रावल जैत्रसिंह के पुत्र रावल तेजसिंह 1253 ई. में मेवाड़ के शासक बने। रावल तेजसिंह द्वारा धारण की गई उपाधियां :- उभापति वरलब्ध प्रौढ़ प्रताप, परमेश्वर, परम भट्टारक, महाराजाधिराज।
रावल तेजसिंह के शासनकाल में मेवाड़ के महामात्य (महामन्त्री) समुद्धर थे, प्रधान भीमसिंह थे व कोषाध्यक्ष तल्हण थे। रावल तेजसिंह के शासनकाल में मेवाड़ में आहाड़, खोहर, चित्तौड़ की तलहटी व सज्जनपुर में बड़ी मंडियां थीं।
1255 ई. से 1258 ई. के बीच मेवाड़ में अकाल पड़ा, तब यहां दानशालाएं खोली गईं व लोगों को मुफ्त अनाज उपलब्ध करवाया गया। रावल तेजसिंह की पटरानी जयतल्लदेवी थीं, जिन्होंने चित्तौड़गढ़ दुर्ग में श्याम पार्श्वनाथ का मंदिर बनवाया।
रावल तेजसिंह के पुत्र रावल समरसिंह ने 1278 ई. में इस पार्श्वनाथ मंदिर में एक शिलालेख खुदवाया। इस शिलालेख से जानकारी मिलती है कि रानी जयतल्लदेवी ने इस मंदिर का निर्माण भर्तृपुरीय आचार्य के उपदेश से करवाया था।
इस मंदिर के मठ के लिए भूमि का दान भी किया गया। चित्तौड़ की तलहटी, आहड़, खोहर व सज्जनपुर से घी, तेल आदि मंगवाकर इस मंदिर को भेंट किया गया। इन रानी ने रावल समरसिंह को जन्म दिया।
नाडौल के शासक से सुलह :- रावल तेजसिंह के पिता रावल जैत्रसिंह ने प्रतिशोध स्वरूप नाडौल पर हमला किया था। इस कारण नाडौल व जालौर के शासक चाचिकदेव चौहान (राजा उदयसिंह के पुत्र) ने अपनी पुत्री रूपादेवी का विवाह रावल तेजसिंह से करवाकर वैरभाव मिटाने का प्रयास किया।
रानी रूपादेवी की माता का नाम लक्ष्मीबाई था। रानी रूपादेवी ने जोधपुर के बुड़तेरा गांव में एक बावड़ी का निर्माण करवाया था। इन रानी ने कुंवर क्षेत्रसिंह को जन्म दिया।
बीसलदेव की मेवाड़ पर चढ़ाई :- रावल तेजसिंह के शासनकाल में गुजरात के बघेलवंशी राणा वीरधवल के मंत्री वास्तुपाल के छोटे पुत्र बीसलदेव ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर आक्रमण कर दिया।
इस लड़ाई में चित्तौड़ की तलहटी में मेवाड़ के प्रधान भीमसिंह वीरगति को प्राप्त हुए। तलहटी में ही चित्तौड़ के तलारक्ष (दुर्ग रक्षक / किलेदार) क्षेम के पुत्र रत्न भी वीरगति को प्राप्त हुए।
1260 ई. में बीसलदेव द्वारा जारी किए गए एक दानपत्र में बीसलदेव को ‘मेदपाटक (मेवाड़) राज्य की जड़ों को उखाड़ने के लिए कुदाल के समान’ बताया गया। लेकिन गौर से देखने पर मालूम पड़ता है कि बीसलदेव को इस युद्ध से कोई खास लाभ नहीं हुआ,
क्योंकि रावल तेजसिंह पहले की तरह मेवाड़ की राजगद्दी पर विराजमान रहे। यहां तक कि रावल तेजसिंह ने इस युद्ध के बाद ‘उभापति वरलब्ध प्रौढ़ प्रताप’ उपाधि धारण की, जो इस युद्ध के बाद उनकी बढ़ी हुई ख्याति की तरफ संकेत करता है।
ग्रंथ – श्रावक प्रतिक्रमणसूत्र चूर्णि :- इस ग्रंथ की रचना रावल तेजसिंह के शासनकाल में 1260 ई. में कमलचंद्र ने की। यह ग्रंथ वर्तमान में अमेरिका के बोस्टन संग्रहालय में मौजूद है। यह ग्रंथ ताम्रपत्रों पर चित्रित राजपूताने का सबसे पुराना चित्रग्रंथ है। इसमें 6 चित्र हैं।
घाघसा गांव के शिलालेख (1265 ई.) :- रावल तेजसिंह के शासनकाल में चित्तौड़गढ़ के निकट घाघसा में सिंचाई हेतु कूप का निर्माण करवाया गया। घाघसा गांव के शिलालेख में वर्णित है कि
रावल तेजसिंह के शासनकाल में डींडू महाजन रत्न द्वारा एक बावड़ी बनवाई गई। इस शिलालेख में लिखा है कि रावल तेजसिंह अखण्ड प्रताप के धनी और चिररविजयी हैं, उनके शासनकाल में प्रजा में अपार संतोष है।
चित्तौड़ का शिलालेख (1266 ई.) :- इस शिलालेख के अनुसार रावल तेजसिंह ने बुधवार को सूर्यग्रहण के दिन चक्रगोत्र ब्राह्मण हिगकुर को घण्टेश गांव में अरहट सहित भूमि दान की।
घासा गाँव का शिलालेख (1266 ई.) :- रावल तेजसिंह द्वारा 1266 ई. में घासा गाँव में स्थित त्रिपुरुषदेव मंदिर पर एक शिलालेख खुदवाया गया। इस शिलालेख में खेती से संबंधित जानकारी है।
इसमें यह जानकारी है कि घासा व उसके आसपास के क्षेत्र में जौ की खेती बहुत होती थी। गुहड़ा गांव में स्थित वाग्डवारिया तालाब के पेटे में होने वाली खेती और मांकड़थला (मांगथला) के खेतों में होने वाले जौ को ‘मूड़ी’ नामक प्रमाण से मापा जाता था।
मूड़ी जौ के तोल के टोकरों के लिए विशेष रूप से प्रचलन में था। एक मूड़ी में 10 कलश अनाज होता था। इस शिलालेख में ये जानकारी भी है कि रावल तेजसिंह के समय मेवाड़ के महामात्य प्रसेनधर ने त्रिपुरुषदेव मन्दिर के लिए गुड़ा नामक गाँव, वाग्डवारिया तालाब व खलिहान भेंट किया।
चित्तौड़ का शिलालेख (1267 ई.) :- यह रावल तेजसिंह के शासनकाल में खुदवाया गया अंतिम शिलालेख है। यह शिलालेख चित्तौड़गढ़ की तलहटी में स्थित एक जैन मंदिर में खुदवाया गया। शिलालेख में जैनियों से सम्बंधित बातों का उल्लेख है।
बाद में अलाउद्दीन खिलजी के बेटे खिज्र खां ने गम्भीरी नदी के पुल का निर्माण करवाते समय चित्तौड़ के मंदिर तुड़वाए, तब यह शिलालेख भी इस पुल में चुनवा दिया गया।
रावल तेजसिंह के देहांत के मात्र 12 वर्ष बाद रावल समरसिंह के शासनकाल में खुदवाई गई आबू पर्वत की प्रशस्ति में रावल तेजसिंह के लिए लिखा गया है कि
“रावल तेजसिंह ने अपने अधीन आने वाली भूमि को मोती जैसे धान्य उगाने वाली बनाने के लिए उचित रुप से बीजों का प्रबंध किया व उसकी सिंचाई के लिए जलस्रोतों का निर्माण करवाया। सद्गुरु के निर्देश पर रावल तेजसिंह ने वाटिकाओं का विकास किया व दान-पुण्य के कार्य किए।”
रावल तेजसिंह ने तांबे के सिक्के जारी किए थे। 20 वर्ष शासन करने के बाद 1273 ई. में रावल तेजसिंह का देहान्त हो गया। रावल तेजसिंह के पुत्र रावल समरसिंह मेवाड़ के अगले शासक बने। पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)