मेवाड़ का प्रारंभिक इतिहास (भाग – 3)

महेंद्र द्वितीय :- कविराजा श्यामलदास ने वीर विनोद में महेंद्र द्वितीय को ही बप्पा रावल माना है, जो कि सही नहीं है। असल में महेंद्र द्वितीय बप्पा रावल के पिता थे।

मेवाड़ के वास्तविक संस्थापक – बप्पा रावल :- इन्हें कालभोज, बापा, बप्प, बप्पक आदि नामों से भी जाना जाता है। बप्पा रावल का जन्म वर्ष ज्ञात नहीं है।

बप्पा रावल के गुरु हारीत ऋषि थे, जो कि शैव धर्म के लकुलीश के अनुयायी थे, ये बात सत्य है परंतु इनके पीछे बहुत से काल्पनिक कहानी किस्से प्रसिद्ध हो गए, जिनका वर्णन यहां नहीं किया जा रहा है। उन सभी कहानी किस्सों में जो ऐतिहासिक महत्व की घटनाएं हैं, वे इस तरह हैं :-

बप्पा रावल अपने गुरु हारीत ऋषि की गायें चराया करते थे। बप्पा रावल ये कार्य गौ सेवा व्रत के तहत करते थे, ना कि गरीबी के कारण। बप्पा रावल की एकलिंग जी में प्रबल आस्था थी।

हारीत ऋषि

प्राचीन लेखों से ज्ञात होता है कि उक्त गुरु ने किसी गढ़े हुए ख़ज़ाने के बारे में बप्पा रावल को बताया था, जिससे बप्पा रावल ने अपनी स्थिति मजबूत की। बप्पा रावल पाशुपत सम्प्रदाय के अनुयायी बने।

चित्तौड़ विजय :- मान्यता है कि बप्पा रावल के समय चित्तौड़ पर मौर्य शासक मानमोरी का राज था। कुछ लोग कहते हैं कि मानमोरी ने चित्तौड़ का किला अपने दामाद बप्पा रावल को दहेज में दिया था।

कुछ कहते हैं कि बप्पा रावल ने मानमोरी को परास्त कर किला जीता, परंतु बाद में हुए शोध कार्यों से कुछ अलग निष्कर्ष निकलते हैं। मानमोरी का एक शिलालेख चित्तौड़गढ़ के शंकर घट्टा से मिला, जिसके अनुसार 713 ई. में चित्तौड़गढ़ पर मानमोरी का शासन था।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग में स्थित प्रसिद्ध कालिका माता मंदिर पहले सूर्य मंदिर था। इस सूर्य मंदिर का निर्माण मानमोरी ने ही करवाया था। चित्तौड़गढ़ से एक अन्य शिलालेख 754 ई. का मिला, जिसके अनुसार चित्तौड़गढ़ पर इस समय कुकड़ेश्वर नामक मौर्य राजा का शासन था।

इस प्रकार ये निश्चित हो जाता है कि बप्पा रावल ने यह दुर्ग 754 ई. के बाद ही जीता था। चित्रांगद मौर्य के बाद क्रमशः महेश्वर, भीम, भोज, मान, धवल, कुकड़ेश्वर नामक मौर्य शासक चित्तौड़ की गद्दी पर बैठे।

हारीत ऋषि को प्रणाम करते हुए बप्पा रावल

बीकानेर के अनूप संस्कृत पुस्तकालय में संग्रहित एक हस्तलिखित ग्रंथ के अनुसार बप्पा रावल 763 ई. में चित्तौड़गढ़ की गद्दी पर बिराजे। महाराणा कुम्भा को बप्पा रावल का समयकाल ज्ञात हो गया था।

उनके समय लिखित ग्रंथ ‘एकलिंग माहात्म्य’ में बप्पा रावल का समयकाल विक्रम संवत 810 (754 ई.) बताया है और साथ ही यह भी लिखा गया है कि इस जानकारी का सन्दर्भ प्राचीन है अर्थात महाराणा कुम्भा को किसी पुरानी पुस्तक से यह संवत ज्ञात हुआ होगा।

लेकिन एकलिंग माहात्म्य के दूसरे भाग में यह लिखा है कि इस संवत में बप्पा रावल ने राजकाज अपने पुत्र को सौंपकर समाधि ली थी। यह दूसरा भाग महाराणा रायमल के शासनकाल में लिखा गया था।

नागरिप्रचारिणी पत्रिका में छपे एक लेख में महाराणा कुम्भा के समय मिले बप्पा रावल से संबंधित संवत के बारे में यह लिखा गया था कि “यह तय है कि बप्पा रावल का संवत 810 है, परन्तु यह तय नहीं है कि उक्त संवत में उनका जन्म हुआ था या गद्दी पर बैठे थे या देहांत हुआ।”

लेकिन शोध के अनुसार एकलिंग माहात्म्य के दूसरे भाग में त्रुटि है, क्योंकि कुकड़ेश्वर मौर्य का शिलालेख इस बात का अकाट्य प्रमाण है कि 754 ई. से पहले बप्पा रावल ने चित्तौड़ दुर्ग जीता ही नहीं था, तो इस वर्ष उनका समाधि लेना असम्भव था।

मेरे अनुसार उक्त संवत बप्पा रावल की गद्दीनशीनी का रहा होगा। बीकानेर के अनूप संग्रहालय की पुस्तक व एकलिंग माहात्म्य के वर्णन से बप्पा रावल की गद्दीनशीनी अवश्य ही 754 ई. से 763 ई. के बीच हुई होगी।

इस तरह यह कहा जा सकता है कि बप्पा रावल ने ये दुर्ग मानमोरी से नहीं, बल्कि कुकड़ेश्वर मौर्य से जीता था। लेकिन कुछ आधुनिक इतिहासकारों का कहना है कि बप्पा रावल ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग जीता ही नहीं था, यह दुर्ग उनके वंशजों ने जीता।

बप्पा रावल

गोपीनाथ शर्मा का आंकलन :- इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा का कहना है कि “बप्पा रावल ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग नहीं जीता था। चित्तौड़गढ़ दुर्ग तो प्रतिहारों ने जीता था और सम्भवतः मेवाड़ के शासक अल्लट ने यह दुर्ग देवपाल प्रतिहार से जीता।”

गोपीनाथ शर्मा के इस कथन को गलत सिद्ध करने के लिए डबोक का शिलालेख ही पर्याप्त है, जिसमें चित्तौड़गढ़ दुर्ग राष्ट्रकूटों द्वारा जीता जाना लिखा है और यह घटना अल्लट के शासनकाल से लगभग 150 वर्ष पुरानी है।

यह भी सम्भव है कि बप्पा रावल ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर विजय प्राप्त की हो। बप्पा रावल के बाद मौर्यों ने राष्ट्रकूटों की सहायता से गुहिलों से यह दुर्ग फिर से छीन लिया हो।

831 ई. के एक शिलालेख के अनुसार चित्तौड़गढ़ पर इस समय राजा धरणीवराह का शासन था। राजा धरणीवराह से या उसके बाद किसी शासक से यह दुर्ग पुनः गुहिलों ने छीना था।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

error: Content is protected !!