रावल भर्तृभट द्वितीय :- रावल भर्तृभट्ट द्वितीय के शासनकाल में लगभग 941 ई. में आहाड़ में आदिवराह मंदिर बना था। इस मंदिर में एक शिलालेख भी है, जो 30 अप्रैल, 944 ई. को खुदवाया गया।
शिलालेख में उल्लेख है कि आदिवराह मन्दिर में पाश्चरात्र विधि से पूजन आदि सम्पन्न किए जाते हैं। भर्तृभट द्वितीय के शासनकाल का एक शिलालेख प्रतापगढ़ से मिला है, जो कि 17 जुलाई, 942 ई. का है। इस शिलालेख में खेती का वर्णन है।
वे खेत, जिन्हें चमड़े के चड़स द्वारा सींचा जाता था, उन खेतों के लिए ‘कोशवाह’ व ‘कच्छ’ शब्दों का प्रयोग किया गया है। इसी शिलालेख में रावल भर्तृभट्ट द्वितीय को ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि दी गई है।
रावल भर्तृभट्ट द्वितीय ने घोटारसी के सूर्य मन्दिर हेतु पलासिया के निकट बब्बूलिका क्षेत्र (बम्बोरी गाँव) भेंट किया। इस समयकाल तक मेवाड़ के शासकों ने मेवाड़ का अधिकतर हिस्सा राष्ट्रकूटों से छीन लिया था, लेकिन चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर अभी भी राष्ट्रकूटों का कब्ज़ा था।
इस समय राष्ट्रकूट नरेश स्वयं तो मेवाड़ में नहीं थे, पर उनकी एक फ़ौज चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर तैनात थी। भर्तृभट्ट द्वितीय ने अपनी सेना एकत्र करके चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर आक्रमण किया और राष्ट्रकूटों को परास्त करके दुर्ग पर विजय पताका फहराई।
977 ई. के आटपुर अभिलेख में भर्तृभट्ट द्वितीय को ‘तीनों लोकों का तिलक’ की संज्ञा दी गई है। इनका विवाह राष्ट्रकूट वंश की रानी महालक्ष्मी से हुआ। रानी महालक्ष्मी भगवान विष्णु की परम आराधिका थीं। इन्होंने नागदा में विष्णु मंदिर का निर्माण कार्य प्रारंभ करवाया।
रावल भर्तृभट्ट द्वितीय नेे भर्तृपुर (वर्तमान भटेवर) गांव की स्थापना की। भटेवर का विकास जलाशय के निर्माण के साथ किया गया था। यहां का तालाब आज भी भर्तृभटिया तालाब कहलाता है। सम्भवतः परमार शासक मुंज के आक्रमण के दौरान भटेवर उजड़ गया।
रावल भर्तृभट्ट द्वितीय ने जैन धर्म को आश्रय दिया। उन्होंने ‘गुहिल विहार’ का निर्माण करवाया, जहां आदिनाथ की प्रतिमा स्थापित की गई। रावल भर्तृभट्ट द्वितीय का देहांत 949 ई. के आसपास हुआ।
रावल अल्लट :- इन्हें आलु रावल भी कहा जाता है। ये रावल भर्तृभट द्वितीय के पुत्र थे। रावल अल्लट की माता राष्ट्रकूट वंश की रानी महालक्ष्मी थीं। रावल अल्लट के समय अमात्य (मुख्य मंत्री) का नाम ममट था।
संधिविग्रहीक (वह मंत्री, जिसका कार्य दूसरे राज्यों से संधि व युद्ध करने का होता था) का नाम दुर्लभराज था। वंदिपति (मुख्य भाट) नाग थे। भिषगाधिराज (मुख्य वैद्य) रुद्रादित्य थे।
अक्षपटलिक (आय-व्यय का हिसाब रखने वाला मंत्री) मयूर और समुद्र थे। रावल अल्लट ने आहाड़ को राजधानी बनाई। अल्लट भी अपने पिता की भांति वैष्णव भक्त थे।
हूणों का आक्रमण :- अल्लट के समकालीन कवि सोमदेव द्वारा रचित ग्रंथ नीतिवाक्यामृत में उल्लेख है कि एक हूण राजा ने व्यापारी का वेष धारण करके छल से चित्तौड़गढ़ पर कब्ज़ा कर लिया।
अल्लट ने प्रतिशोधस्वरूप चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण किया और हूणों को करारी शिकस्त दी। हूण राजा ने क्षमा मांगकर अपनी पुत्री हरियादेवी का विवाह अल्लट से करवा दिया।
रावतभाटा स्थित बाडोली के घाटेश्वर महादेव मंदिर के सामने स्थित श्रृंगार मंडप में यह विवाह संपन्न हुआ। इस तरह ये मेवाड़ के एकमात्र शासक थे, जिन्होंने हूण राजकुमारी से विवाह किया। इन राजकुमारी हरियादेवी ने हर्षपुर नामक गाँव बसाया।
हूणों से मैत्री :- अल्लट द्वारा रानी हरियादेवी से विवाह के बाद मेवाड़ व हूणों में मैत्री हुई। अल्लट ने आहाड़ के नवनिर्मित मन्दिर की गोष्ठिक में हूणों को आदरसहित आमंत्रित किया था। यह बात परमारों को बहुत खटकी।
प्रतिहार राजा देवपाल का मेवाड़ पर आक्रमण :- प्रसिद्ध सम्राट मिहिरभोज के वंशज देवपाल के समय प्रतिहारों की शक्ति क्षीण हो गई थी। देवपाल ने पुनः अपना वर्चस्व जमाने के लिए मेवाड़ पर चढ़ाई की। इस युद्ध में हूणों ने भी मेवाड़ का साथ दिया।
युद्धक्षेत्र में अल्लट ने अपनी गदा के एक ही वार से देवपाल प्रतिहार को युद्ध में मार गिराया। देवपाल की मृत्यु के बाद कन्नौज के प्रतिहार केवल नाम मात्र के शासक रह गए थे। देवपाल की मृत्यु का उल्लेख आहाड़ के एक जैन मंदिर में लिखे शिलालेख में किया गया है।
राष्ट्रकूटों से लड़ाई :- राष्ट्रकूट नरेश ने कन्नौज पर चढ़ाई की, जहां देवपाल के वंशज महिपाल का शासन था। महिपाल प्रतिहार ने मेवाड़ नरेश रावल अल्लट से सहायता मांगी। रावल अल्लट नेे स्वयं फ़ौज समेत इस लड़ाई में भाग लिया।
अल्लट ने मेवाड़ में सबसे पहले नौकरशाही का गठन किया। मेवाड़ राज्य में श्वेतांबरों को आश्रय सर्वप्रथम अल्लट ने दिया था। अल्लट के समय जैन आचार्य यशोभद्र सूरी ने आघाटपुर (आहड़) में पार्श्वनाथ का मंदिर बनवाया।
अल्लट की रानी हरियादेवी किसी दोष से पीड़ित थीं। श्वेतांबर जैन आचार्य बलभद्रसूरी ने इस दोष को दूर किया। अल्लट की राजसभा में श्वेतांबरों और दिगम्बरों में शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें श्वेतांबर साधु प्रद्युम्न सूरी ने दिगम्बरों को परास्त किया।
अल्लट के शासनकाल में मेवाड़ व्यापारिक केंद्र बन गया। यहां कर्नाटक, मध्यदेश, लाट, पंजाब के एक भाग टक्कदेश आदि से व्यापारी आने लगे। अल्लट ने आघाट (आहाड़) को और अधिक सम्पन्न कर दिया, इसलिए उन्हें आहाड़ का वास्तविक संस्थापक भी कहा जाता है।
सारणेश्वर प्रशस्ति (953 ई.) :- इस प्रशस्ति से आहाड़ में प्रचलित द्यूत क्रीड़ा की जानकारी मिलती है। यहां बाहर से कई व्यापारी आते थे, जो द्यूत भी खेलते थे। मेवाड़ के शासक की तरफ से उन्हें द्यूत खेलने की छूट थी, परन्तु विजेता को भोजन योग्य सामग्री की एक थाली आहाड़ के आदिवराह मंदिर में पहुंचानी होती थी।
उनवास का शिलालेख (959 ई.) :- अल्लट के शासनकाल का एक शिलालेख उनवास गांव (वर्तमान में राजसमन्द की खमनोर पंचायत समिति में स्थित) में मिला, जो कि 959 ई. का है।
971 ई. में रावल अल्लट का देहान्त हुआ। अल्लट के पुत्र नरवाहन हुए। पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)