मेवाड़ का प्रारंभिक इतिहास (भाग – 9)

रावल शक्तिकुमार :- रावल शालिवाहन के बाद 977 ई. में मेवाड़ की गद्दी पर रावल शक्तिकुमार बैठे। 977 ई. के शिलालेख के अनुसार शक्तिकुमार के शासनकाल में जैन अक्षपटलिक द्वारा एक जैन मंदिर का निर्माण करवाया गया।

राजा मुंज परमार द्वारा आहाड़ पर आक्रमण :- आहाड़ व्यापारिक केंद्र के रूप में बड़ी तेजी से उभर रहा था, जिससे गुहिलों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा था। यह बात परमार राजा मुंज के लिए असहनीय थी। राजा मुंज ने आहाड़ पर आक्रमण कर दिया।

गुहिलों को इस आक्रमण की सूचना पहले ही मिल चुकी थी। उन्होंने सहायता हेतु राष्ट्रकूट राजा धवल को बुला लिया था। मेवाड़ के अक्षपटलिक श्रीपति के पुत्र मत्तटगुंदल जैसे योग्य मंत्रियों ने आहाड़ के किले को चारों ओर से मज़बूत कर दिया।

आहाड़ नगर के दरवाज़ों को बंद कर दिया गया। हथियारों से लैस योद्धाओं को जगह-जगह मोर्चों पर तैनात किया गया। आहाड़ नगरी के चारों ओर खाई खोदी गई। इतने प्रयासों के बावजूद भी आहाड़ का विध्वंस नहीं रुक सका।

रावल शक्तिकुमार

राजा मुंज परमार का आक्रमण इतना तेज था व उनकी सेना इतनी विशाल थी कि उनके सामने गुहिलों व राष्ट्रकूटों की मिली-जुली सेनाएं भी नहीं टिक सकीं। इस युद्ध में राजा मुंज के भाई सिंधुराज ने बड़ी वीरता दिखाई थी।

29 जनवरी, 997 ई. को राष्ट्रकूट नरेश धवल व उनके पुत्र बालाप्रसाद द्वारा मारवाड़ के हथुण्डी गांव में एक शिलालेख खुदवाया गया। इसमें लिखा है कि “जब राजा मुंज परमार ने मेवाड़ के आघाट (आहाड़) को नष्ट किया, तब धवल ने मेवाड़ के सैन्य की रक्षा की थी।”

राजा मुंज द्वारा आहाड़ पर आक्रमण 996 ई. में किया गया था। इसके बाद शक्तिकुमार का कोई जिक्र पढ़ने में नहीं आता है, जिससे मालूम पड़ता है कि शक्तिकुमार इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए होंगे। शक्तिकुमार के उत्तराधिकारी अम्बाप्रसाद हुए।

राजा मुंज परमार की चित्तौड़गढ़ विजय :- राजा मुंज ने चित्तौड़गढ़ पर भी अधिकार कर लिया और यह दुर्ग अपने भाई सिंधुराज को सौंप दिया। सिंधुराज के पुत्र महान राजा भोज का कुँवरपदे काल चित्तौड़गढ़ में ही व्यतीत हुआ।

परमार राजा भोज का चित्तौड़गढ़ पर अधिकार रहा, जहां उन्होंने त्रिभुवन नारायण मंदिर बनवाया। यह मंदिर वर्तमान में समिद्धेश्वर महादेव मंदिर कहलाता है, जिसका जीर्णोद्धार महाराणा मोकल ने करवाया, इसलिए इसे मोकल का मंदिर भी कहते हैं।

कुम्भलगढ़ प्रशस्ति के अनुसार राजा भोज परमार ने नागदा में भोजसर तालाब का निर्माण करवाया। 1021 ई. में राजा भोज ने नागदा में भूमि दान की।

आबू के परमार राजा धंधुक व चालुक्य शासक भीमदेव के बीच विरोध हुआ, तब राजा धंधुक राजा भोज परमार के पास चित्तौड़गढ़ चले आए। फिर जब 1031 ई. में प्रसिद्ध विमलवसही आदिनाथ मंदिर बनवाया जा रहा था, तब विमल चित्तौड़गढ़ गए और राजा धंधुक को मनाकर ले आए।

रावल अम्बाप्रसाद :- रावल अम्बाप्रसाद मेवाड़ के शासक शक्तिकुमार के उत्तराधिकारी थे। चित्तौड़गढ़ की प्रशस्ति (1274 ई.) में इनका नाम आम्रप्रसाद लिखा है। ये चालुक्यवंशी रानी के पुत्र थे। इस समय मेवाड़ की राजधानी आघाटपुर (आहाड़) थी।

रावल अम्बाप्रसाद

चौहानों द्वारा आहाड़ पर आक्रमण :- अम्बाप्रसाद की माता चालुक्य थीं, इसलिए वे चालुक्यों से मेल कर रहे थे। यह बात साम्भर के चौहानों को सहन नहीं हुई। इसके अलावा अम्बाप्रसाद को राष्ट्रकूटों का सहयोग भी प्राप्त था। लेकिन अम्बाप्रसाद स्वयं एक कमजोर शासक थे।

अवसर का लाभ उठाकर साम्भर के चौहान राजा वाक्पतिराज द्वितीय ने आहाड़ पर आक्रमण किया। इस युद्ध में गुहिलों की पराजय हुई। वाक्पतिराज ने खंजर से अम्बाप्रसाद का मुंह रेतकर उन्हें मार गिराया।

चौहानों ने मेवाड़ के मैनाल, मांडलगढ़, जहाजपुर आदि भागों पर अधिकार कर लिया। (कई वर्ष बाद सम्राट पृथ्वीराज तृतीय के बाद मुसलमानों ने ये क्षेत्र चौहानों से छीन लिए। इस प्रकार ये क्षेत्र कई वर्षों तक मेवाड़ से अलग रहे)

1154 ई. में शाकम्भरी नरेश बीसलदेव ने जहाजपुर के निकट लाहोरी गांव में एक शिलालेख खुदवाया। 1167 ई. में शाकम्भरी नरेश पृथ्वीराज चौहान द्वितीय की रानी सुहवदेवी (चौहानों में रूठी रानी के नाम से प्रसिद्ध) ने एक शिलालेख मैनाल में खुदवाया था।

1169 ई. का बिजोलिया का शिलालेख भी चौहान वंश से संबंधित है। सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय द्वारा तराइन के युद्ध में शिकस्त खाने के बाद मेवाड़ का चौहान अधिकृत क्षेत्र मुसलमानों के अधीन हो गया।

चालुक्यों द्वारा परमारों से चित्तौड़गढ़ छीनना :- इस समय आहाड़ पर गुहिलों का राज था, परन्तु चित्तौड़गढ़ पर मालवा के नरवर्मा परमार का राज था। नरवर्मा के समय गुजरात के प्रसिद्ध शासक सिद्धराज जयसिंह ने मालवा पर चढ़ाई की।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग

चित्तौड़गढ़ में बैठे नरवर्मा को जब इस बात की सूचना मिली, तो वे मालवा की तरफ गए। सिद्धराज और नरवर्मा की फ़ौजों में वर्षों तक लड़ाइयां चलती रहीं। 1133 ई. में नरवर्मा का देहांत हो गया।

नरवर्मा के बाद उनके पुत्र यशोवर्मा ने यह लड़ाई जारी रखी, लेकिन वे चालुक्यों के हाथों कैद हुए। चालुक्य शासक जयसिंह ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग भी परमारों से छीन लिया।

चालुक्य जयसिंह का एक शिलालेख चित्तौड़गढ़ दुर्ग में मिला है, जिस पर संवत नहीं है। लेकिन यह लिखा है कि “जयसिंह ने पुत्र प्राप्ति के लिए सोमनाथ में भगवान शिव से प्रार्थना की, तब सोमनाथ ने कहा कि तुम्हारे कोई पुत्र नहीं होगा, तुम्हारे बाद कुमारपाल गुजरात का स्वामी बनेगा।”

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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