मेवाड़ की वंशावली में भूलवश परमार शासकों के नाम जोड़ना :- मेवाड़ की वंशावली में रावल अम्बाप्रसाद के बाद क्रमशः शुचिवर्मा, नरवर्मा, कीर्तिवर्मा नाम मिलते हैं। हालांकि शुचिवर्मा का नाम मेवाड़ के इतिहास में मिलता अवश्य है, परन्तु उनके गद्दी पर बैठने का कोई प्रमाण नहीं मिला है।
नरवर्मा परमार को भूलवश मेवाड़ की वंशावली में स्थान दे दिया गया, क्योंकि चित्तौड़गढ़ पर नरवर्मा परमार का राज भी रहा। नरवर्मा के पुत्र यशोवर्मा का एक और नाम कीर्तिवर्मा था। कीर्तिवर्मा को भी मेवाड़ की वंशावली में दर्शा दिया गया।
कीर्तिवर्मा के बाद मेवाड़ की वंशावली में योगराज का नाम मिलता है, परन्तु इनका शासन भी संदिग्ध है, क्योंकि मेरे शोध के अनुसार अम्बाप्रसाद के उत्तराधिकारी वैराट थे।
इस समयकाल की वंशावली में पुराने लेखकों ने अम्बाप्रसाद का देहांत 1007 ई. में माना है, जो कि गलत है। क्योंकि रावल अम्बाप्रसाद, चौहान शासक वाक्पतिराज द्वितीय से लड़ते हुए काम आए थे और वाक्पतिराज का शासनकाल 1026 ई. से 1040 ई. तक रहा।
रावल वैराट :- रावल अम्बाप्रसाद का निस्संतान देहांत हो गया, जिस वजह से अल्लट के ही एक वंशज रावल वैराट को मेवाड़ की राजगद्दी पर बिठाया गया। रावल वैराट रावल अल्लट के वंशज थे, इस बात का प्रमाण कुंभलगढ़ प्रशस्ति में मौजूद है।
रावल हँसपाल :- जबलपुर के निकट भैराघाट प्रशस्ति के अनुसार रावल हँसपाल ने अपने शौर्य से शत्रुओं को अपने आगे झुकाया। रावल हँसपाल के उत्तराधिकारी रावल वैरिसिंह हुए।
रावल वैरिसिंह :- रावल वैरिसिंह ने आहाड़ में नया कोट व 4 गोपुर बनवाए और आहाड़ को भावी आक्रमणों से सुरक्षित करने का प्रयास किया। रावल वैरिसिंह के 22 पुत्र हुए। भैराघाट प्रशस्ति के अनुसार रावल वैरिसिंह ने अपने शत्रुओं को पहाड़ों की गुफाओं में छिपने के लिए विवश कर दिया था।
रावल विजयसिंह :- इनका शासनकाल 10 वर्ष (1107 ई. से 1117 ई.) तक रहा। आबू की प्रशस्ति, भैराघाट के अभिलेख व करणबेल के अभिलेख में विजयसिंह का ज़िक्र हुआ है।
मालवा के महान राजा भोज परमार के उत्तराधिकारी जयसिंह हुए। जयसिंह के उत्तराधिकारी उदयादित्य हुए। उदयादित्य की एक पुत्री श्यामलदेवी थी। श्यामलदेवी का विवाह गुहिलवंशी शासक विजयसिंह से हुआ।
विजयसिंह व श्यामलदेवी की पुत्री का नाम आल्हणदेवी था। आल्हणदेवी का विवाह चेदि देश के कलचुरि हैहयवंशी शासक गयकर्णदेव के साथ करवाया गया। भैराघाट में आल्हणदेवी का एक शिलालेख मिला है, जो 1156 ई. का है।
विजयसिंह ने पालडी और कदमाल गाँवों को दान में दिया। पालडी गांव के वामेश्वर मंदिर में विजयसिंह ने 8 मई, 1116 ई. को एक शिलालेख खुदवाया, जिससे पता चलता है कि इस समय तक मेवाड़ के शासकों ने आहाड़ के नजदीकी भागों पर पुनः विजय प्राप्त कर ली थी।
इस समय आहाड़ पर तो विजयसिंह शासन कर रहे थे, लेकिन चित्तौड़गढ़ पर मालवा के परमार शासक उदयादित्य के छोटे पुत्र नरवर्मा (विजयसिंह की पत्नी के भाई) का शासन था।
नागपुर संग्रहालय में एक शिलालेख है, उसके अनुसार मेवाड़ के गुहिलवंशी शासक विजयसिंह ने दिल्ली के सुल्तान को परास्त किया। इस सुल्तान का नाम नहीं मिल पाया है।
हालांकि इस बात में मुझे अतिश्योक्ति लगती है, क्योंकि गुहिल शासक विजयसिंह चित्तौड़गढ़ को परमारों से मुक्त नहीं करा पाए थे। ऐसे में उनके द्वारा सुल्तान को परास्त करना सम्भव नहीं लगता। रावल विजयसिंह के उत्तराधिकारी रावल अरिसिंह हुए।
रावल अरिसिंह :- इनका शासनकाल 12वीं सदी की शुरुआत में रहा। रावल अरिसिंह के बाद रावल चोडसिंह गद्दी पर बैठे। रावल चोडसिंह :- इनके बारे में कोई वर्णन नहीं मिला है। रावल चोडसिंह के उत्तराधिकारी रावल विक्रमसिंह हुए।
रावल विक्रमसिंह :- ये 1149 ई. के करीब मेवाड़ के शासक रहे। इस समय मेवाड़ के कुछ हिस्से पर विजयसिंह का अधिकार था। चित्तौड़गढ़ पर चालुक्यों का अधिकार था।
चालुक्यवंशी कुमारपाल का चित्तौड़गढ़ पर अधिकार :- जयसिंह सिद्धराज के बाद जब कुमारपाल गुजरात के स्वामी बने, तब चित्तौड़गढ़ पर भी उनका अधिकार रहा। कुमारपाल ने 1150 ई. में चित्तौड़गढ़ दुर्ग में एक शिलालेख खुदवाया। इस शिलालेख में 28 पंक्तियां लिखी हैं।
इसमें कुमारपाल द्वारा सपादलक्ष (अजमेर राज्य) के चौहानवंशी शासक अर्णोराज (आनाजी) को परास्त करने के बाद चित्तौड़गढ़ की शोभा को देखने के लिए कुमारपाल के चित्तौड़ जाने व वहां के शिव मंदिर को एक गाँव भेंट करने का उल्लेख है।
मेरुतुंग द्वारा रचित ‘प्रबन्धचिंतामणि’ में लिखा है कि “कुमारपाल ने अपनी रक्षा करने वाले आलिंग कुम्हार को 700 गाँवों वाला चित्तौड़गढ़ का पट्टा जागीर में दिया। आलिंग के वंशज कुम्हार होने से शरमाते थे।”
कुमारपाल ने जांगलदेश व शाकम्भरी अभियानों से लौटते समय 2 बार चित्तौड़ की यात्रा की थी। 1150 ई. में कुमारपाल ने मोरवण व डूंगला के बीच स्थित पालोद गांव में स्थित ब्रह्मा मंदिर के प्रतिष्ठा समारोह में भाग लिया और भूमिदान भी किया।
कुमारपाल ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग में समिद्धेश्वर महादेव मंदिर के दर्शन किए। गुजरात के सोलंकियों के इतिहास के अनुसार 1159 ई. में कुमारपाल का विवाह मेवाड़ की राजकुमारी कृपासुन्दरी से हुआ। हालांकि मेवाड़ के ग्रंथों में इस विवाह का कोई उल्लेख नहीं है।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)