सामोली गाँव का शिलालेख (646 ई.) :- मेवाड़ के शासक शिलादित्य द्वितीय का ये शिलालेख मेवाड़ के गुहिलवंश का सबसे प्राचीन शिलालेख है, जो कि मेवाड़ के प्राचीन इतिहास के समयकाल को सिद्ध करने के लिए अतिमहत्वपूर्ण है।
सामोली के शिलालेख के प्रकाश में आने का वर्णन :- 1893 ई. में सामोली गाँव का हकमा नामक एक गरासिया मकान बनाने के लिए नींव खोद रहा था, तब उसको एक शिलालेख मिला। उसे लगा कि इस पर लिखी सूचना किसी गढ़े हुए धन के बारे में है।
उसने उस शिलालेख को एक कपड़े में लपेटा और कई गांवों में घूमकर ब्राह्मणों से शिलालेख पढ़ाने के प्रयास किए, लेकिन कोई भी उस प्राचीन शिलालेख को नहीं पढ़ सका। फिर वह शिलालेख लेकर सिरोही के रोहिड़ा गांव में पहुँचा, जहां उसको एक व्यक्ति ने कहा कि
यह शिलालेख मैं तो नहीं पढ़ सकता, पर मेरा छोटा भाई गौरीशंकर ओझा इसे पढ़ सकता है, लेकिन अभी वह उदयपुर है। गरासिए ने उनसे कहा कि जब भी आपके भाई लौटें, तो उनसे कहना कि वासा गांव के ब्राह्मण धूला से मिल लेवें।
जब ओझा जी लौटे, तो वे फौरन वासा गांव में जाकर ब्राह्मण धूला से मिले। धूला के ज़रिए वह शिलालेख ओझा जी के सामने आया, तो उन्होंने शिलालेख पढ़कर धूला को उसका अर्थ बताया। अर्थ जानकर धूला बड़ा निराश हुआ, क्योंकि उसे धन की आशा थी।
उससे भी ज्यादा निराश वह गरासिया हुआ, जब उसे इस अर्थ का पता लगा। ओझा जी ने वह शिलालेख पढा और अपने घर लौट गए। 2 वर्ष बाद ओझा जी पुनः ब्राह्मण धूला से मिलने गए और कहा कि
यह शिलालेख तुम्हारे तो किसी काम का नहीं है, कुछ रुपए लेकर मुझे ही दे दो। तब 25 रुपए में ओझा जी ने वह शिलालेख धूला ब्राह्मण से खरीद लिया। ओझा जी ने यह शिलालेख अजमेर के राजपूताना म्यूजियम में भेंट कर दिया।
सामोली गाँव के शिलालेख से प्राप्त जानकारी :- शिलादित्य द्वितीय द्वारा खुदवाया गया यह शिलालेख 646 ई. का है। सामोली गांव वर्तमान में उदयपुर जिले की कोटड़ा तहसील में स्थित है। यह शिलालेख लगभग 11 इंच लंबा व लगभग इतना ही चौड़ा है। शिलालेख में 12 पंक्तियां लिखी हैं। इसकी भाषा संस्कृत है।
शिलालेख में लिखा है कि “शत्रुओं को जीतने वाला, देव-ब्राह्मण-गुरुजनों को आनंद देने वाला और अपने कुल रूपी आकाश का चन्द्रमा राजा शिलादित्य पृथ्वी पर विजयी हो रहा है”
शिलालेख में यह जानकारी भी है कि वटनगर (वर्तमान वसंतगढ़-सिरोही) से आए हुए महाजनों के समूह के मुखिया जेंतक के नेतृत्व में एक खान बनाई गई। फिर सभी महाजनों की सलाह के अनुसार अरण्यवासिनी देवी का मंदिर बनवाया गया।
इस मन्दिर में अलग-अलग जगहों से 18 गायक आए हुए हैं, भजन आदि गाते हैं। इस मंदिर में प्रतिदिन लोगों की भीड़ रहती है। जेंतक को ‘महत्तर’ की उपाधि दी गई। ‘महत्तर’ राजकर्मचारियों में बड़ा ऊंचा पद था। इसी का अपभ्रंश ‘महता’ है।
वृद्धावस्था में जेंतक ने स्वेच्छा से अपने प्राणों का त्याग कर दिया। जेंतक द्वारा बनवाई गई खान का नाम तो नहीं दिया गया है, परन्तु सम्भवतः यह वही खान है, जिसे वर्तमान में जावर माइन्स के नाम से जाना जाता है। शिलादित्य द्वितीय के पुत्र अपराजित हुए।
अपराजित का इतिहास :- विष्णु मंदिर का शिलालेख (661 ई.) :- अपराजित का 2 नवम्बर, 661 ई. का एक शिलालेख नागदा के कुंडेश्वर में था, जो वर्तमान में उदयपुर के विक्टोरिया हॉल म्यूजियम में है। अपराजित ने शिवसिंह के पुत्र वराहसिंह को अपना सेनापति नियुक्त किया।
शिलालेख में अपराजित के सेनापति को ‘महाराज वराहसिंह’ लिखा है, जिससे मालूम पड़ता है कि अपराजित की फौज बड़ी रही होगी। अपराजित ने अपनी सैनिक शक्ति बढ़ाने पर अधिक बल दिया था।
कुंडेश्वर में वराहसिंह की पत्नी यशोमति या अरुंधति ने 661 ई. में विष्णु भगवान का एक मंदिर व बावड़ी का निर्माण करवाया। यह मंदिर उदयपुर जिले के बड़गांव पंचायत समिति के घसियार-किशनियावाड़ मार्ग पर स्थित है। मन्दिर में 23 सीढियां हैं।
मुख्य मंदिर के चारों तरफ चार मंदिर हैं जो कि गणेश जी, देवी, सूर्य मंदिर व शिवालय हैं। यह पंचायतन शैली का मंदिर है। यह मंदिर पंचायतन शैली के विष्णु मंदिरों में सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक है। इस मंदिर का मूल नाम मधुकैटभरिपु मंदिर था।
इस मंदिर में एक प्रशस्ति खुदवाई गई। इस प्रशस्ति के लेखक दामोदर व उत्कीर्णक यशोभट थे। इस प्रशस्ति की भाषा संस्कृत है। बाद में मेवाड़ के शासक मथनसिंह के काल में इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया।
अपराजित के नाम पर 12वीं सदी में भुवनदेव ने ‘अपराजितपृच्छा‘ की रचना की, जो वास्तु व शिल्प से संबंधित ग्रंथ है।
धूलेव का ताम्रपत्र (679 ई.) :- धूलेव वर्तमान उदयपुर जिले में स्थित है, जहां आज ऋषभदेव का प्राचीन मंदिर स्थित है। धूलेव में 679 ई. का एक ताम्रपत्र मिला है। इस ताम्रपत्र में किष्किंधा (कल्याणपुर) के महाराज भेटी द्वारा उब्बरक नामक गाँव ब्राह्मण भहिनाग को भेंट किए जाने का उल्लेख है।
713 ई. के करीब शत्रुओं के आक्रमण से अपराजित को पहाड़ों में घेर लिया गया और बड़ी बहादुरी से लड़ते हुए अपराजित ने अपने साथियों समेत वीरगति पाई।
मेवाड़ का राज शत्रुओं के हाथों में जाता हुआ प्रतीत हो रहा था, लेकिन इन विपरीत परिस्थितियों में अपराजित की एक रानी को जीवित बचा लिया गया। इन रानी का एक पुत्र हुआ जिनका नाम महेंद्र रखा गया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)