मेवाड़ की भौगोलिक स्थिति :- मेवाड़ राजपूताने का दक्षिणी भाग है। अलग-अलग शासकों के समय मेवाड़ की सीमाएं कम-ज्यादा होती रहती थीं। फिर भी यदि औसत सीमाओं के बारे में लिखा जाए, तो मेवाड़ राज्य की सीमा पूर्व में भेलसा व चंदेरी को छूती थी,
पश्चिम में पुर, पश्चिमोत्तर में मंडोवर व रूण, उत्तर में बयाना, पूर्वोत्तर में रणथंभौर व ग्वालियर को छूती थी। मेवाड़ में अरावली पर्वतमाला का काफी विस्तार है। यह क्षेत्र बारिश के दिनों में बड़ा प्राकृतिक, हरा-भरा व सुंदर दिखाई पड़ता है।
मेवाड़ में जयसमंद, राजसमन्द, उदयसागर, पीछोला, फतहसागर, बड़ी, स्वरूपसागर, दूध तलाई, हमेरपाल, गोवर्द्धनसागर आदि प्रसिद्ध झीलें हैं। मेवाड़ में अनेक दुर्ग हैं, जिनमें चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, सज्जनगढ़ दुर्ग विशेष स्थान रखते हैं। यहां के दुर्ग ऊंची पहाड़ियों पर बनाए जाते थे।
बनास, गोराई, बेड़च, साबरमती, खारी, सोम, वाकल आदि नदियों का उद्गम स्थल मेवाड़ ही है। आहड़ नदी उदयसागर झील में गिरने के बाद बेड़च के नाम से जानी जाती है। भीलवाड़ा में बनास, बेड़च व मैनाल नदियां मिलकर त्रिवेणी संगम बनाती हैं।
मेवाड़ के राजपूतों का पहनावा :- राजपूत पुरुष पगड़ी, कुर्ता, अंगरखी, धोती, कमरबंधा आदि पहनते थे। कुछ पायजामा भी पहनते थे। महाराणा के दरबार में जाते समय राजपूत सरदार छोगादार पगड़ी पहनते थे।
उसके बाद अमरशाही या अरसीशाही पगड़ी पहनने का रिवाज चल पड़ा। इसके अलावा दरबारी सरदार कुर्ता, झग्गा (जामा), पायजामा आदि पहनकर कमर बांधते थे।
मांझा :- मांझा उस तास के कपड़े के टुकड़े को कहते थे, जो मेवाड़ के बड़े दर्जे वाले सरदारों की पगड़ियों में लगाया जाता था। यह विशेषकर अमरशाही पगड़ी में लगाया जाता था। इसको लगाने की इजाजत उन्हीं लोगों को होती थी, जिन्हें महाराणा स्वयं बख्शते।
राजपूत स्त्रियां बड़े घेर का लहंगा पहनकर 6 हाथ लंबी साड़ी (ओढ़नी) ओढ़ती थीं। दोनों हाथों के भुजों व पहुँचों पर हाथीदांत की या लाख की चूड़ियां और उनके बीच-बीच में जड़ाऊ सोने व चांदी के जेवर पहनती थीं। माथे का बोर, नाक की नथ, गले का तिमणिया और हाथ की चूड़ियां सुहागिन स्त्रियों के चिह्न माने जाते थे।
विधवा राजपूत स्त्री आंखों में काजल लगाने, आभूषण, कच्चे रंग के वस्त्र पहनने आदि का त्याग करती थीं। किसी प्रकार के मद्य या मांस का सेवन नहीं करती थीं।
मेवाड़ में लिए जाने वाले प्रमुख कर (टैक्स) :- मापा :- मेवाड़ के एक गांव से दूसरे गांव में माल लाने-ले जाने पर लिया जाने वाला कर। गनीम बराड़ :- युद्ध के समय युद्ध की तैयारियों हेतु वसूला जाने वाला कर।
छटूंद :- यह कर मेवाड़ के जागीरदारों से लिया जाता था, जो कि जागीरदार की कुल आय का 6ठा हिस्सा होता था। क़ैद खालसा :- ये कर मेवाड़ के जागीरदारों से लिया जाने वाला उत्तराधिकार शुल्क था।
तलवार बंधाई :- यह भी एक प्रकार का उत्तराधिकार शुल्क था, जो किसी जागीरदार के देहांत के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र द्वारा अदा किया जाता था। बोलाई कर :- ये कर मेवाड़ के भीलों द्वारा यात्रियों से वसूल किया जाता था।
मेवाड़ के राजकोष में टैक्स के अलावा खानों (माइन्स) से भी अच्छा खासा रुपया जमा होता था। मुहणौत नैणसी के अनुसार 17वीं सदी में मेवाड़ की प्रसिद्ध जावर की खान से राज्य को प्रतिदिन 400-500 रुपए की आय होती थी। 19वीं सदी के लेखों के अनुसार इस खान से प्रतिवर्ष 3 लाख रुपए की आय होती थी।
मेवाड़ में रियासतकाल में शिकार किए जाने वाले प्रमुख जानवर :- बघेरा (पैंथर) :- इसको मेवाड़ में ‘अधवेसरा’ कहा जाता था। मेवाड़ के जंगलों में बघेरों की भरमार थी।
अक्सर मेवाड़ शासक, सामंत व भील आदि इन बघेरों का शिकार किया करते थे। बघेरा आदमियों पर हमला तभी करता है, जब इसको दबाने का प्रयास किया जाए या फिर ये ज़ख्मी हालत में हो। वर्तमान में भी मेवाड़ के कई पहाड़ों में बघेरे पाए जाते हैं।
भेड़िया :- इसे मेवाड़ में ‘वरघड़ा’ कहा जाता था। इसके अलावा साम्भर व हरिण के शिकार भी किए जाते। जंगली सूअर :- मेवाड़ में जंगली सुअरों का शिकार बहुतायत में होता था। गुस्से की हालत में यह किसी तरह शेर से कम नहीं होता।
मेवाड़ के सिक्के :- राजपूताने में मेवाड़ रियासत ने सर्वाधिक प्रकार के सिक्के जारी किए। यहां चलाए जाने वाले सिक्के गधिया, चांदोड़ी, चित्तौड़ी, भिलाड़ी, उदयपुरी आदि हैं। चांदोड़ी सिक्के महाराणा भीमसिंह की बहन चंद्रकुंवर बाई ने जारी किए थे।
मेवाड़ में चलाए जाने वाले तांबे के सिक्के ढींगला, भिलाड़ी, नाथद्वारिया, भीडरिया, त्रिशूलिया आदि कहलाए। मेवाड़ में मुख्य रूप से 2 टकसालें थीं :- एक चित्तौड़ में व दूसरी उदयपुर में। बाद में चित्तौड़ की टकसाल बन्द कर दी गई।
मेवाड़ के 2 ठिकानों को भी सिक्के जारी करने के अधिकार दिए गए। चुंडावत राजपूतों के पाटवी ठिकाने सलूम्बर ने पदमशाही सिक्के व शक्तावत राजपूतों के ठिकाने भींडर ने भिंडरिया सिक्के जारी किए। महाराणा स्वरूपसिंह ने स्वरूपशाही सिक्के चलाए।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
आपने ये जो सम्पूर्ण ब्लॉग लिखा है क्या ये सचित्र पुस्तक रूप में भी पढ़ने को मिल सकेगा?