान में फैल रही थी। सुल्तानों को इस बात का खटकना स्वाभाविक था।

रावल रतनसिंह

रानी पद्मिनी/रानी पद्मावती :- ये पूंंगल के 9वें महारावल पुनपाल जी भाटी की पुत्री थीं। रानी पद्मिनी की माँ सिरोही की जाम कंवर देवड़ा थीं।

इतिहासकार गौरीशंकर ओझा ने अनुमानित रुप से चित्तौड़ से 25 कोस पूर्व में स्थित सींगोली नामक प्राचीन स्थान को रानी पद्मिनी का मायका बताया है। सींगोली में प्राचीन किले के खंडहर मौजूद हैं।

उस समय सींगोली पर चौहानों का राज था। मलिक मुहम्मद जायसी ने भी रानी पद्मिनी के पिता गन्धर्वसेन को चौहानवंशी बताया है। सींगोली व सिंहल कुछ-कुछ मिलते हुए शब्द भी हैं।

1540 ई. में लिखे गए पद्मावत ग्रन्थ के अनुसार सिंहल द्वीप के राजा गंधर्व सेन व रानी चम्पावती की पुत्री थीं, जो की सही नहीं है। वास्तव में श्रीलंका के सिंहल द्वीप में गन्धर्व सेन नाम का कोई राजा हुआ ही नहीं।

रानी पद्मिनी के सही इतिहास को कुछ कवि लोगों ने तोड़-मरोड़कर कई खयाली किस्से लिखकर राजपूताना के इतिहास को खराब किया। इनमें से सबसे गलत किस्सा अलाउद्दीन द्वारा रानी के प्रतिबिम्ब को देखना है।

पं. गौरीशंकर ओझा, कविराज श्यामलदास जैसे इतिहासकार भी इन खयाली किस्सों को गलत बताते हैं। सही हाल कुछ इस तरह है :- एक बहुत बड़ा जादूगर राघव चेतन चित्तौड़ आया।

उदयपुर के प्रताप गौरव केंद्र में स्थित रानी पद्मिनी की प्रतिमा

इसकी कला से रावल रतनसिंह बड़े खुश हुए, पर एक दिन रावल रतनसिंह इससे नाराज़ हुए और इसे अपनी सेवा से ख़ारिज किया। राघव चेतन ने इसी दिन से मेवाड़ को बर्बाद करने का निश्चय किया। राघव चेतन जानता था कि सिवाय अलाउद्दीन खिलजी के दूसरा कोई शासक मेवाड़ को टक्कर नहीं दे सकता है।

राघव चेतन दिल्ली में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के दरबार में गया और वहां अपनी जादूगरी दिखाकर सुल्तान को खुश किया। इस जादूगर ने एक दिन रावल रतनसिंह से बदला लेने के लिए दरबार में सुल्तान के सामने रानी पद्मिनी के रुप की तारीफ की।

सुल्तान अलाउद्दीन ने रावल रतनसिंह को खत लिखकर रानी पद्मिनी को दिल्ली भेजने की बात कही। इस बात से आग-बबूला होकर रावल रतनसिंह ने एक खत कुछ इस तरह लिखा, कि सुल्तान को अगले ही दिन अपनी बड़ी फौज के साथ चित्तौड़ के लिए कूच करना पड़ा।

अलाउद्दीन खिलजी की फ़ौज की चित्तौड़ पर चढ़ाई की ख़बर जब मेवाड़ पहुंची, तो यहां से बड़ी संख्या में लोगों ने पलायन करना शुरू कर दिया। हज़ारों लोग मालवा और दक्षिण भारत की ओर चले गए और वहीं बस गए।

रावल समरसिंह के शासनकाल में जैन कीर्तिस्तंभ का निर्माण करवाने वाले जैन व्यापारी जीजाशाह के वंशज व उनके परिवार वाले भी मेवाड़ छोड़कर दक्षिण भारत चले गए।

अमीर खुसरो तारीख-ई-अलाई में लिखता है “सोमवार तारीख 8 जमादी उस्सानी हि.स. 702 (28 जनवरी, 1303 ई.) को सुल्तान अलाउद्दीन चित्तौड़ लेने के लिए रवाना हुए। मैं भी इस चढ़ाई में सुल्तान के साथ था।

सुल्तान ने गम्भीरी और बेड़च नदियों के बीच अपने डेरे जमाए। इसके बाद सुल्तान की फ़ौज के दाएं और बाएं खड़ी फ़ौजी टुकडियों ने किले को घेर लिया।

ऐसा करने से तलहटी की बस्ती भी घेरे में आ गई। सुल्तान ने अपना झंडा चित्तौड़ी नाम की एक छोटी पहाड़ी पर गाड़ दिया। सुल्तान वहीं दरबार लगाते थे और घेरे के मामले में हुक्म देते थे।”

अमीर खुसरो ने चित्तौड़गढ़ युद्ध का ज्यादा विवरण नहीं दिया है, परन्तु समकालीन होने से यह वर्णन महत्वपूर्ण है। हालांकि इसमें पक्षपात भी काफी है। अलाउद्दीन खिलजी ने एक माह तो घेराबंदी में ही लगा दिया।

प्रताप गौरव केंद्र में स्थित गोरा-बादल की प्रतिमाएं

चित्तौड़ के किले की पहाड़ी के चारों तरफ खिलजियों की सेना के पड़ाव थे। 3 माह बीत गए, लेकिन किले में ना रसद खत्म हुई और ना पानी। होती भी कैसे, चित्तौड़गढ़ दुुर्ग में कई तालाब थे और यहां खेती होती थी।

इस वक्त चित्तौड़ के किले से मनजिकों के द्वारा खिलजियों पर पत्थरों की बौछारें भी की गईं। घेराबंदी के चौथे माह में चित्तौड़ के राजपूत हावी हो गए और उन्होंने खिलजियों को बहुत नुकसान पहुंचाया।

इन 4 महीनों में अलाउद्दीन खिलजी को इतना समझ आ चुका था कि चित्तौड़ के राजपूतों को बल से परास्त नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने छल का सहारा लिया।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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