मेवाड़ के रावल समरसिंह (भाग – 3)

वीर हम्मीर देव चौहान द्वारा चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण :- रावल समरसिंह के शासनकाल में रणथंभौर के वीर हम्मीर देव चौहान द्वारा चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण करने का उल्लेख मिलता है।

इससे संबंधित सटीक जानकारी मुझे अब तक नहीं मिल पाई है। सम्भव है कि भविष्य में हम्मीरदेव चौहान के इतिहास लेखन के समय इस विषय से सम्बंधित कोई जानकारी प्राप्त हो।

गरदाना का शिलालेख :- यह शिलालेख 1300 ई. में आवरी माता के पास गरदाना में खुदवाया गया। इस शिलालेख के अनुसार रावल समरसिंह का देहांत 1300 ई. में हुआ। यहां रावल समरसिंह की आदमकद प्रतिमा भी है।

रावल समरसिंह का देहांत :- रावल समरसिंह ने अपने जीवित रहते ही मेवाड़ की गद्दी रतनसिंह को सौंप दी और स्वयं एकलिंग जी की भक्ति में मग्न हो गए। 1302 ई. के करीब रावल समरसिंह का देहांत हुआ।

रावल समरसिंह

इतिहासकार डॉक्टर श्रीकृष्ण जुगनू ने ‘मेवाड़ का प्रारंभिक इतिहास’ में एक स्थान पर तो गरदाना के शिलालेख का उल्लेख करते हुए 1300 ई. में रावल समरसिंह के देहांत की बात लिखी है, परन्तु इसी पुस्तक में एक जगह रावल समरसिंह के 1301 ई. के शिलालेख मिलने का भी वर्णन किया है।

अन्य इतिहासकार 1302 ई. में रावल समरसिंह के देहांत की बात लिखते हैं। एक पुस्तक में 1302 ई. में रावल समरसिंह का अंतिम शिलालेख मिलने की बात लिखी गई है। बहरहाल, मालूम नहीं कि सत्य क्या है, परन्तु अब तक के साक्ष्यों से यही प्रतीत होता है कि 1301-1302 ई. के बीच रावल समरसिंह का देहांत हुआ होगा।

इस प्रकार रावल समरसिंह ने 28-29 वर्षों तक मेवाड़ पर सफलतापूर्वक शासन किया। इन्होंने कई शिलालेख जारी किए। बलबन की सेना को परास्त करना, मालवा की सेना को परास्त करना, खिलजियों से जुर्माना वसूला करना आदि घटनाएं रावल समरसिंह की बहादुरी व सफल शासन की प्रतीक हैं।

रावल समरसिंह के 2 पुत्र हुए :- (1) रावल रतनसिंह :- कहीं-कहीं रावल रतनसिंह को रावल समरसिंह का दत्तक पुत्र लिखा गया है, परन्तु इसके कोई ठोस ऐतिहासिक प्रमाण नहीं हैं। रावल रतनसिंह रावल समरसिंह के उत्तराधिकारी हुए।

(2) कुंवर कुम्भकर्ण :- चित्तौड़गढ़ पर अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण से पहले ही रावल समरसिंह के छोटे पुत्र कुँवर कुम्भकर्ण को मेवाड़ से बाहर निकाल दिया गया, ताकि वंश चल सके। नेपाल का राजवंश इन्हीं कुम्भकर्ण से निकला हुआ है।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग

कुम्भकर्ण के वंशज कमाऊं की पहाड़ियों में होते हुए पाल्पा पहुंचे। वहां कई वर्षों तक रहे। फिर पृथ्वीनारायण शाह ने नेपाल पर अधिकार किया। मेवाड़ के इतिहास में नेपाल की वंशावली कुछ इस तरह है :-

कुम्भकर्ण, अयुत, परावर्म, कविवर्म, यशवर्म, उदुंबरराय, भट्टराय, जिल्लराय, अजलराय, अटलराय, तुत्थाराय, भामसीराय, हरिराय, ब्रह्मनिकराय, मन्मन्धराय, भूपाल, मीचा, जयंत, सूर्य, मीया, विचित्र, जगदेव, कुलमंडन शाह,

आसोवन शाह, द्रव्य शाह, पुरन्दर शाह, पूर्ण शाह, राम शाह, डम्बर शाह, श्रीकृष्ण शाह, पृथ्वीपति शाह, वीरभद्र शाह, नरभूपाल शाह, पृथ्वीनारायण शाह, सिंहप्रताप शाह, रणबहादुर शाह, गीर्वाण युद्ध विक्रम शाह,

राजेन्द्र विक्रम शाह, सुरेन्द्र विक्रम शाह, पृथ्वी वीर विक्रम शाह, त्रिभुवन वीर विक्रम शाह, ज्ञानेन्द्र वीर विक्रम शाह, महेंद्र वीर विक्रम शाह, दीपेंद्र वीर विक्रम शाह, पुनः ज्ञानेन्द्र वीर विक्रम शाह।

मीचा ने नवाकोट को राजधानी बनाई। कुलमंडन को काश्की का राज्य मिला और दिल्ली के बादशाह ने इनको ‘शाह’ की उपाधि दी। कुम्भकर्ण से लेकर नरभूपाल शाह तक का इतिहास अंधकार में ही है। इनके इतिहास की ज्यादा जानकारी नहीं मिलती है।

हालांकि पृथ्वीनारायण शाह के वंशज राजेन्द्र विक्रम शाह ने राजकल्पद्रुम नामक एक तंत्रग्रंथ लिखा, इसमें जो वंशावली दी है, वह ऊपर लिखी हुई वंशावली से मिलती-जुलती है। इस ग्रंथ में नेपाल राजवंश के मूलपुरुष का चित्रकूट (चित्तौड़) से आना लिखा है।

दूरी अधिक होने के कारण कई सदियों से नेपाल के राजवंश और मेवाड़ राजवंश में मिलना-जुलना नहीं हो पाया, जिससे नेपाल राजवंश की संस्कृति काफी बदल गई। बाद में नेपाल के राजा ने मेवाड़ राजवंश से अपने पुरखों की संस्कृति जानने का विचार किया।

लगभग 1837 ई. में मेवाड़ के महाराणा जवानसिंह के शासनकाल में नेपाल के महाराजा राजेन्द्र विक्रमशाह ने मेवाड़ के रीति-रिवाज आदि के ज्ञान हेतु अपने यहां से कुछ प्रतिष्ठित पुरुषों व स्त्रियों को भेजा। इन्होंने नेपाल महाराजा की तरफ से महाराणा जवानसिंह को गजनायक नाम का एक हाथी भेंट किया।

कविराजा श्यामलदास लिखते हैं कि “गजनायक हाथी ऊंचाई, लंबाई, चौड़ाई और खूबसूरती में बहुत खूब था। मैंने हज़ारों हाथी देखे, पर उस जैसा हाथी फिर कभी नहीं देखा। गजनायक हाथी महाराणा शम्भूसिंह के शासनकाल में मर गया।”

चित्तौड़गढ़ दुर्ग

नेपाल के ये प्रतिष्ठित लोग महाराणा जवानसिंह के देहांत के बाद कुछ दिन ठहरकर 25 सितम्बर, 1838 ई. को नेपाल के लिए रवाना हो गए।

4 सितम्बर, 1857 ई. में नेपाल के वज़ीर जंग बहादुर से बग़ावत करने के बाद चौतरिया (राजवी) गुरुप्रसादशाह के बेटे हिम्मतबहादुर शाह और दलप्रकाश शाह उदयपुर आए, जहां महाराणा स्वरूपसिंह ने उनकी बढ़िया खातिरदारी की।

अगले भाग से मेवाड़ के रावल रतनसिंह व रानी पद्मिनी का इतिहास लिखा जाएगा। पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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