मेवाड़ का प्रारंभिक इतिहास (भाग – 8)

रावल नरवाहन :- रावल नरवाहन के पिता रावल अल्लट व माता हूण राजकुमारी हरियादेवी थीं। रावल नरवाहन लगभग 971 ई. में मेवाड़ की राजगद्दी पर बैठे। रावल नरवाहन ने चौहानों से मैत्री संबंध स्थापित करने के लिए चौहान राजा जेजय की पुत्री से विवाह किया।

आहाड़ के शिलालेख (977 ई.) के अनुसार रावल नरवाहन कलाप्रेमी, वीर, विजय का निवास स्थान, क्षत्रियों का क्षेत्र, शत्रुहन्ता, वैभव की निधि और विद्या की वेदी थे। रावल नरवाहन ने मयूर के पुत्र श्रीपति को अक्षपटलाधीश नियुक्त किया।

श्रीपति के 2 पुत्र हुए :- मत्तट और गुंदल। इन दोनों ने मेवाड़ में व्यापार को बढ़ाया और व्यापारियों को कई तरह की सुविधाएं प्रदान कीं। नरवाहन के आदेश से मत्तट ने आहाड़ के सूर्य मंदिर के लिए प्रतिवर्ष 14 द्रम्म भेंट करने की आज्ञा जारी की।

मत्तट ने एक जिनालय का निर्माण भी करवाया। नरवाहन के समय मेवाड़ में एक शास्त्रार्थ का आयोजन हुआ। यह शास्त्रार्थ बौद्धों, दिगम्बर जैनियों व शैवों के बीच हुआ था। 2-3 वर्ष राज करने के बाद नरवाहन का देहांत हो गया।

रावल नरवाहन

नाथ प्रशस्ति (971 ई.) :- एकलिंगजी मंदिर के निकट स्थित लकुलीश मंदिर के शिलालेख से नरवाहन का शासनकाल ज्ञात होता है। यह शिलालेख 971 ई. का है। इस शिलालेख को ‘नाथों के मंदिर का शिलालेख’ भी कहते हैं।

इस प्रशस्ति के रचयिता आम्र कवि थे, जो कि आदित्यनाथ के पुत्र थे। मन्दिर के शिखर से बहने वाले जल के कारण इस प्रशस्ति का एक हिस्सा मिट गया है। इस शिलालेख में बप्पा रावल, राजधानी नागदा, लकुलीश, कुशिक, वेदांग मुनि व स्वयं नरवाहन का वर्णन है।

शिलालेख की शुरुआत में लकुलीश को प्रणाम किया गया है। फिर किसी देवता और देवी की प्रार्थना की गई है। कुशिक आदि योगियों के बारे में कहा गया है कि वे शरीर पर भस्म लगाते थे, वल्कल वस्त्र पहनते थे, जटाजूट धारण करते थे व पाशुपत योग की साधना करते थे।

रावल नरवाहन को भगवान शिव का उपासक कहा गया है। रावल नरवाहन की वीरता की प्रशंसा की गई है। इस शिलालेख में स्त्री के आभूषणों का वर्णन भी है।

इस शिलालेख के अनुसार नागदा में हुए शास्त्रार्थ में पाशुपत मतावलम्बी वेदांग मुनि ने जैनियों व बौद्धों को पराजित किया। शिलालेख के अंत में मंदिर को बनाने वालों को प्रणाम किया गया है।

सहस्रबाहु मंदिर :- कैलाशपुरी में स्थित एकलिंगजी मंदिर से ढाई किलोमीटर की दूरी पर सहस्रबाहु मंदिर स्थित है। मेरे दृष्टिकोण से यह मंदिर मेवाड़ में मौजूद सभी मंदिरों में सबसे बेहतरीन तरीके से तराशा हुआ मंदिर है।

सहस्रबाहु मंदिर

विभिन्न देवी-देवताओं की प्रतिमाएं व स्तंभों से लेकर शीर्ष तक अद्भुत नक्काशी देखने वाले को मंत्रमुग्ध कर सकती है। दुर्भाग्य है कि इस मंदिर में मेवाड़ के अन्य मंदिरों की तुलना में कम दर्शक आते हैं। यह पंचायतन शैली का मंदिर है।

देखने वाले यदि गौर करें, तो इस मंदिर में प्रवेश के बाद ऊपर की तरफ, यहां तक कि छज्जों के नीचे तक देखने पर भी उन्हें मूर्तियों व नक्काशी का अद्भुत स्वरूप दिखाई देगा। अलग-अलग लेखकों ने इस मंदिर के निर्माणकाल का अलग-अलग समय दिया है,

फिर भी 9वीं सदी से 11वीं सदी के बीच इस मंदिर के निर्माण को स्वीकारा जाना चाहिए। इस मंदिर के निर्माण में राजघराने की स्त्रियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। कालांतर में इस मंदिर का नाम ‘सास बहू मंदिर’ पड़ गया।

इतिहासकार डॉक्टर श्रीकृष्ण जुगनू ने रावल भर्तृभट्ट द्वितीय की रानी महालक्ष्मी व रावल अल्लट की रानी हरियादेवी की तरफ संकेत करते हुए सास-बहू की अवधारणा रखी है।

कहा जाता है कि रानी महालक्ष्मी (सास) ने भगवान विष्णु का मंदिर बनवाया व रानी हरियादेवी (बहू) ने शेषनाग का मंदिर बनवाया। भगवान विष्णु का मंदिर बड़ा है।

इल्तुतमिश के नागदा आक्रमण के समय यह मंदिर खंडित कर दिया गया था। वर्तमान में इस मंदिर में पूजी जाने वाली मुख्य प्रतिमा नहीं है, परन्तु सम्पूर्ण मंदिर ही मूर्तियों से सुसज्जित है। मंदिर के प्रवेशद्वार के निकट एक वृत्ताकार मण्डल है,

जिसके बीच में ब्रह्मा व चारों ओर ब्रह्मा, बलराम, कार्तिकेय और सूर्य की आकृतियां हैं। 1651 ई. में महाराणा जगतसिंह के शासनकाल में व 1702 ई. में महाराणा अमरसिंह द्वितीय के शासनकाल में इस मंदिर के जीर्णोद्धार का प्रयास किया गया था।

रावल शालिवाहन :- रावल शालिवाहन 2-3 वर्ष ही राज कर पाए और 977 ई. से पहले इनका देहांत हुआ। रावल अल्लट के शासनकाल में गुहिलों का वर्चस्व जितनी तेजी से बढ़ा, रावल शालिवाहन के शासनकाल में यह वर्चस्व उतनी ही तेजी से क्षीण हुआ।

रावल शालिवाहन

यहां से गुहिलों के संघर्ष का दौर शुरू होता है। यह संघर्ष उस दौर के अन्य बड़े-बड़े राजवंशों से रहा, जिसका वर्णन आगे के भागों में किया जाएगा।

काठियावाड़ के भावनगर, पालिताणा, लाठी, वला, राजपीपला राज्यों के शासक इन्हीं रावल शालिवाहन के वंशज हैं। काठियावाड़ के गोहिलों का वर्णन बाद में अलग से किया जाएगा।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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